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( १५ ) कर्म यस्मात् सः निष्कर्मा, निष्कमणो भावः नैष्कर्म्यम्, तस्य सिद्धिः निश्चयः, अर्थात् सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक ब्रह्मात्मावबोध । अथवा-निष्कर्म ब्रह्म, तद्विषयं विचारपरिनिष्पन्नं ज्ञानं नैष्कयं तद्रूपां सिद्धिम्, अर्थात् विचारजनित ब्रह्मविषयक ज्ञानकी सिद्धि । अस्तु, ... वेदान्तके प्रसिद्ध अनुपम ग्रन्थ संक्षेपशारीरक' के रचयिता श्री सर्वज्ञात्म मुनि इन्हीं सुरेश्वराचार्यजीके शिष्य थे। उन्होंने अपने ग्रन्थके प्रारंभमें ही आचार्य सुरेश्वरके चरणकमलोंकी वन्दना की है । प्रकृत ग्रन्थ तथा संक्षेपशारीरकके अनुशीलनसे तो. ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वज्ञात्म मुनिको प्रस्तुत ग्रन्थपर बहुत अधिक प्रेम रहा होगा और इसमें प्रतिपादित विषयको ही उन्होंने सुमनोहर पद्योंमें बद्ध करके 'संक्षेप-शारीरक' ग्रन्थ लिखा। क्योंकि संक्षेपशारीरकमें कई अंश इसीका छायानुवाद है।
इस ग्रन्थपर मूलके अभिप्रायको स्पष्ट करनेवाली म० म० पं० श्री ज्ञानोत्तम मिश्र विरचित संस्कृत टीका है । प्रस्तुत अनुवाद उसीके आधारपर किया है । इसके अतिरिक्त श्रीज्ञानामृत विरचित 'विद्यासुरभि' नामकी दूसरी टीका तथा श्रीचित्सुखाचार्य विरचित 'भावतत्त्वप्रकाशिका' नामकी एक तीसरी टीका भी इसपर है।
- प्रस्तुत . ग्रन्थका यथार्थ अनुवाद करना तो गुरुपरम्परासे वेदान्त शास्त्रका ज्ञान सम्पादन किये हुए पुरुष धौरेयोंका ही काम था; मुझ सदृश अल्पज्ञ और अल्पमतिके लिए तो यह एक उपहासकी बात है। तथापि निष्कारणकरुण भगवान् शङ्कर एवं प्रातः स्मरणीय सद्गुरुकी परम अनुकम्पासे प्रेरित होकर स्वान्तःसुखाय प्रवृत्त होनेपर जैसा भी हो सका है, 'तत्कुरुष्व मदर्पणम्' के अनुसार वह सब उन्हींकी सेवामें समर्पित है । श्रीरस्तु।
गोयनका संस्कृत महाविद्यालय, काशी ।
भाद्र कृष्ण १३ सं० २००७
विनीतप्रेमवल्लभ त्रिपाठी