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· भाषानुवादसहिता क्षत्रिय, वैश्य आदि जातियोंसे युक्त शरीरका अभिमान होने के कारण 'मैं ब्राह्मण हूँ। इत्यादि विशेष भावको प्रात होकर ब्राह्मणादि जात्युचित कर्मों में प्रवृत्ति होनी चाहिए ? समाधान-यह ठीक नहीं; क्योंकि ब्रह्मज्ञानीको ग्रासुर मोह न होने के कारण देहादिमें ममत्वबुद्धि ही नहीं है । यदि ब्रह्मज्ञानीको भी आसुर मोह माना जाय, तब उसका ब्रह्मज्ञान निष्फल हो जायगा ।। ७५ ॥
___ अज्ञानकार्यत्वाच्च न समकालं नापि क्रमेण ज्ञान-कर्मणोर्वस्त्व- . वस्तुतन्त्रत्वात् सङ्गतिरस्तीत्येवं निराकृतोऽपि काशं कुशं वाऽवलम्ब्याऽऽह ।
कर्म अज्ञानका कार्य है और ज्ञान उसका नाशक है। इसलिए कर्म और ज्ञानका एककाल में सम्बन्ध नहीं हो सकता और न क्रमसे हो सकता है, क्योंकि ज्ञान वस्तुके अधीन होता है। कर्मका. यथावत् वस्तुके अधीन होनेका कोई नियम नहीं है । इस प्रकार पूर्वप्रकरणमें ज्ञान और कर्मके सहभावका निराकरण करनेपर भी वादी काशकुशावलम्बन न्यायसे फिर शङ्का करता है
अथाऽध्यात्मं पुनर्यायादाश्रितो मूढतां भवेत् ।
स करोत्येव कर्माणि को ह्यज्ञं विनिवारयेत् ।। ७६ ।। यदि तत्त्वज्ञानीको भी शरीर, इन्द्रियादिमें अभिमान होता है ऐसा मान लीजिए तो यह ठीक नहीं । क्योंकि जिसको देहादिम अभिमान रहेगा, वह तत्त्वज्ञानी ही नहीं, किन्तु अज्ञानी ही कहलाएगा। फिर अज्ञ तो कर्मोंका आचरण करता ही है, उसको (कर्मोंसे) हटा ही कौन सकता है ? ॥ ७६॥
सिद्धत्वाचन साध्यम, यतः
सामान्येतररूपाभ्यां कर्मात्मैवाऽस्य योगिनः ।
निःश्वासोच्छासवत्तस्मान्न नियोगमपेक्षते ।। ७७ ॥ ब्रह्मज्ञानीके लिए आप जो कर्म कर्तव्य मानते हैं, उसके विधान करनेकी श्रावश्यकता नहीं, उसके लिए कर्म तो स्वयं ही सिद्ध हैं। इसमें कारण यह है कि ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मस्वरूप हो जाता है, संसार में जो कुछ भी सामान्य और. विशेषरूप वस्तु है, वह सब ब्रह्मसे अभिन्न है। कर्म भी सामान्य-विशेषमें अन्तर्भूत होने के कारण ब्रह्मस्वरूप है, इसलिए ब्रह्मज्ञानीसे भिन्न नहीं है । अतएव श्वास-प्रश्वासके समान स्वतः सिद्ध होनेके कारण वह (कर्म) कृतिका विषय नहीं है और न किसी विधि-विशेषकी अपेक्षा करता है ।। ७७ ।।
अस्तु तर्हि भिन्नाभिन्नात्मकं ब्रह्म । तथा च सति ज्ञानकर्मणी सम्भवतो भेदाभेदविषयत्वात्तयोः। तत्र तावदयं पक्ष एव न सम्भवति । किं कारणम् ? न हि भिन्नोऽयमित्यभेदबुद्धिमनिराकृत्य भेद