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भाषानुवादसहिता ग्राह्यत्व और ग्राहकत्व दोनों एकत्र हैं, ऐसा मालूम पड़ता है। परन्तु अन्य स्थलोंमें प्रत्येकका भिन्न-भिन्न स्थलोंमें अवस्थान देख पड़ता है। जैसे आत्माका अन्तःकरणके बिना भी सुषुप्तिमें द्रष्टत्व है । अतएव सुखदुःखादिरूप विविधज्ञान विषय धर्मोंसे युक्त अहङ्कारका घटादि जड़ पदार्थोंके सदृश द्रष्टत्व नहीं हो सकता, इसलिए ग्राह्यत्व ही उसमें है जो कि ग्राहकत्व भी देख पढ़ता है। वह अहङ्कार और आत्माके परस्पराध्याससे आत्मनिष्ठ ग्राहकत्व अर्थात् द्रष्टत्व अहङ्कारमें भासमान होता है। जैसे केवल वह्निमें ही दाहकता है, परन्तु वह्निके संयोगसे काष्ठमें भी उसका व्यवहार होता है, इसलिए ग्राहकका ज्ञापक अहङ्कार है, ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है । ५९ ॥
एवं तावदविद्योत्थस्यान्तःकरणस्य बाह्यविषयनिमित्तरूपाऽवच्छेदायाऽहंवृत्तिाप्रियते । तयाऽवच्छिन्नं सत्कूटस्थप्रत्यगात्मोपादानावबोधरूपस्या व्यवधानतया विषयभावं प्रतिपद्यत इति । तत्र तयोर्तात्रहन्तारूपयोरवभासकावभास्यत्वसम्बन्धव्यतिरेकेण नाऽन्यत्सम्बन्धान्तरमुपपद्यते। अहन्तारूपं त्वात्मसात्कृत्वाऽहंकञ्च्चुकं परिधायोपकार्यत्वोपकारकत्वक्षमः सन् बाह्यविषयेणोपकारिणाऽपकारिणा वाऽऽत्मात्मीयं सम्बन्ध प्रतिपद्यते । तदभिधीयते ।
इस प्रकार अविद्यासे उत्पन्न अन्तःकरणका बाह्य शब्दादि विषय प्रयुक्त जो वृत्तिज्ञानरूप परिणाम है उसको जाननेके लिए 'मैं इस प्रकार अहंवृत्ति होती है, उससे युक्त होकर वही अन्तःकरण कूटस्थ प्रत्यगास्म निमित्तक जो अहङ्कारवृत्तिविशिष्ट अन्तःकरणप्रतिबिम्बित चैतन्याभ्यास है उसका, अव्यवधानसे, विषय होता है । यहाँपर ज्ञाता और अहङ्कार इन दोनोंका भास्य भासक भाव सम्बन्धको छोड़कर और कोई सम्बन्ध उपपन्न नहीं होता। इसीलिए घटादिके सदृश आत्मीयरूपसे प्रतीति नहीं होती। प्रत्यगात्माने अहङ्कारात्मक अन्तःकरणको अपने में मिलाकर अहंरूप परिच्छेदको भी अपने ऊपर आरोपित कर लिया है, इसी कारण वह घटाद्य पकार और अपकारका विषय होता है। इसी कारण घटादि विषयोंके साथ आत्मीयरूपसे सम्बन्धको प्रास होता है। इस कारण स्वस्वामिभावरूप सम्बन्धान्तर विद्यमान है, इसलिए घटादिमें मदीयधुद्धिविषयता है। वही कहते हैं
'अनवबोधरूपस्य, भी पाठ है। २ अहंकर्तृक परिधाय, ऐसा और 'परिधाोपकार्यात्वापकार्यत्व०, ऐसा पाठ
३ बाह्यविषयोपकारिणा, भी पाठ है ।