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नष्कम्यसिद्धिः न च युक्तिशब्दावृत्तिलक्षणात्प्रसङ्ख्थानायथावत्प्रतिपत्तिभविष्यतीति सम्भावयामः । यस्मात्
युक्तिशब्दौ पुराऽप्यस्य न चेदकुरुतां प्रमाम् । साक्षादावर्तनात्ताभ्यां किमपूर्व फलिष्यति ॥ १२४ ॥
शब्द और युक्तिका पुनः पुनः चिन्तन करना, इस प्रकारके ध्यानसे ठीक ठीक साक्षात्कार होगा, ऐसी सम्भावना हम नहीं करते हैं। क्योंकि
इस अधिकारी पुरुष को जब पहलेसे ही युक्ति और शब्द, इन दोनोंने अपरोक्ष प्रमा (यथार्थ ज्ञान) उत्पन्न नहीं की तब पाछेसे अभ्यासके बलसे उन्हीं दोनोंसे नया ज्ञान क्या उत्पन्न हो सकता है ? ॥ १२४ ॥
अथैवमपि प्रसङ्ख्यानमन्तरेण प्राणान् धारयितुं न शक्रोषीति' चेच्छवणादावेव सम्पादयिष्यामः । कथम् ?
प्रसङ्ख्यानं श्रुतावस्य न्यायोऽरत्वानेडनात्मकः ।
ईपच्छ्रुतं सामिश्रुतं सम्यकश्रुत्वाऽवगच्छति ॥ १२५ ॥ . और इसपर भी यदि आप ऐसा कहो कि. "सूत्रकारने ही शब्द और युक्तिका अभ्यास करना चाहिए, इस प्रकारसे प्रसङ्खथानको स्वीकार किया है। इसीलिए उसके बिना वाक्य किस प्रकारसे बोधक होगा ?" तो यह ठीक नहीं ! सूत्रकारका तात्पर्य यह है कि जीवको ब्रह्मस्वरूप जाननेमें साधीभूत श्रवण, मननादिकी ही आवृत्ति करनी चाहिए। न कि श्रवणादि उपायोंसे साध्य जो ज्ञान है उसमें उस श्रावृत्तिका उपयोग करना चाहिए। अस्माके श्रमण में प्रसङ्खथान अर्थात् प्रवृत्तिका उपयोग है। अतएव सूत्रकारके कहे हुए अभ्यासन्यायका भी यही तात्पर्य है । क्योंकि श्रापातसे श्रुत अथवा अर्धश्रुत अर्थका अच्छी तरहसे श्रवण करके ज्ञानको प्राप्त होता है ॥ १२५ ॥
ननु प्रसङ्ख्यानविधिमनभ्युपगच्छतः पारमहंसी चर्या बौद्धा. दिचर्यावदशास्त्रपूर्विका प्राप्नोति । ततश्वारूढपतितत्वं न स्यात् अशेषकर्मणां च निवृत्तिन प्राप्नोतीति । उच्यते--
त्वमर्थस्याऽवबोधाय विधिरप्याश्रितो यतः । तमन्तरेण ये दोषास्तेऽपि नायान्त्यहेतवः ॥ १२६ ॥ १-न शक्नोमि, ऐसा पाठ भी है। २-प्रसंख्यानं, ऐसा और प्रसंख्यानश्रुता ऐसा पाठ भी है।