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भाषानुवादसहिता
१६९ सुभाषितं चार्वपि नाऽमहात्मनां
दिवाकरो नक्तदृशामिवाऽमलः । प्रभाति भात्येव विशुद्धचेतसां
निधियथाऽपास्ततृषां महाधनः ॥ ७५॥ अत्यन्त सुन्दर भी कथन क्यों न हो, तथापि जो महात्मा नहीं हैं उनको वह अच्छा नहीं मालूम पड़ता। जैसे कि दिवान्धोंको (उल्लुओंकों ) निर्मल प्रकाशमान भी सूर्य नहीं दीख पड़ता। परन्तु जिनके अन्तःकरण स्वच्छ हैं, उनको इसका ज्ञान होता ही है । जैसे कि तृष्णाका परित्याग किए हुए विरक्त महापुरुषोंको बड़ी-बड़ी निधियाँ दीख पड़ती हैं ।। ७५ ।।
विष्णोः पादानुगांयां निखिलभवनुदं शङ्करोऽवाप योगात् सर्वज्ञ ब्रह्मसंस्थं मुनिगणसहितं सम्यगभ्यर्च्य भक्त्या । विद्यां गङ्गामिवाऽहं प्रवरगुणनिधेः प्राप्य वेदान्तदीप्तां
कारुण्यात्तामवोच जनिमृतिनिवहध्वस्तये दुःखितेभ्यः ॥७६॥
जिस प्रकार सर्वव्यापक भगवान् विष्णुके पादपद्मसे विनिःसृत एवं संसारके समस्त दुःखोंको मिटा देनेवाली जिस गङ्गाको भगवान् श्रीशङ्करने अपने योगके प्रभावसे प्राप्त किया, तत्पश्चात् उसी (गङ्गा) को महाराज भगीरथने, मुनिगण सहित उन सर्वज्ञ, परब्रह्मस्वरूप भगवान् शङ्करका भक्तिपूर्वक आराधन करके उनसे प्राप्त कर करुणावश लोककल्याणार्थं उसे संसारमें प्रकट किया। इसी प्रकार-जगत्कारण परमात्माके अधिष्ठान सच्चिदानन्द ब्रह्मका अनुभव करनेवाली तथा (गङ्गाजीके समान ) सम्पूर्ण सांसारिक दुःखोंको दूर कर देनेवाली जिस ब्रह्मविद्याको अपने योगसामर्थ्यसे प्राचार्य शङ्करने प्राप्त किया। उसी वेदान्तप्रतिपादित ब्रह्म विद्याको उन सर्वज्ञ, ब्रह्मनिष्ठ, मुनिगणके सहित प्राचार्य शङ्करका भक्तिपूर्वक पूजन करके उनसे प्राप्त करके करुणावश संसारके दुःखोसे दुःखित हुए लोगोंके जन्ममरणरूपी महादुःखको मिटानेके लिए मैंने उसका इस ग्रन्थमें प्रतिपादन किया है ॥ ७६ ॥
वेदान्तोदरवतिभास्वदमलं ध्वान्तच्छिदस्मद्धियो
दिव्यं ज्ञानमतीन्द्रियेऽपि विषये व्याहन्यते नक्कचित्। यो नो न्यायशलाकयैव निखिलं संसारबीजं तमः
प्रोत्सार्याऽऽविरकारषीद् गुरुगुरुः पूज्याय तस्मै नमः ॥७॥ जो ( ज्ञान ) वेदान्त शास्त्रके अन्दर अत्यन्त गूढ़ है, जो सबका प्रकाशक एवं