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( १३ . . ) इस अनुपम प्रकरण ग्रन्थको देखकर भगवान् शङ्कराचार्य उनकी विद्वत्तापर बहुत प्रसन्न और मुग्ध हुए। क्योंकि इस ग्रन्थमें उन्होंने आत्मविषयक समस्त विप्रतिपत्तियोंका युक्तिपूर्वक निराकरण करते हुए इस में वेदान्तदर्शनके मार्मिक रहस्यको गागरमें सागर जैसा भर दिया है। जिससे केवल एक इस पुस्तकका अनुशीलन करनेसे ही जिज्ञासुकी जिज्ञासा निवृत्त हो सकती है, अर्थात् प्रस्तुत पुस्तकका मनन करनेसे फिर आत्मज्ञानके विषयमें कोई भी संशय अवशिष्ट नहीं रह सकता । ग्रन्थके आरम्भमें ही ग्रन्थकारने जीवोंके समस्त दुखों का स्पष्ट निदान करके उनकी निवृत्तिका उपाय बतलाते हुए सांसारिक जीवोंको अखण्ड सुख और शान्तिका सन्देश दे दिया है। वे कहते हैं
_ 'आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तैः सर्वप्राणिभिः सर्वप्रकारस्यापि दुःखस्य स्वरसत एव जिहासितत्वात् तन्निवृत्यर्था प्रवृत्तिरस्ति स्वरसत एव ।
दुःखस्य च देहोपादानैकहेतुत्वात्, देहस्य च पूर्वोपचितधर्माऽधर्ममूलत्वादनुच्छित्तिः। तयोश्च विहितप्रतिषिद्धकर्ममूलत्वादनिवृत्तिः, कर्मणश्च रागद्वेषास्पदत्वाद्रागद्वेषयोश्च शोभनाशोभनाध्यासनिबन्धनत्वादध्यासस्य चाऽबिचारितसिद्धवस्तुनिमित्तत्त्वाद् द्वैतस्य च शुक्तिकारजतवत्सर्वस्यापि स्वतःसिद्धाऽद्वितीयात्मानवबोधमात्रोपादानत्वादन्यावृत्तिरतः सर्वानर्थहेतुरात्माऽनवबोध एव ।' - (ब्रह्मासे लेकर छोटेसे-छोटे तृणपर्यन्त अर्थात् कीट पतङ्गपर्यन्त सब प्राणियोंको सब प्रकारके दुःखोंको छोड़नेकी इच्छा स्वाभाविक ही रहती है, इसलिए उनको दूर करनेके निमित्त (प्राणियोंकी) चेष्टा भी स्वयमेव होती हैं।
देहधारण करना ही दुःखका एकमात्र कारण है और देह पूर्वजन्ममें सञ्चित धर्माऽधर्मसे उत्पन्न होता है, अतएव उनके उच्छेद हुए बिना, धर्म
और अधर्मके निवृत्त हुए बिना, देहका उच्छेद नहीं हो सकता है । और जबतक विहित एवं प्रतिषिद्ध कर्मोंका आचरण होता रहता है, तब तक धाऽधर्मकी भी निवृत्ति नहीं हो सकती है । कर्म राग-द्वेषमूलक हैं । रागद्वेष विषयोंमें सुन्दरता और असुन्दरताबुद्धिरूप मिथ्याश्रमसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्याघ्रान्ति जिसकी सत्ता विचार न करने से ही है ऐसे द्वैतवस्तुके कारण हुआ करती है और समस्त द्वैतका उपादान कारण, शुक्तिमें