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नैष्कर्म्यसिद्धिः अनात्मा, दोनोंके विवेकज्ञानको उत्पन्नकर पश्चात् सकल संसारको प्रलय करनेवाले श्रास्माश्रित अज्ञानको नष्ट कर देता है ॥ २२ ॥
इत्यादि पुनः पुनरुच्यते ग्रन्थलाधवाद् बुद्धिलाघवं प्रयोजकमिति । तत्र यद्यपि तत्त्वमस्यादिवाक्यादुपादित्सिताऽद्वितीयात्मार्थवत्पारोक्ष्यसद्वितीयोऽर्थः प्रतीयते । तथापि तु नैवासावर्थः श्रुत्या तात्पर्येण प्रतिपिपादयिषितः प्रागप्येतस्य प्रतीतत्वादितीममर्थमाह
__ 'यदा ना तत्त्वमस्यादेर्शात्मना त्याजयेद्वचः' इत्यादि ग्रन्थके द्वारा पहले अनेक बार इसका प्रतिपादन किया, इसलिए पुनरुक्ति क्यों करते हो ? ऐसी शङ्का यदि कोई करे तो उसका समाधान यह है कि आत्मवस्तु अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे बुदाधिमें स्थिर नहीं होती। इसका विस्तृतरूपसे प्रथम ही यदि प्रतिपादन करने लग जायँ तो उसका धारण नहीं होगा। अल्पग्रन्थसे अनेक बार कहनेसे समझने में सौकर्य होता है। इसलिए ग्रन्थलाघवकी अपेक्षासे बुद्धि में लावव अर्थात् सौकर्य होगा। इस अभिप्रायसे कथितका ही पुन: कथन किया जाता है । यद्यपि तत्त्वमत्यादि वाक्यसे ग्रहण करने के लिए अभीष्ट अद्वितीय आत्मरूप अर्थके सदृश परोक्षता और सद्वितीयताका प्रतिपादन अति तात्पर्य से नहीं करना चाहती। क्योंकि वाक्य श्रवणके पहले ही सबको यह बात मालूम है । अतएव ज्ञात वस्तुको वाक्य पुनः क्यों प्रतिपादन करेगा? उसका प्रतिपादन करनेसे कोई फल भी नहीं है। इस बातको स्पष्ट करनेके लिए कहते हैं
तदित्येतत्पदं लोके बह्वर्थप्रतिपादकम् ।
अपरित्यज्य पारोक्ष्यमभिधानोत्थमेव तत् ।। २३ ॥ 'लोकमें' तत् पद देशकालव्यवधाननिमित्तक परोक्षत्वका परित्याग न करके अनेक अर्थोका बोधन करता है, ऐसा प्रतीत होता हैं । तथापि शब्दसे वह परोक्षत्व अनिघाशक्तिके द्वारा आपातरूपसे प्रतीतमात्र होता है। वस्तु से उसका स्पर्श नहीं है। तथा उसका प्रतिपादन करना अतिको इष्ट भी नहीं है ॥ २३ ॥
त्वमित्यपि पदं तद्वत् साक्षान्मात्रार्थवाचि तु । संसारितामसन्त्यज्य साऽपि स्यादभिधानजा ॥ २४ ॥
तथा त्वंपद भी पहलेसे ही ज्ञात, जो संसारित्व है, उसका परित्याग न करके ही नित्य अपरोक्ष वस्तु का बोधक है। इसलिए वह संसारिता भी आपातदृष्टिसे शब्दके द्वारा भासमान होती है। वस्तुसे उसका सम्बन्ध नहीं है ॥ २४ ॥
विरुद्धोद्देशनत्वाच्च पारोक्ष्यदुःखित्वयोरविवक्षितत्वमित्याहउद्दिश्यमानं वाक्यस्थं नोद्देशनगुणान्वितम् । आकाङक्षितपदार्थेन संसर्ग प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥