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नैष्कर्म्यसिद्धिः
अपि च
यत्र स्यात्संशयो नाऽसौ ज्ञेय आत्मेति पंडितैः । संशयप्राप्तिरात्मनोऽवगतित्वतः ॥ ३७ ॥
न यतः
और भी इस बात को कहते हैं
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जहाँ पर संशय हो उसको पण्डितलोगोंने श्रात्मरूपसे नहीं समझना चाहिए । क्योंकि आत्मामें किसी प्रकार सामान्य- विशेष भाव नहीं है । स्वयंप्रकाश होने से सर्वदा वह अपरोक्ष ही है । अत एव उसमें संशय होनेकी गुञ्जाइश ही नहीं है, श्रात्मा ज्ञानस्वरूप होने से समस्त संशयको नष्ट करनेवाला है । श्रारोपित दृश्यविशिष्टरूपसे संशयका विषय हो तो भी विशिष्टरूप से वह आत्मा ही नहीं है और केवल जो आत्मा है, उसमें कदापि संशय नहीं हो सकता || ३७ ॥
अनaataar तु दूरोत्सारितमेव । यत आहबोध्ये 'प्यनुभवो यस्य न कथञ्चन जायते । तं कथं बोधयेच्छास्त्रं लोष्टं नरसमाकृतिम् ॥ ३८ ॥
श्रुति श्रात्माका प्रतिपादन करती ही नहीं, यह बात शङ्कास्पद ही नहीं है । क्योंकि – जो वस्तु जानने योग्य है उस वस्तुका भी अनुभव जिसको नहीं होता, उस मनुष्याकार मिट्टी के ढेलेको, निरे जड़को, शास्त्र किस प्रकारसे बोध करा सकेगा ! ||३८|| वाक्यमेववाक्यार्थरूपमात्मानं
अन्वयव्यतिरेकपुरस्सरं प्रतिपादयतीत्यस्य पक्षस्य द्रढिने श्रुत्युदाहरणमुपन्यस्यति — जिघ्राणीममहं गन्धमिति यो वेच्यविक्रियः ।
स आत्मा तत्परं ज्योतिः शिरसीदं वचः श्रुतेः ॥ ३९ ॥ अन्वयव्यतिरेकसे वाक्य ही अखण्ड श्रात्माका प्रतिपादन करता है, इस पक्ष की दृढ़ता के लिए श्रुतिका उदाहरण देते हैं
'मैं इस को ग्रहण करूँ' ऐसा जो किसी प्रकारके विकारको प्राप्त न होकर जानता है, वही स्वप्रकाश आत्मा है, ऐसा उपनिषद् का कथन है || ३९ ||
यथा 'तत्सत्य स आत्मा 'तत्त्वमसि' इत्यस्य शेषत्वेनान्वयव्यतिरेकश्रुतिर्यथा 'य एषोऽक्षिणि पुरुषो दृश्यते' इत्याद्या, 'अथ यो वेदेदं जिघ्राणि' इत्यन्ता । तथा 'अहं ब्रह्मास्मि' इत्यस्य शेषः । अहमः प्रत्यगात्माऽर्थो निरस्ताऽशेषयुष्मदः । बम्भणीति श्रुतियय्या योऽयमित्यादिनाऽसकृत् ॥४०॥
१ बोधेऽपि, ऐसा भी पाठ है । २ श्रवयव्यतिरेकसचिवं, भी पाठ है ।