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भाषानुवादसहिता
११३ प्रकार विशेषरूपसे बोध अनुमानसे नहीं होता। अतएव वेदान्तवाक्यसे ही उसका पूर्व बोध होता है ।। ५७ ॥
ननु यदि व्यावृत्तसदसद्विकल्पजालं वस्त्वभीष्टं वाक्याद् भवतस्तथापि तूत्सार्यते बाक्यविषया तृष्णा । यस्मादन्तरेणापि वाक्यश्रवणं निरस्ताशेषविकल्पमागोपालाविपालपन्डितं सुषुप्ते वस्तु सिद्धमतो नार्थों वाक्यश्रवणेन ? नैतदेवम् । किं कारणम् ? सर्वानर्थवीजस्यात्मानवबोधस्य सुषुप्ते सम्भवात् । यदि हि सुषुप्तेऽज्ञानं नाऽभविष्यदन्तरेणापि वेदान्तवाक्यश्रवणमनननिदिध्यासनान्यहं ब्रह्माऽस्मीत्यध्यवसायात्सर्वप्राणभृत्तामपि स्वरसत एव सुषुप्तप्रतिपत्तेः सकलसंसारोच्छित्तिप्रसङ्गः न च कैवल्यात्पुनरुत्थानं न्याय्यमनिर्मोक्षप्रसङ्गात् । न चाऽन्य एव सुषुप्तोऽन्य' एवोत्थित इति शक्यं वक्तुं नाद्राक्षमहं सुषुप्तेऽन्यत्किञ्चिदपीत्युत्थितस्य प्रत्यभिज्ञादर्शनात् । तस्मादवश्यं सुषुप्तेऽज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । ननु यदि तत्राऽज्ञानमभविष्यद्रागद्वेषघटाज्ञानादिवत्प्रत्यक्षमभविष्यत् । यथेह लोके घटं न जानामीत्यज्ञानमव्यवहितं प्रत्यक्षम् । अत्रोच्यते । न । अभिव्यञ्जकाभावात् । कथमभिव्यञ्जकाभाव इति चेच्छणु
शङ्का-यदि यह आपको अभीष्ट हो कि सदसद्-विकल्पजालसे रहित शुद्ध, बुद्ध वस्तुका वेदान्तवाक्योंसे बोध होता है; तथापि हमारी श्रद्धा वेदान्तवाक्यसे हटती जाती है। क्योंकि वाक्यके बिना भी, सम्पूर्ण विकल्पोंसे रहित ब्रह्म का ज्ञान, पण्डितोंसे लेकर गोपाल और मेषपाल पर्यन्त (ग्वालेगडरियों तक ) सभीको सुषुप्ति दशामें होता ही है । फिर वेदान्तवाक्यकी क्या आवश्यकता है ?
समाधान-ऐसा कहना उचित नहीं। क्योंकि सुषुप्ति समयमें सम्पूर्ण उपद्रवोंका मूलभूत अज्ञान बना रहता है। यदि सुषुप्तिमें अज्ञान न होता, तब तो वेदान्तवाक्योंके श्रवण, मनन और निदिध्यासनके बिना भी 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसे निश्चयसे समस्त प्राणियोंको स्वभावसे ही प्रतिदिन सुषुप्ति होनेके कारण सकल संसारका उच्छेद होनेसे कैवल्यकी-- मोक्षको-प्राप्ति हो जाती और जहाँ एकबार मोक्ष हो गया फिर उसका उत्थान ( जागना) नहीं हो सकता है क्योंकि यदि कैवल्यसे भी पुनरुत्थान हो सकता तब तो फिर मोक्ष ही नहीं हो सकता। यदि कोई ऐसा कहे कि 'जिसको सुषुप्ति हुई है, वह तो
१ सुसोऽन्यः, भी पाठ है।