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भाषानुवादसहिता श्राप उन वाक्योंका तात्पर्य न समझ कर ही ज्ञानमें प्रमाणांका अभाव बतलाते हो" ऐसी शङ्का यदि कीजिए, तो वह ठीक नहीं । क्योंकि--
यत्नतो वीक्षमाणोऽपि विधि ज्ञानस्य न क्वचित् ।
श्रुतौ स्मृतौ वा पश्यामि विश्वासो नान्यतोऽस्ति नः ॥१५॥ बड़े प्रयत्नपूर्वक अन्वेषण करनेपर भी श्रतियों और स्मृतियों में [ मुक्ति-प्राप्तिके लिए] जानका विधान हमें कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। और श्रुति-स्मृतियोंको छोड़कर अन्यत्र तो हम लोगोंको कहीं विश्वास है नहीं । ' स्यात्प्रवृत्तिरन्तरेणाऽपि विधि लोकवदिति चेत्, तन्नः यतः
यदि ऐमा शङ्का हो कि "जैसे भोजनादि कृत्योंमें शास्त्रीय विधि के विना रागसे ही, सर्वसाधारणकी प्रवृत्ति होती है। वैसे ही ज्ञानसे अज्ञान की निवृत्ति अनुनव-सिद्ध है । तब शास्त्रीय विधिके न होनेपर भी उसमें प्रवृत्ति हो सकती है तो यह भी उचित नहीं, क्योंकि [ यदि अज्ञाननिवृत्तिरूप मोक्ष दृष्ट फल होता, तब तो यह शङ्का उचित थी, परन्तु वह तो देहपातके अनन्तर होनेवाले कर्मफलके समान अष्टरूप है। अतएव गाम्नविधानके बिना ज्ञान उसका साधन नहीं माना जा सकता।]
अन्तरेण विधि मोहाद्यः कुर्यात्साम्परायिकम् ।
न स्यात्तदुपकाराय भम्मनीव हुतं हविः ॥ १६ ॥ शास्त्रविधान के बिना ही मोहवश यदि कोई अदृष्टार्थक-पारलौकिक कर्म करना है, तो उसका वह कृत्य भम्ममें दी हुई आहुतिके समान निरर्थक है ।। १६ ।।।
अभ्युपगतप्रामाण्यवेदार्थविज्जैमिन्यनुशासनाच्च । पूर्वोक्त मन्तव्य केवल युक्तियांसे ही सिद्ध होता है, ऐसी बात नहीं, किन्तु सम्पूर्ण ग्रास्तिक लोग जिनको प्रामाणिक मानते हैं और जो सभी वेदार्थ-ज्ञानाओंमें श्रेष्ठ है, वह महर्षि जैमिनि भी यही कहते हैं।
आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमितोऽन्यथा ।
इति माटोपमाहोचैर्वेद विज्जैमिनिः म्वयम् ॥ १७ ॥ “सम्पूर्ण वेद कमों का प्रतिपादन करते हैं। इसलिए जो वेदभाग इससे विपरीत है, वह निरर्थक है। इस प्रकार वदोंके तात्पर्य का जाननेवाले मर्पि जैमिनिजीने भी अपने "आम्नायम्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानां तस्मादनित्यमुच्यते" (मी०सू०१।२।१) इस सूत्रमें बड़े प्रयत्नपूर्वक समस्त वेदको कर्मका ही विधायक माना है ।। १७ ॥
मन्त्रवणाच्च । वेदके मन्त्र से भी यही बात सिद्ध होती है।