Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (Ethical Doctrines in Jainism) (खण्ड-1) लेखक व संपादक डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन जैन विद्या संस्थान श्री महावीरजी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (खण्ड-1) Hindi Translation of the English book 'Ethical Doctrines in Jainism' by Dr. Kamal Chand Sogani (General Editors: Dr. A. N. Upadhye and Dr. H. L. Jain) लेखक व संपादक डॉ. कमलचन्द सोगाणी पूर्व प्रोफेसर दर्शन शास्त्र, एम. एल. सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक जैनविद्या संस्थान माकन प्रकाशक जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष - 7469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 दूरभाष – 0141-2385247 प्रथम संस्करण 2010 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य 400/ISBN No. 81-88677-06-X (खण्ड-1) पृष्ठ संयोजन श्री श्याम अग्रवाल ए-336, मालवीय नगर, जयपुर - 302017 दूरभाष - 0141-2524138, मो. 9887223674 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण स्व. मास्टर मोतीलाल संघी (संस्थापक श्री सन्मति पुस्तकालय, जयपुर 1920) स्व. पं.चैनसुखदास न्यायतीर्थ (प्राचार्य, दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर) स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये स्व. डॉ. हीरालाल जैन स्व. श्रीमती कमला देवी ठोलिया/सोगाणी (धर्मपत्नी-डॉ. कमलचन्द सोगाणी) For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची प्राक्कथन XIV अध्याय विषय पृष्ठ संख्या समर्पण प्रकाशकीय XI डॉ. वीरसागर जैन अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली-16 सम्पादकीय डॉ. कमलचन्द सोगाणी XVIII सामान्य सम्पादकीय डॉ. ए. एन. उपाध्ये XXIII डॉ.हीरालाल जैन डॉ. कमलचन्द सोगाणी XXIX खण्ड-1 जैन आचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 1-14 जैनधर्म की पारम्परिक प्राचीनता (1-2), पार्श्व की ऐतिहासिकता (3-4), पार्श्व का जीवन और प्रभाव (4), पार्श्व का धर्म (5), महावीर का अतिरिक्त स्पष्टीकरण (57), पूर्व में विद्यमान धर्म के व्याख्याता के रूप में महावीर (7-8), महावीर का जीवन और प्रभाव (9-11), दिगम्बरों प्रस्तावना For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. के पंथ ( 11-13 ), श्वेताम्बरों के पंथ (13-14), जैन आचारशास्त्र का उद्भव ( 14 ) । 15-55 जैन आचार का तात्त्विक आधार तत्त्वमीमांसा पर आचार की निर्भरता (15-16), द्रव्य का सामान्य स्वभाव (16-17), अनुभव शब्द का अर्थ (1718), द्रव्य की परिभाषा (18-19), द्रव्य और गुण (1920), द्रव्य और पर्याय ( 20 ), गुण और पर्याय ( 2021), द्रव्य और सत् ( 21-23), प्रमाण, नय और स्याद्वाद (23-25), द्रव्य का वर्गीकरण ( 25-26), भौतिकवाद और आत्मवाद दो अतियाँ ( 27 ), द्रव्यों का सामान्य स्वभाव (27-28), पुद्गल का स्वभाव और कार्य (2829), पुद्गल के प्रकार ( 30-33), आकाश (33-34), धर्म और अधर्म ( 34-35), काल (35-37), जीव ( आत्मा ) का सामान्य स्वभाव ( 37-38 ), संसारी जीव (आत्मा) का स्वभाव ( 39 ), संसारी जीव (आत्मा) के भेद - एकेन्द्रिय संसारी जीव (40), दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के संसारी जीव (41-42), नैतिक आदर्श के रूप में मोक्ष ( 42-43), उच्चतम आदर्श के रूप में परमात्मा (43-45), नैतिक आदर्श के रूप में निश्चयनय (4546), लोकोत्तर लक्ष्य के रूप में स्वसमय (आत्म-प्रतिष्ठित होना) (46-47), लक्ष्य के रूप में शुद्ध उपयोग ( चैतन्य की शुद्ध अवस्था) (47-49), आदर्श के रूपमें शुद्ध भावों का कर्तृत्व ( 49-51), आत्मविकास के लक्ष्य के रूप में स्वरूपसत्ता की अनुभूति (51), नैतिक उच्चतम आदर्श के रूप में पण्डित - पण्डित मरण ( 52-53), लक्ष्य के रूप में (VI) For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा (53-54), आदर्श की क्रमिक अनुभूति (54 55)। 3. सम्यग्दर्शन और सात तत्त्व 56-97 संक्षिप्त पुनरावृत्ति (56), उच्चतम अनुभूति की प्राप्ति में बाधा के रूप में मिथ्यात्व (56-58), नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए अनिवार्य सात तत्त्व (5859), जीव (आत्मा) तत्त्व (59-60), अजीव तत्त्व (6061)- आस्रव और बंध (61-62), योग का स्वभाव (62-63), योग से उत्पन्न बंध के प्रकार (63-64), कषाय से उत्पन्न बंध के प्रकार (65), कषायसहित और कषायरहित योग (65-67), कषाय की विविध अभिव्यक्तियाँ (67-72), साम्परायिक आस्रव के कारण (72-74), विशेष साम्परायिक आस्रव (74-76), कुन्दकुन्द के अनुसार आस्रव और बंध (76-78), संवर, निर्जरा और मोक्ष की निश्चय (पारमार्थिक) दृष्टि (7879)- संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्रक्रिया (80-81), मोक्ष के प्रमुख कारण के रूप में सम्यग्दर्शन (81), सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र संभव है सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) की प्राप्ति के पश्चात् (81-83), सम्यग्दर्शन के विविध लक्षण (83-84), आप्त, आगम और गुरु की विशेषताएँ (85), सात तत्त्वों की श्रद्धा उपर्युक्त सभी विशेषताओं में मुख्य (86), लोकातीत (निश्चय, शुद्ध) दृष्टि में सम्यग्दर्शन (87-88), सम्यग्दर्शन के प्रकार (88), सम्यग्दर्शन के आठ अंग व्यावहारिक दृष्टिकोण से (88-92), सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताएँ (92-93), लोकातीत (VII) For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (निश्चय) दृष्टि से सम्यग्दर्शन के अंग (93-94), लोकातीत (निश्चय) दृष्टि से सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताएँ (94-95), जैनाचार की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के रूप में सम्यग्दर्शन (95-97)। गृहस्थ का आचार 98-161 पूर्व अध्याय का संक्षिप्त विवरण (98), सम्यक्चारित्र आध्यात्मिकरूप से सम्यग्दृष्टि (जाग्रत व्यक्ति) की आन्तरिक आवश्यकता (99), वीतराग चारित्र और सराग चारित्र (99-100), नैतिक (शुभ) और अनैतिक (अशुभ) क्रियाओं को करने के सम्बन्ध में सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) और मिथ्यादृष्टि (मूर्च्छित) में भेद (100-101), आंशिक चारित्र (विकल चारित्र) की आवश्यकता (101-102), मनुष्य की विशिष्ट स्थिति (102), त्याग का दार्शनिक दृष्टिकोण (102-103), हिंसा का व्यापक अर्थ (103-104), हिंसा का लोकप्रचलित अर्थ (104-105), बाह्य आचरण की शुचिता भी आवश्यक है (105-106), हिंसा और अहिंसा के कृत्यों का निर्णय (106-107), हिंसा के प्रकार (107), अहिंसाणुव्रत (107-111), असत्य का स्वरूप (112-114), सत्याणुव्रत (114-115), चोरी (स्तेय) का स्वरूप (115), अचौर्याणुव्रत (अस्तेयाणुव्रत) (116-117), अब्रह्म का स्वरूप (117), ब्रह्मचर्याणुव्रत (117-118), परिग्रह का स्वरूप (118-119), परिग्रह और हिंसा (119), परिग्रहपरिमाणाणुव्रत (119-120), पुण्य (गुण) और पाप (दोष) के मिश्रण के रूप में गृहस्थ (VIII) For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जीवन (121), व्रतों के उचित पालन के लिए किन्हीं विचारों की पुनरावृत्ति और उनका चिन्तन ( 121-122), मूलगुणों की धारणा (122-123), रात्रिभोजन की समस्या ( 123 124 ), गुणव्रत और शिक्षाव्रत की विभिन्न धारणाएँ ( 124 - 127 ), दिव्रत का स्वरूप ( 127 128 ), देशव्रत का स्वरूप (130-133), अनर्थदण्डव्रत का स्वरूप ( 133134), अनर्थदण्ड के प्रकार ( 134-137), भोगोपभोगपरिमाणव्रत का स्वरूप ( 137-138), भोगोपभोगपरिमाणव्रत में दो प्रकार से त्याग (138-139), भोगोपभोगपरिमाणव्रत गुणव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में (139), सामायिक का स्वरूप (140-142), प्रोषधोपवासव्रत का स्वरूप ( 142143) ; प्रोषधोपवासव्रत की प्रक्रिया (143 - 144 ), प्रोषधोपवासव्रत और पाँच पाप (144), अतिथिसंविभागव्रत का स्वरूप ( 144 - 147), गृहस्थ के नैतिक आचरण का दो प्रकार से निरूपण व्रत और प्रतिमा के रूप में (147148 ), दोनों प्रकारों में समन्वय ( 148 - 149 ), ग्यारह प्रतिमाएँ (149-150), दर्शन प्रतिमा ( 150-152), व्रत प्रतिमा ं (152), सामायिक और प्रोषध प्रतिमा ( 152154), शेष प्रतिमाएँ ( 154 - 156 ), गृहस्थ के नैतिक आचरण की व्याख्या का सुव्यवस्थित तीसरा प्रकार ( 156158), सल्लेखना का स्वरूप और इसका आत्मघात से भेद (158 - 160), सल्लेखना की प्रक्रिया (160 - 161 ) । सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची 162-165 (IX) For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. खण्ड-2 मुनि का आचार जैन आचार का रहस्यात्मक महत्त्व 7. 8. 9. 10. खण्ड-3 जैन और जैनेतर भारतीय आचार सिद्धान्त जैन और पाश्चात्य आचारशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रकार : जैन आचार और वर्तमान समस्याएँ सारांश (X) For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैनधर्म एवं दर्शन के अध्येताओं के लिए डॉ. कमलचन्द सोगाणी द्वारा लिखित पुस्तक “Ethical Doctrines in Jainism' के हिन्दी-अनुवाद 'जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त' का प्रकाशन करते हुए अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है। दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी की प्रबन्धकारिणी कमेटी द्वारा सन् 1982 में जैनविद्या संस्थान' की स्थापना की गयी। यह संस्थान सन् 1947 में स्थापित 'साहित्य शोध संस्थान' का विकसित रूप है। उस समय इसकी स्थापना में स्व. पण्डित चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ, जयपुर की प्रेरणा व तत्कालीन मंत्री श्री रामचन्द्रजी खिन्दूका का प्रयास रहा है। . जैनविद्या संस्थान जैनधर्म-दर्शन एवं संस्कृति की बहुआयामी दृष्टि को सामान्यजन एवं विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए सतत प्रयत्नशील है। इस उद्देश्य की पूर्ति के उपक्रम में संस्थान द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन किया गया। उदाहरणार्थ- जैन पुराणकोश', 'आदिपुराण' (सचित्र), भक्तामर' (सचित्र), ‘परम पुरुषार्थ अहिंसा', 'प्रवचन प्रकाश', 'सोलहकारण भावना-विवेक', 'अर्हत प्रवचन', 'जैन भजन सौरभ', 'द्यानत भजन सौरभ', 'दौलत भजन For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौरभ', 'बुधजन भजन सौरभ', 'भूधर भजन सौरभ', 'भागचन्द भजन सौरभ', 'जैन न्याय की भूमिका', 'न्याय दीपिका', 'न्याय-मन्दिर', 'द्रव्यसंग्रह', 'आचार्य कुन्दकुन्द : द्रव्यविचार', 'समयसार', 'स्याद्वाद : एक अनुशीलन' आदि का प्रकाशन किया जा चुका है जिनमें जैनधर्मदर्शन के सिद्धान्तों, उसके सांस्कृतिक मूल्यों को सरल सहज रूप में प्रस्तुत किया गया है। उसी क्रम में 'जैनविद्या संस्थान' द्वारा 'जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त' का प्रकाशन किया जा रहा है। . संस्थान से शोध-पत्रिका के रूप में ‘जैनविद्या' का प्रकाशन किया जाता है। वर्तमान में संस्थान के माध्यम से जैनधर्म-दर्शन एवं संस्कृति का अध्यापन पत्राचार के माध्यम से किया जा रहा है जिसका. : लाभ देश के विभिन्न भागों में रहनेवाले लोग उठा रहे हैं। 'जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त' में दस अध्याय हैं जिनमें जैन आचार के विभिन्न आयामों को चित्रित किया गया है। हमारा विश्वास है कि यह पुस्तक सामान्यजन एवं विद्वानों के लिए आधारभूत पुस्तक के रूप में उपयोगी होगी और जैनधर्म-दर्शन के अध्ययनार्थियों के लिए विभिन्न विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम के रूप में चलायी जा सकेगी। डॉ. कमलचन्द सोगाणी जो देश-विदेश के ख्यातिलब्ध विद्वान हैं और दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी की प्रबन्धकारिणी कमेटी के सदस्य हैं, उन्होंने अपने द्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का स्वयं ही सम्पादन करके अनुवाद को प्रामाणिक बना दिया है। इसके लिए हम अपनी गौरवपूर्ण प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। ___ डॉ. वीरसागर जैन, अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली ने जैनधर्म-दर्शन के (XII) For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न आयामों को उजागर करने वाली इस चिरप्रतिक्षित पुस्तक का प्राक्कथन लिखकर जो गरिमा प्रदान की है उसके लिए हम उनके आभारी हैं। जैनविद्या संस्थान - अपभ्रंश साहित्य अकादमी में कार्यरत श्रीमती शकुन्तला जैन ने अनुवाद करके हिन्दी जगत के स्वाध्यायियों और जैन आचार के विद्यार्थियों के लिए अनुवादित पुस्तक उपलब्ध करवायी, इसके लिए वे बधाई की पात्र हैं। - प्रस्तुत पुस्तक के दस अध्यायों में से हम केवल चार अध्यायों को खण्ड-1 के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। पुस्तक - प्रकाशन में संस्थान के सहयोगी कार्यकर्ता एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिन्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर धन्यवादाह है। प्रकाशचन्द्र जैन मंत्री नरेशकुमार सेठी अध्यक्ष 26.8.2010 प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (XIII) For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया । धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पङ्गुलः ।। "" प्राक्कथन क्रिया (आचार) से हीन ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञान से हीन क्रिया व्यर्थ है । अन्धा व्यक्ति दौड़ते हुए भी जलते हुए जंगल से बाहर नहीं निकल पाता और आँखों वाला व्यक्ति भी यदि पंगु है तो वह भी नहीं निकल सकता। यदि दोनों व्यक्ति मिल जाएं तो पारस्परिक सहयोग से वे दोनों दावानल से बचकर नगर में पहुँच सकते हैं। इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया- दोनों अलग-अलग हों तो निरर्थक हैं और यदि दोनों मिल जाएं तो वह जीव संसारदुःख से छूटकर मोक्ष में जा सकता है। जैनदर्शन के आचारशास्त्र को समझना भी कोई साधारण कार्य नहीं है, जैसा कि प्रायः लोग समझ लेते हैं; क्योंकि वह कोई सामान्य शिष्टाचार या लोकाचार मात्र नहीं है, अपितु एक ऐसा गूढ - गम्भीर द्विमुखी सिद्धान्त है जो एक ओर अपनी आधारशिला के रूप में जैनदर्शन की सम्पूर्ण तत्त्वमीमांसा को स्पर्श करता है और दूसरी ओर साधक को आत्मानुभूति में मग्न कर अपनी आध्यात्मिकता भी सिद्ध करता है । प्रायः जब भी कभी जैनाचार को समझने-समझाने की कोई कोशिश होती है, तो साधारण लोग ही नहीं, बड़े-बड़े विद्वान् और शोधार्थी भी उसके मात्र आचार पक्ष पर ही विमर्श करके रह जाते हैं, 1. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/1 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी आधारशिला- तत्त्वमीमांसा और उसकी अन्तिम परिणतिआध्यात्मिकता के दोनों ही पक्ष उससे बिलकुल अछूते रह जाते हैं, जो कि जैनाचार को समझने के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। महत्त्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि यह कहना चाहिए कि अनिवार्य हैं। उनके बिना जैनाचार को पूर्णत: (समग्रतः/सर्वाङ्गीण रूप से) समझा ही नहीं जा सकता। जिस प्रकार किसी वृक्ष को पूर्णत: समझने के लिए उसके मूल, फल आदि को भी समझना आवश्यक है, मात्र समक्षस्थित वृक्ष भाग को ही समझना पर्याप्त नहीं है, उसी प्रकार जैनाचार को भी पूर्णत: समझने के लिए हमें उसके मूल-स्थानीय जैन तत्त्वमीमांसा को और फल-स्थानीय आध्यात्मिकता को भी समझना अत्यन्त आवश्यक है, मात्र आचार पक्ष को ही समझना पर्याप्त नहीं है। जिस आचार की आधारशिला जैन तत्त्वमीमांसा नहीं है और जिसका प्रतिफल भी आत्मानुभूति, आत्मलीनता या आध्यात्मिकता नहीं है; उसे वस्तुत: जैनाचार ही नहीं कहा जा सकता। वह तो एक तरह से बे-सिर-पैर की बात हुई। जैनाचार्यों के अनुसार कोई भी आचार यदि वह तत्त्वज्ञान से रहित है तो मूल-रहित वृक्ष की भाँति असंभव, मिथ्या या बाललीला मात्र है और यदि वह अन्त में साधक को आत्मलीन न कर सके तो फल-रहित वृक्ष की भाँति निष्फल है, निरर्थक है, निरुद्देश्य है। .. इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जैनदर्शन का आचार सिद्धान्त एक ऐसी मध्यस्थित कड़ी है जिसके एक ओर तत्त्वमीमांसा है और दूसरी ओर आध्यात्मिकता, तथा वह . भास हुश (XV) For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं तत्त्वमीमांसा और आध्यात्मिकता- इन दोनों कड़ियों को बड़ी ही कुशलता के साथ जोड़कर समीचीन मोक्षमार्ग की भव्य रचना. करती है और साधक को आत्मविकास के उत्तरोत्तर सभी सोपान चढ़ाती हुई कृतकृत्य सिद्ध परमात्मा बना देती है। डॉ. कमलचन्द सोगाणी की इस कृति ने मुझे इसीलिए अत्यधिक प्रभावित किया कि इसमें जैनाचार के इन दोनों महत्त्वपूर्ण पक्षों को बड़े ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया गया है और उनकी उपेक्षा .. कर देने की सामान्य भूल इसमें नहीं हो पाई है। यद्यपि जैनाचार के विवेचन की प्राचीन परम्परा ऐसी ही रही M है कि उसमें आचार को तत्त्वज्ञान और आत्मानुभूति के बीच में रखकर ही उपर्युक्तानुसार समझाया जाता रहा है; जैसा कि समन्तभद्र, अमृतचन्द्र, आशाधर आदि के आचार-ग्रन्थों से भलीभाँति स्पष्ट है; किन्तु आधुनिक युग में यह परम्परा कुछ विच्छिन्न - सी हो गई है। आज के विद्वान् और शोधार्थी आचार को समझने के लिए 'आचार' तक ही सीमित रह जाते हैं, उसके साथ उसकी आधारभूत तत्त्वमीमांसा एवं शिखरभूत आत्मानुभूति- इन दोनों की चर्चा तक नहीं करते हैं। उनका आचार के साथ अविनाभावी सम्बन्ध समझना तो दूर की बात है। मेरी दृष्टि में यह एक बड़ी भारी भूल है। डॉ. कमलचन्द सोगाणी की यह कृति इस दिशा में बढ़ाया गया परम्परानुरूप / आगमानुरूप समीचीन कदम होने से अत्यन्त सराहनीय है । केवल सराहनीय ही नहीं है, अनुकरणीय भी है। जब कभी हमें जैन आचारशास्त्र पर कुछ लिखने-बोलने का अवसर मिले तो इसी दृष्टि से लिखना - बोलना चाहिए। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी जैन आचारशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन इसी दृष्टि से होना चाहिए । (XVI) For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार जैनाचारशास्त्र के सभी जिज्ञासुओं को इस कृति को अवश्य ही मनोयोगपूर्वक पढ़ना चाहिए। मुझे पूर्ण आशा है कि इसके अध्ययन से पाठकों को तत्त्वज्ञान, आचार और अध्यात्म की पारस्परिक प्रगाढ़ मैत्री समझ में आएगी।' तत्त्वज्ञान के ठोस आधार पर स्थित और अध्यात्म के मधुर फलों से सुशोभित जैनाचार की अन्य भी अनेक विशेषताएँ हैं। यथाउसके केन्द्र में सर्वत्र एक अहिंसा व्याप्त है; वह आत्मकल्याणकारी होने के साथ-साथ समाजकल्याणकारी भी है; उसमें आधुनिक विश्व की भयंकर समस्याओं के समाधान भी निहित हैं; वह आधुनिक विज्ञान द्वारा सिद्ध व समर्थित भी है; वह अव्यावहारिक नहीं, अपितु अत्यन्त व्यावहारिक भी है; पाश्चात्य आचारशास्त्र (Western Ethics) और जैन आचारशास्त्र (Jaina Ethics) में महान् अन्तर है; इत्यादि। डॉ. सोगाणी की प्रस्तुत कृति के माध्यम से जैनाचार के इन सभी पहलुओं को भी भलीभाँति समझने में सहायता प्राप्त होगी। मुझे आशा है कि सुधी पाठक इस पुस्तक का समादर करेंगे। .. श्रीमती शकुन्तला जैन ने इस पुस्तक का हिन्दी-अनुवाद करके और जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी ने इसका प्रकाशन करके हिन्दी के पाठक वर्ग का महान् उपकार किया है। वे कोटिशः धन्यवादाह हैं। -वीरसागर जैन 24 अगस्त 2010 (रक्षाबन्धन) 1. "ज्ञानक्रियानयपरस्परतीव्रमैत्री' - आचार्य अमृतचन्द्र, समयसार-कलश, 267 (XVII) For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा सन् 1961 में पीएच. डी की उपाधि के लिए स्वीकृत शोध प्रबन्ध Ethical Doctrines in Jainism' पुस्तक रूप में सन् 1967 में डॉ. ए. एन. उपाध्ये और डॉ. हीरालाल .. जैन की देख-रेख में जीवराज जैन ग्रंथमाला, सोलापुर से प्रकाशित हुआ। इसका दूसरा संस्करण सन् 2001 में प्रकाशित है। यह पुस्तक विदेशों में, पूर्वी व दक्षिणी भारत में अध्ययनार्थ अत्यधिक रूप से प्रयोग में आई। लगभग 43 वर्ष तक अंग्रेजी जगत के . अध्ययनार्थियों ने इसका भरपूर उपयोग किया। डॉ. ए. एन. उपाध्ये लिखते हैं: "The Dharmāmrta of Ašādhara (1240A.D.) is perhaps a fine attempt to propound the twofold discipline in one unit. The Jaina literature abounds in treatises dealing with the life of a monk, and for a handy survey of which one can consult the History of Jaina Monachism by S. B. Deo (Deccan College, Poona 1956). A Critical and historical study of the discipline prescribed for a householder is found in that excellent monograph, the Jaina Yoga by R. Williams (Oxford University Press, Oxford 1963). In the present volume (1967) Dr. K. C. Sogani has attempted an admirable survey of the entire range of the ethical doctrines in jainism. He has given us an exhaustive study of the ethical doctrines in jainism, presenting his For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ details is an authentic manner.” अर्थात् “आशाधर का धर्मामृत (1240 ईस्वी) दो प्रकार के आचार-धर्म को एक इकाई में प्रस्तुत करने का संभवतः सुन्दर प्रयास है। जैन साहित्य में साधु के जीवन से संबंधित शोध प्रबन्ध प्रचुर मात्रा में हैं। संक्षिप्त सर्वेक्षण के लिए कोई भी व्यक्ति S. B. Deo द्वारा लिखित 'History of Jaina Monachism' (Deccan College, Poona 1956) का उपयोग कर सकता है। गृहस्थों के लिए प्रतिपादित आचार-धर्म का आलोचनात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन आर. विलियम्स द्वारा लिखित जैन योग (Oxford University Press, Oxford 1963) नामक उत्तम निबन्ध में प्राप्त होता है। प्रस्तुत कृति (1967) में डॉ. के. सी. सोगाणी ने जैनधर्म के आचार-सम्बन्धी सिद्धान्तों के सम्पूर्ण आयामों का उत्कृष्ट सर्वेक्षण करने का प्रयास किया है। उन्होंने जैनधर्म के आचार-सम्बन्धी सिद्धान्तों. को प्रामाणिक रीति से प्रदर्शित करते हुए उनका सर्वाङ्गपूर्ण अध्ययन हमें प्रदान किया।" .. 12 अप्रेल सन् 1971 को प्रो. दलसुख मालवणिया ने लिखाआपके द्वारा भेजी गयी “Ethical Doctrines in Jainism” मिली। खेद है इतनी अच्छी पुस्तक मैं अब तक नहीं देख सका। आपकी यह पुस्तक जैन आचार विषय को लेकर अन्तर और बाह्य सभी पहलुओं की चर्चा से संपन्न है। आपने मुनि और गृहस्थ के आचारों का निरूपण तो किया ही है, किन्तु जैन तत्त्वज्ञान के साथ उसका क्या संबंध हैउसका भी सुन्दर विवेचन किया है। इतना ही नहीं किन्तु भूमिका रूप में वैदिक परम्परा के आचार के प्रकाश में जैन आचार को देखने का जो प्रयत्न है, वह आपकी पैनी दृष्टि का परिचायक है। साथ ही मिस्टीसिझ्म और भक्तिवाद का जैन आचार के साथ किस प्रकार मेल है तथा पाश्चात्य देशों में जो आचार-संबंधी विचारणा हुई है उसके सन्दर्भ में (XIX) For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी आपने जैन आचार को देखा है वह आपकी अपनी सूझ है और वह आप तत्त्वज्ञान के विद्यार्थी होने से अच्छी तरह कर सके हैं- इसमें सन्देह नहीं है। इस पुस्तक के हिन्दी-अनुवाद की चर्चा काफी समय से चल रही थी। जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी की कार्यकर्ता श्रीमती शकुन्तला जैन ने इसके हिन्दी-अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। पिछले 19 वर्षों से वे संस्थान-अकादमी में कार्यरत हैं। प्राकृत और अपभ्रंश की उनकी योग्यता सराहनीय है। उनकी उत्कट इच्छा को देखकर मैंने उनको इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करने की अनुमति प्रदान कर दी और उसका सम्पादन करना मैंने स्वीकार किया। ___ जब इसके तीन अध्यायों का अनुवाद और सम्पादन कार्य समाप्त हुआ तो इसे डॉ. वीरसागर जैन, अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली को परामर्श हेतु भेज दिया गया। उन्होंने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। ये सभी सुझाव अनुवादक को बता दिए गए। उन्होंने अनुवाद को सुझावों के अनुसार सुधारा-सँवारा। सम्पादन के पश्चात् संशोधित अनुवाद को पुनः उन्हें भेज दिया गया। वे अत्यधिक हर्षित हुए। हमारे साग्रह निवेदन पर उन्होंने इसके प्राक्कथन लिखने की स्वीकृति प्रदान करने की कृपा की। इसके लिए हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। इस पुस्तक को तीन खण्डों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। प्रथम चार अध्याय (1) जैन आचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (2) जैन आचार का तात्त्विक आधार (3) सम्यग्दर्शन और सात तत्त्व (4) गृहस्थ का आचार - ये एक खण्ड में रखे गये हैं। अन्य दो (XX) For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय (5) मुनि का आचार (6) जैन आचार का रहस्यात्मक महत्त्व - ये द्वितीय खण्ड में रखे गये हैं। (7) जैन और जैनेतर भारतीय आचार सिद्धान्त (8) जैन और पाश्चात्य आचारशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रकार (9) जैन आचार और वर्तमान समस्याएँ (10) सारांश - ये तृतीय खण्ड में रखे गये हैं। प्रथम खण्ड की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं प्रथम, जैनधर्म अपने उद्गम के लिए ऋषभ का ऋणी है जो चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम है। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में ऐसे व्यक्ति थे जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा करते थे। निःसन्देह जैनधर्म महावीर या पार्श्वनाथ के पहले भी प्रचलित था। जैन आचार अपने उद्भव में मागधीय है। . द्वितीय,सम्पूर्ण जैन आचार व्यवहार में अहिंसा की ओर उन्मुख है। गृहस्थ के आचार का वर्णन करने के लिए व्यापक पद्धति हैगृहस्थाचार को पक्ष, चर्या और साधन में विभाजित करना। सल्लेखना की प्रक्रिया का आत्मघात से भेद किया जाना चाहिए। सल्लेखना उस समय ग्रहण की जाती है जब कि शरीर व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असफल हो जाता है और जब मृत्यु का आगमन निर्विवाद रूप से निश्चित हो जाता है, किन्तु आत्मघात • ‘भावात्मक अशान्ति के कारण जीवन में किसी भी समय किया जा सकता है। तृतीय, जैन तत्त्वमीमांसा जैन आचारशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रतिपादन का आधार है। जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत तात्त्विक दृष्टि अनेकान्तवाद या अनिरपेक्षवाद के नाम से जानी जाती है। जैन दर्शन की दृढ़ धारणा है कि दर्शन में निरपेक्षवाद नैतिक चिन्तन का (XXI) For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनाशक है, क्योंकि निरपेक्षवाद सदैव चिन्तन की प्रागनुभविक प्रवृत्ति पर आधारित होता है जो अनुभव से बहुत दूर है। अहिंसा की धारणा जो जैन आचार के क्षेत्र से संबंधित है, पदार्थों के तात्त्विक . स्वभाव का तार्किक परिणाम है। चतुर्थ, जैनधर्म केवल आचार और तत्त्वमीमांसा ही नहीं है बल्कि अध्यात्मवाद भी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि जैन आचार्यों द्वारा निरन्तर सम्यग्दर्शन ( आध्यात्मिक जाग्रति) की वास्तविक उपलब्धि पर जोर दिया गया है। सम्यग्दर्शन की पृष्ठभूमि के बिना सम्पूर्ण जैन आचार चाहे गृहस्थ का हो या मुनि का, पूर्णतया निर्जीव है । मुझे लिखते हुए हर्ष है कि डॉ. वीरसागर जैन के प्रेरणाप्रद प्रोत्साहन व मार्गदर्शन ने तथा श्रीमती शकुन्तला जैन की कार्यनिष्ठा ने मेरे सम्पादन - कार्य को सुगम बना दिया, फलस्वरूप इसका खण्ड-1 प्रकाशन के लिए तैयार हो सका; अतः मैं इनका अत्यन्त आभारी हूँ । मैं विशेषतया डॉ. वीरसागर जैन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक को आद्योपान्त अक्षरशः पढ़ा, बहुमूल्य सुझाव दिए और इसका प्राक्कथन लिखने की स्वीकृति प्रदान कर अनुगृहीत किया । डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (XXII) For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य सम्पादकीय आचार जैनधर्म का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इसके दो प्रयोजन हैं- प्रथम, यह आध्यात्मिक शुद्धि उत्पन्न करता है और द्वितीय, यह व्यक्ति को योग्य सामाजिक प्राणी बनाता है; जिससे वह उत्तरदायित्वपूर्ण एवं सद्व्यवहारवाला पड़ौसी बन सके। (1) पहला प्रयोजन कर्म के जैन सिद्धान्त से उत्पन्न होता है; जो स्वचालित रूप से क्रियाशील नियम है; जिससे कर्म-विधान के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को उसके स्वयं के विचारों, शब्दों और क्रियाओं 9 का शुभ या अशुभ फल अवश्य मिलता है। कर्म के इस नियम में ईश्वरीय हस्तक्षेप को कोई स्थान नहीं है, यहाँ ईश्वर को सृष्टि का कर्ता स्वीकार नहीं किया गया है। वह न तो सांसारिक प्राणियों को प्रसाद प्रदान कर सकता है और न ही दण्ड दे सकता है। निःसन्देह यह एक साहसिक दृष्टिकोण है जो जैनधर्म में बुनियादी तौर पर प्रतिपादित किया गया है जिसके कारण व्यक्ति निश्चय ही अपने भाग्य का स्वयं निर्माता होता है। कर्म एक सूक्ष्म 'पुद्गल' या 'ऊर्जा' का एक प्रकार माना गया है जो विचारों, शब्दों और क्रियाओं के फलस्वरूप आत्मा को प्रभावित करता है। वास्तव में प्रत्येक आत्मा अनादिकाल से कर्मों के प्रभाव में है। प्रत्येक व्यक्ति अतीत के कर्मों के फलों का अनुभव करता है और नये कर्म बाँधता है। इस तरह से क्रिया और उसके फल का चक्र चलता रहता है। केवल अनुशासनात्मक जीवन जीने से व्यक्ति कर्मों से छुटकारा पा सकता है। इस तरह से जब आत्मा पूर्णतया कर्मों से मुक्त हो जाता है तो यही आध्यात्मिक मुक्ति कही जाती है। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) दूसरा प्रयोजन सभी प्राणियों के प्रति समानता का दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रेरित करता है और यह एक व्यक्ति और उसकी संपत्ति के प्रति भी पवित्र दृष्टिकोण उत्पन्न करता है। यह आचार जैनधर्म में श्रेणीबद्ध रूप से वर्णित है। यह व्यक्ति के लिए प्रस्तावित करता है कि वह आचार का निष्कपट रूप से पालन करे। इस आचार का आधार अहिंसा का सिद्धान्त है। यह व्यक्ति के स्वाभाविक अधिकार की स्वीकृति है, जिसको यह कहकर सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है, कोई भी मरना नहीं चाहता। इसलिए दूसरे प्राणियों को नष्ट करने या नुकसान पहुँचाने का किसी को भी अधिकार नहीं है; उस रूप में विचार करने पर अहिंसा सुसंस्कृत और विवेकपूर्ण जीवन का मूलभूत । नियम है और इस तरह यह जैनधर्म के समस्त नैतिक शिक्षण का आधार बन जाता है। "न किसी को मारना और न ही किसी को नुकसान पहुँचाना ऐसे आदेश का निर्धारण मानव के आध्यात्मिक इतिहास में महान घटना है।" यह बात ‘अलबर्ट स्वाइटजर' के द्वारा (Indian Thoughts and its Development London 1951, pp. 82-3) उचितरूप से कही गयी है। “जहाँ तक हमको ज्ञात है यह बात स्पष्ट रूप से प्रथम बार जैनधर्म में अभिव्यक्त की गयी है।" जैन नीतिशास्त्री पूर्णरूप से इस बात से परिचित हैं कि ईमानदार और सुदृढ़ अहिंसावादी व्यक्ति को व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वे समझ चुके हैं कि जैनधर्म ने सचेतन प्राणियों को जैविक विज्ञान के अनुरूप श्रेणीबद्ध रूप से व्यवस्थित किया है। इसका उद्देश्य व्यक्ति को किसी भी उच्चश्रेणीवाले जीव को मारने और नुकसान पहुँचाने से परहेज करने के योग्य बनाना है और (XXIV) For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम रूप से यह बताना है कि व्यक्ति निम्न श्रेणीवाले जीव को भी नुकसान पहुँचाने से परहेज करे। यह बात ही पर्याप्त नहीं है कि हम केवल व्यक्ति के जीवन के प्रति सम्मान प्रकट करें, किन्तु हमें उसके व्यक्तित्व और उसकी संपत्ति की पवित्रता को भी अनिवार्य रूप से आदर देना चाहिए। यह दृष्टिकोण जैन व्रतों के सार को व्यक्त करता है जो इस प्रकार वर्णित हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये अणुव्रत कहलाते हैं जब गृहस्थों के लिए बताए जाते हैं और जब यथार्थरूप से साधुओं द्वारा पालन किये जाते हैं तो महाव्रत कहलाते हैं। इनका अध्ययन यह बताता है कि “वे एक दूसरे पर आश्रित और एक दूसरे के पूरक हैं।" यह बात बेनीप्रसाद द्वारा विचारोत्तेजक निबन्ध (World Problems and Jaina Ethics, Lahore 1945, pp. 17-18) में अच्छी प्रकार से कही गयी है। “जब किसी एक व्रत का मानवीय संबंधों के लिए उपयोग किया जाता है तो तार्किकरूप से दूसरे व्रत भी इसमें आ जाते हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो वास्तव में दूसरे व्रतों के बिना कोई भी व्रत अपने आप में निरर्थक सिद्ध होगा। उन व्रतों में से प्रथम अर्थात् अहिंसा मुख्य मानी गयी है। यह (अहिंसा) समस्त उच्च जीवन का आधार है, जैन और बौद्ध नैतिक नियमों में यह ..(अहिंसा) मानवतावाद से अधिक व्यापक है, क्योंकि इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण सचेतन सृष्टि समाविष्ट है। अहिंसा की तरह अस्तेय और - अपरिग्रह दिखने में निषेधात्मक हैं, किन्तु वास्तव में प्रयोग में विधेयात्मक हैं। पाँचों अणुव्रत मिलकर जीवन की नैतिक और आध्यात्मिक धारणा . का निर्माण करते हैं। ये स्व-उत्कर्ष के महान सिद्धान्त के प्रति निष्ठा व्यक्त करते हैं। इन्हें मूल्यों का उत्कर्षीकरण भी कहा जा सकता है।" (XXV) For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में जीवन-चर्या दो प्रकार से प्रस्तावित की गई है। एक जीवन-चर्या तो साधु के लिए है जिसने सांसारिक बंधनों को तोड़ दिया है और दूसरी गृहस्थ के लिए है जिसके ऊपर कई सामाजिक उत्तरदायित्व हैं। साधुओं और गृहस्थों के कर्तव्यों के प्रतिपादन के लिए जैनधर्म में अत्यधिक मात्रा में साहित्य विकसित हुआ है। आधारभूत निर्देशन और दण्डात्मक नियंत्रण ने साधुओं और गृहस्थों को सम्यक्चारित्र पर चलने के लिए सहायता की है। आशाधर का धर्मामृत (1240 ईस्वी के . बाद), दो प्रकार के आचार को एक इकाई में प्रस्तुत करने का संभवत: सुन्दर प्रयास है। जैन साहित्य में साधु के जीवन से संबंधित शोधप्रबन्ध प्रचुर मात्रा में हैं। संक्षिप्त सर्वेक्षण के लिए कोई भी व्यक्ति S. B. Deo द्वारा लिखित (History of Jaina Monachism, Deccan College, Poona 1956) का उपयोग कर सकता है। गृहस्थों के लिए प्रतिपादित आचार का आलोचनात्मक और ऐतिहासिक अध्ययन आर. विलियम्स द्वारा लिखित जैन योग (Oxford University Press, oxford 1963) नामक उत्तम निबन्ध में प्राप्त होता है। इसके लिए कोई भी व्यक्ति दूसरे स्रोत जैसे-वसुनन्दि श्रावकाचार (संपादक हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस 1952), उपासकाध्ययन (संपादक कैलाशचन्द्र शास्त्री, बनारस 1964), और एम. मेहता द्वारा लिखित जैन आचार (वाराणसी 1966) का भी अध्ययन कर सकता है। • प्रस्तुत कृति में डॉ. के. सी. सोगाणी ने जैनधर्म के आचारसम्बन्धी सिद्धान्तों के सम्पूर्ण आयामों का उत्कृष्ट सर्वेक्षण करने का प्रयास किया है। जैन आचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर कुछ टिप्पणियाँ प्रस्तुत करने के पश्चात् (I) वे तात्त्विक आधार को विस्तार से प्रस्तुत करते हैं जिस पर जैन आचार का भवन विस्तृतरूप से निर्मित है (II-III) (XXVI) For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके पश्चात् गृहस्थों और मुनियों का आचार विस्तारपूर्वक वर्णित है (IV-V) जैन आचार आध्यात्मिक विकास का मार्ग दिखाता है, इसलिए उसका रहस्यात्मक महत्त्व है (VI) यद्यपि जैनधर्म की अपनी स्वयं की विशेषताएँ हैं फिर भी जैन और अजैन के नैतिक सिद्धान्तों के तुलनात्मक अध्ययन से निश्चय ही लाभकारी परिणाम उत्पन्न होते हैं (VII) जैन आचार सिद्धान्तों का दूरगामी सामाजिक तात्पर्य है और उनका आधुनिक समस्याओं के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाना उपयुक्त है। जैनधर्म के तीन सिद्धान्त- अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त यदि उचित रूप से समझे जाएँ और उनको व्यवहार में क्रियान्वित किया जाय तो वे किसी भी व्यक्ति को ऐसे सम्माननीय नागरिक बना सकते हैं, जो अपनी जीवन दृष्टि में मानवीय होते हैं और परिग्रह वृत्ति से अनासक्त होते है और अपनी मानसिक स्थिति में उच्चकोटि के बुद्धिसम्पन्न और सहनशील होते हैं। सारांश यह है कि डॉ. सोगाणी ने हमें जैनधर्म के आचार-सम्बन्धी सिद्धान्तों को प्रामाणिक रीति से प्रदर्शित करते हुए उनका सर्वाङ्पूर्ण अध्ययन प्रदान किया है। . डॉ. सोगाणी की प्रस्तुत कृति मूल रूप से वही शोधप्रबन्ध है जो राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पीएच. डी की उपाधि के लिए स्वीकृत की गयी थी। यह उनका अत्यधिक स्नेह था कि उन्होंने जीवराज जैन ग्रंथमाला में प्रकाशन के लिए उसको हमारी व्यवस्था में सौंपा। - सामान्य सम्पादक होने के नाते हम ट्रस्ट कमेटी के सदस्यों और प्रबन्ध समिति को ऐसे प्रकाशनों के वास्ते वित्त-प्रबन्ध के लिए मन से • धन्यवाद अर्पित करते हैं। इस बात की आशा की जाती है कि इस प्रकार जैन . आचारशास्त्रीय सिद्धान्तों का सर्वाङ्पूर्ण प्रतिपादन भारतीय धार्मिक चिंतन के विद्यार्थियों के लिए जैनधर्म को समीचीन रूप से समझने के योग्य बना देंगे। (XXVII) For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें यहाँ लिखते हुए अत्यधिक दुःख है कि श्री गुलाबचन्द हीराचन्दजी का 22. 1. 67 को निधन हो गया। वे ट्रस्ट कमेटी के अध्यक्ष थे और उन्होंने ग्रंथमाला की प्रगति में तीव्र रुचि दर्शायी। सामान्य सम्पादकों ने उनमें निहित उपकारिता की निधि को तथा उच्चकोटि के उदारतावाद को खो दिया। उनके कारण अधिकतर हमारे प्रकाशनों की नीति की रूपरेखा तैयार हुई। यह हमारे लिए संतोष की बात है कि उनके पश्चात् उनके भाई श्री लालचंद हीराचंदजी हमारे अध्यक्ष बने। सेठ श्री लालचंदजी गतिशील प्रेरणा के लिए प्रसिद्ध हैं, उनकी यह प्रेरणा, हम आशा करते हैं कि, संघ की गतिविधियों में नवीन उत्साह भर देगी। हम मन से धन्यवाद करते हैं श्री वालचन्द देवीचन्दजी और श्री माणकचन्द वीरचन्दजी का जो इन प्रकाशनों में सक्रिय रुचि ले रहे हैं। उनके सहयोग और सहायता के बिना सामान्य संपादकों के लिए विविध प्रकार के प्रकाशनों को संपादित करना कठिन होता। कोल्हापुर ए. एन. उपाध्ये जबलपुर एच. एल. जैन (XXVIII) For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रस्तुत कृति मूलत: वही शोधप्रबन्ध है जो राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पीएच.डी की उपाधि के लिए सन् 1961 में स्वीकृत की गयी थी। इस कृति में सर्वप्रथम यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि सम्पूर्ण जैन आचार व्यवहार में अहिंसा की ओर उन्मुख है। जैनाचार्यों के द्वारा अहिंसा की परिपूर्ण अनुभूति मानव जीवन का उच्चतम आदर्श समझा गया है। अहिंसा जैनधर्म में इतनी प्रमुख है कि इसे जैनधर्म का प्रारंभ और अंत कहा जा सकता है। समन्तभद्राचार्य का कथन है कि “सभी प्राणियों की अहिंसा परमब्रह्म की अनुभूति के समान है।" यह कथन अहिंसा के उच्चतम स्वभाव को प्रकाशित करता है। ___अहिंसा का आदर्श क्रमिकरूप से अनुभव किया जाता है। जो व्यक्ति अहिंसा का आंशिकरूप (Partially) से पालन करने के योग्य होता है वह गृहस्थ कहलाता है और जो अहिंसा का पूर्णरूप (Completely) से पालन करता है, यद्यपि परिपूर्णरूप (Perfectly) से नहीं कर पाता वह संन्यासी या मुनि कहा गया है। निःसन्देह मुनियों का जीवन अहिंसा के अनुभव के लिए पूरा आधार प्रदान करता है, किन्तु इसका परिपूर्णरूप से अनुभव केवल आध्यात्मिक (रहस्यात्मक) अनुभव की पूर्णता में ही संभव है जो कि अर्हत् अवस्था कही जाती है। - इस प्रकार गृहस्थ और मुनि दो पहिये हैं जिस पर जैन आचाररूपी गाड़ी बिलकुल आसानी से चलती है। जैन आचार्यों को यह श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने इन दो आचारों को अपनी दृष्टि में सदैव रखा। उन्होंने कभी भी एक-दूसरे के कर्तव्यों का घालमेल करने या उनको गड्ड-मड्ड करने (XXIX) For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का समर्थन नहीं किया। परिणामस्वरूप उन्होंने जैनधर्म में गृहस्थआचार को उतनी ही स्पष्टता से विकसित किया जितनी स्पष्टता से मुनि-आचार विकसित किया गया। मुनिप्रवृत्ति से अभिभूत होकर जैनधर्म ने गृहस्थ-आचार की उपेक्षा नहीं की। अणुव्रतों के सिद्धान्त को विकसित करने के कारण जैनधर्म ने ऐसा मार्ग दिखा दिया है जिस पर गृहस्थ अपनी जीवन-यात्रा सफलतापूर्वक चला सकता है। अणुव्रतों का सिद्धान्त भारतीय चिन्तन को जैनधर्म का अद्वितीय योगदान है। द्वितीय, यह बताने का प्रयास किया गया है कि जैन तत्त्वमीमांसा जैन नीतिपरक सिद्धान्त के प्रतिपादन का आधार है। जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत तात्त्विक दृष्टि अनेकान्तवाद या अनिरपेक्षवाद के नाम से जानी जाती है। द्रव्य के स्वरूप को प्रकट करने के लिए जैन दार्शनिक निरपेक्ष दृष्टिकोण का अनुमोदन नहीं करते हैं। जैनदर्शन की दृढ़ धारणा है कि दर्शन में निरपेक्षवाद नैतिक चिन्तन का विनाशक है, क्योंकि निरपेक्षवाद सदैव चिन्तन की प्रागनुभविक प्रवृत्ति पर आधारित होता है जो अनुभव से बहुत दूर है। इस दृष्टि से समन्तभद्र का कथन महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार बंधन और मोक्ष, पुण्य और पाप की जो धारणा है वह अपनी प्रासंगिकता खो देती है यदि हम द्रव्य के स्वभाव के निर्माण में केवल नित्यता या अनित्यता को स्वीकार करते हैं। थोड़े से चिन्तन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि अहिंसा की धारणा जो जैन आचार के क्षेत्र से संबंधित है पदार्थों के तात्त्विक स्वभाव का तार्किक परिणाम है। तृतीय, यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि अध्यात्मवाद में जैन आचार की पराकाष्ठा है। इस प्रकार यदि आचार का मूल स्रोत तत्त्वमीमांसा है तो अध्यात्मवाद इसकी परिसमाप्ति है। आचारशास्त्र तात्त्विक चिन्तन और आध्यात्मिक अनुभव को जोड़नेवाली कड़ी है। (XXX) For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह कहना गलत न होगा कि जैनधर्म केवल आचार और तत्त्वमीमांसा ही नहीं है बल्कि अध्यात्मवाद भी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि जैन आचार्यों द्वारा निरन्तर सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) की वास्तविक उपलब्धि पर जोर दिया गया है। सम्यग्दर्शन की पृष्ठभूमि के बिना सम्पूर्ण जैन आचार चाहे गृहस्थ का हो या मुनि का पूर्णतया निर्जीव है। इस प्रकार सम्पूर्ण जैन आचार में अध्यात्मवाद व्याप्त है। आध्यात्मिक जीवन-पथ के प्रति गहन निष्ठा के कारण जैनधर्म ने आध्यात्मिक विकास के चौदह सोपान विकसित किये हैं जिन्हें गुणस्थान कहा जाता है। मैंने इन सोपानों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत सम्मिलित किया है, उदाहरणार्थ- (1) जाग्रति से पूर्व आत्मा का अंधकारपूर्ण काल (आत्मा की अंधकारपूर्ण रात्रि), (2) आत्मजाग्रति (आत्मा का जागरण), (3) आचार-सम्बन्धी शुद्धीकरण, (4) प्रकाश-ज्योति, (5) प्रकाश-ज्योति के पश्चात् अंधकार का काल और (6) सामान्य अनुभव से परे लोकोत्तर जीवन। इन सोपानों से परे एक अवस्था और है जिसे सिद्ध-अवस्था के नाम से जाना जाता है। चतुर्थ, यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि जैनधर्म में भक्ति की सैद्धान्तिक संभावना है। सामान्यतया यह माना जाता है कि जैनधर्म और भक्ति आपस में एक दूसरे के विरोधी शब्द हैं, क्योंकि भक्ति में एक ऐसे दिव्य/ईश्वरीय हस्ती के अस्तित्व की पूर्व मान्यता है जो भक्त की आकांक्षाओं का सक्रियता से उत्तर दे सके और जैनधर्म में ऐसी हस्ती की धारणा अमान्य है। यह कहना सत्य है कि जैनधर्म ऐसी ईश्वरीय हस्ती के विचार का समर्थन नहीं करता है, लेकिन जैनधर्म में निःसन्देह अर्हत् और सिद्ध, जो कि दिव्य अनुभव प्राप्त आत्माएँ हैं, भक्ति के विषय हो सकते हैं, किन्तु वे मानवीय प्रार्थनाओं के विषय होते (XXXI) For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए भी मानवीय सुख-दुःख से बिलकुल तटस्थ रहते हैं। लेकिन जैनधर्म के अनुसार अर्हत् या सिद्ध के प्रति भक्ति की प्रेरणा इस बात से उत्पन्न होती है कि उनमें से किसी की भी भक्ति आत्मा में उच्चतम प्रकार के पुण्य का संचय करती है, जो फलस्वरूप भौतिक और आध्यात्मिक लाभ उत्पन्न करती है। अर्हत् या सिद्ध के प्रति भक्ति के द्वारा हमारे विचार और संवेग शुद्ध होते हैं जिसके परिणामस्वरूप आत्मा में पुण्य का संचय होता है। इस प्रकार का पुण्य केवल पत्थर की पूजा करने से उत्पन्न नहीं हो सकता है, इसलिए जैनधर्म में अर्हत् और सिद्ध की पूजा का महत्त्व है। इस तथ्य के कारण समन्तभद्र यह घोषणा करते हैं कि अर्हत् की आराधना आत्मा में अत्यधिक पुण्य का संचय करती है। जो उसकी भक्ति करता है वह समृद्धि को पाता है और जो उसकी निन्दा करता है वह दुःख में गिरता है। ऐसा समझने पर साधक को ईश्वर (अर्हत् और सिद्ध) के अलगाव पूर्ण व्यवहार के लिए निराशा की श्वास नहीं लेनी चाहिये। सच तो यह है कि जो उनकी भक्ति करते हैं, वे स्वतः ही उन्नत हो जाते हैं। अंत में इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है कि वास्तव में वैदिक, जैन और बौद्ध से प्राप्त तात्त्विक निष्कर्षों में भेद होते हुए भी उनके प्रतिपादकों ने वस्तुओं की असारता से परे जाने के लिए समान पद्धतियों और युक्तियों का सहारा लिया है। इस प्रकार वे मनोवैज्ञानिक, आचारशास्त्रीय और धार्मिक भाव के स्तर पर असाधारण रूप से सहमत हैं। इसके साथ ही मैंने कुछ महत्त्वपूर्ण पाश्चात्य आचारशास्त्रीय सिद्धान्तों की भी आलोचनात्मक दृष्टि से परीक्षा की है। ___इस कार्य के आयोजन में जिन स्रोतों का उपयोग किया गया है उनके प्रति पादटिप्पण में ऋण स्वीकार किया गया है। शब्दशः अनुवाद (XXXII) For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अपेक्षा मूल स्रोतों का अनुवाद करने के लिए भाव का अधिक ध्यान रखा गया है। प्रारम्भ में ही मैं गहरी कृतज्ञता के भाव को अभिव्यक्त करता हूँ स्व. मास्टर मोतीलालजी संघी, जयपुर (राजस्थान) के प्रति, जिन्होंने न केवल शब्दों से किन्तु अपने जीवन और चिन्तन के तरीके से मुझे दर्शन की ओर मोड़ा। आध्यात्मिक व्यक्तियों में मैं उन्हें उच्च श्रेणी का मानता हूँ। व्यक्तियों को जाति और मत के पक्षपात के बिना बदलने के तरीके के कारण और आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने के कारण वे मुझे सुकरात की याद दिलाते हैं। पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ, प्राचार्य, जैन संस्कृत कॉलेज, जयपुर (राजस्थान) मेरे लिए सदैव प्रकाश और प्रेरणा के स्रोत बने रहे। उनका अगाध पाण्डित्य, गंभीर चिंतन और संत जैसा जीवन मेरे लिए मार्गदर्शक बना। उनके कारण ही मैं मूल स्रोतों के अध्ययन में लगा रहा और उनको वर्तमान रूप में प्रस्तुत कर सका। मेरे लिए वे दृढ़ता, धैर्य, साहस और अक्षुण्ण उत्साह के प्रतीक हैं। मैं उनका कितना ऋणी हूँ- यह मेरी अभिव्यक्ति से परे है। मैं पूर्णरूप से कृतज्ञता स्वीकार करता हूँ मेरे सुपरवाइजर डॉ. वी. एच. दाते के प्रति, जिनके निर्देशन और स्नेही व्यवहार से वर्तमान कार्य कर सका। यहाँ मुझे यह उल्लेख करते हुए हिचकिचाहट नहीं है कि उनके कारण ही मैं मेरा स्नातकोत्तर अध्ययन पूरा कर सका और दर्शन में कई नयी बातें सीख सका जिनको केवल लम्बे व्यक्तिगत सम्पर्क के कारण ही सीखा जा सकता है। मैं उनके वात्सल्य को कभी नहीं भुला सकता। डॉ. ए. एन. उपाध्ये जो ग्रंथमाला के सामान्य संपादक है उनके प्रति मेरी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए शब्द अपर्याप्त है। विविध बौद्धिक (XXXIII) For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यों के होते हुए भी उन्होंने इस कार्य के प्रकाशन में व्यक्तिगत रुचि ली और उन्होंने एक से अधिक बार प्रूफों का संशोधन किया। मैं मन से धन्यवाद अर्पित करता हूँ जीवराज जैन ग्रंथमाला के ट्रस्टियों का जिन्होंने इस कार्य के प्रकाशन की व्यवस्था की। मैं अत्यन्त ऋणी हूँ श्री पी. सिन्हा, प्राचार्य, आर. आर. कॉलेज, अलवर (राजस्थान) का जिन्होंने मुझे ऐसे कार्यों को करने के लिए सभी प्रकार की आवश्यक सुविधाएँ प्रदान की। मैं मेरे मित्र श्री बी. आर. भण्डारी को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने अपना अत्यधिक समय अनुक्रमणिका तैयार करने में लगाया। इस अवसर पर मुझे धन्यवाद देना नहीं भूलना चाहिये अपनी पत्नी श्रीमती कमला देवी सोगाणी को जिन्होंने अपने बहुत से स्वार्थों के त्याग द्वारा और मूल स्रोतों से सामग्री निकालने में मदद द्वारा मुझे व्यावहारिक प्रोत्साहन दिया। उदयपुर के. सी. सोगाणी 1. 3. 67 (XXXIV) For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अध्याय जैन आचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जैनधर्म की पारम्परिक प्राचीनता परम्परा के अनुसार जैनधर्म अपने उद्गम के लिए ऋषभ का ऋणी है जो चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम है। ऐसा कहा गया है कि शेष तीर्थंकरों ने इस प्राचीन धर्म को पुनरुज्जीवित किया और समय-समय पर प्रकट किया। भागवतपुराण में ऋषभ के बारे में जो कुछ तथ्य उल्लिखित हैं वे अधिकांश जैन ग्रंथों में बताये गए तथ्यों के समान हैं। प्रो. रानाडे का कथन है-“ऋषभदेव एक विशिष्ट प्रकार के रहस्यवादी संत है जिनकी अपने शरीर के प्रति पूर्ण असावधानी उनके ईश्वरानुभव की उच्चतम निशानी है।" "यह जानना रुचिपूर्ण होगा कि ऋषभदेव के संबंध में जो विस्तार भागवत में दिया गया है वह आधारभूतरूप से जैन परम्परा द्वारा लिखित विस्तार के लगभग समान है।''2 डॉ. राधाकृष्णन् का मत है- “यह दिखाने के लिए पर्याप्त प्रमाण है कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में ऐसे व्यक्ति थे जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा करते थे। निःसन्देह जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथ के पहले भी प्रचलित था। यजुर्वेद तीन तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख करता हैऋषभ, अजितनाथ और अरिष्टनेमि। भागवतपुराण इस दृष्टि का समर्थन - 1. Mysticism in Maharastra, p.9 2. परमात्मप्रकाश, परिचय, पृष्ठ 39 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त. (1) For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे।" "ऋषभदेव द्वारा उपदिष्ट अहिंसा का सिद्धान्त संभवतया उस समय की प्रचलित संस्कृति के पहले अस्तित्व में रहा है।'' परम्परानुसार ऋषभ कोसल में पैदा हुए थे; उनके पिता कुलकर नाभि व माता मरुदेवी थी। शेष तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं:- (2) अजित, (3) संभव, (4) अभिनन्दन, (5) सुमति, (6) पद्मप्रभ, (7) सुपार्श्व, (8) चन्द्रप्रभ, (9) पुष्पदंत, (10) शीतल,. (11) श्रेयांस, (12) वासुपूज्य, (13) विमल, (14) अनंत, (15) धर्म, (16) शांति, (17) कुंथु, (18) अर, (19) मल्लि, (20) मुनिसुव्रत, (21) नमि, (22) नेमि, (23) पार्श्व और (24) महावीर। “जैन परम्परा सभी तीर्थंकरों को विशुद्ध क्षत्रिय जाति की उपज मानती है; उनके संबंध में दूसरी बात उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लि के बारे में मतभेद को लेकर है। श्वेताम्बरों के अनुसार वे स्त्री थे) दिगम्बर इससे सहमत नहीं हैं।'' इसके अतिरिक्त पाँचवें तीर्थंकर 'सुमति' का नामोल्लेख भागवतपुराण में है। वह (भागवतपुराण) हमको बताता है . कि “कुछ नास्तिकों के द्वारा वे अधार्मिकरूप से ईश्वरीय दिव्यता के रूप में पूजे जायेंगे।"6 अन्य तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमि) कृष्ण के आख्यान से संबंधित हैं।' 3. 4. 5. 6. Indian Philosophy, Vol.1. p.287 History of Philosophy Eastern and Western, Vol.1.,p. 139 History of Jaina Monachism, p.59 Visnu Purana, p.164 History of Jaina Monachism, p.59 History of Jaina Monachism, p.59 7. (2) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्व की ऐतिहासिकता परम्परा के अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हम पाते हैं कि अंतिम दो तीर्थंकरों - अर्थात् पार्श्व और महावीर की ऐतिहासिकता अब स्वीकार कर ली गई है। कुछ तर्क जो पार्श्व की ऐतिहासिकता के लिए प्रस्तुत किये गये हैं वे निम्न है - प्रथम, डॉ. याकोबी ने तथ्यात्मकरूप से सिद्ध किया है कि जैनधर्म महावीर के समय से पहले भी तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय अस्तित्व में था। ये बौद्ध संदर्भ हैं जिन्होंने उनको यह दृष्टिकोण अपनाने के लिए बाध्य किया। उनमें से एक यह है; दीघनिकाय के सामञ्ञफलसुत्त की त्रुटि है कि इसने चातुर्यामधर्म जो पार्श्व के द्वारा उपदिष्ट था उसको नातपुत (महावीर) पर आरोपित किया इससे महावीर के पूर्व जैनधर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। डॉ. याकोबी के शब्दों में, "पालि चातुयाम समान है प्राकृत चातुज्जाम के, यह एक प्रसिद्ध जैन शब्द है जो सूचित करता है कि पार्श्व के चार व्रत हैं जो महावीर के पाँच व्रतों (पंच महव्वय) के नाम पर बताये गए हैं । यहाँ, तब बौद्धों ने, मैं मानता हूँ एक गलती की है। नातपुत्त महावीर पर एक सिद्धान्त को आरोपित किया जो वास्तव में उसके पूर्ववर्ती पार्श्व से संबंधित था। यह एक महत्त्वपूर्ण गलती है, क्योंकि बौद्ध इस शब्द का प्रयोग निग्गंथ मत का वर्णन करने में नहीं कर सकते थे जब तक उन्होंने उसे पार्श्व के अनुयायियों से न सुना हो और वे उसका प्रयोग नहीं करते, यदि महावीर के द्वारा किए गये सुधार बुद्ध के समय के निग्गंथों द्वारा पहले से ही ग्रहण किये हुए होते। इसलिए मैं बौद्धों की इस भारी भूल को जैन परम्परा की उचितता का सबूत मानता हूँ कि पार्श्व के अनुयायी महावीर के समय अस्तित्व में थे।"" द्वितीय, स्वयं जैन आगमों द्वारा पार्श्व की ऐतिहासिकता के प्रमाण उपलब्ध 8. Sacred Books of the East Series, Vol. XLV.p.XXI Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (3) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराये गये हैं; उनमें से एक केशी और गोयम के बीच का वार्तालाप है जो उत्तराध्ययन में उल्लिखित है। इसके बारे में याकोबी का कथन है, “पार्श्व का अनुयायी विशेषरूप से केशी महावीर के समय में उनके अनुयायियों का अग्रणी था। यह बात बहुधा जैनसूत्रों में ऐसे तथ्यात्मक तरीके से बताई गई है कि उस लेख की प्रामाणिकता में संदेह करने के लिए कोई कारण नहीं है।"10 तृतीय, पार्श्व के पाँच सौ अनुयायियों द्वारा महावीर के पाँच प्रकार के धर्म की तुंगिया पर . स्वीकृति महावीर के पूर्व जैनधर्म के अस्तित्व का समर्थन करती है।'' पार्श्व का जीवन और प्रभाव पार्श्व की ऐतिहासिकता होते हुए भी उनके बारे में बहुत कम तथ्य मालूम हैं। उनके पिता वाराणसी के राजा विश्वसेन थे, और उनकी माता वामा थी। उन्होंने अपना जीवन तीस वर्ष तक गृहस्थ अवस्था में बिताया और इसके बाद साधु जीवन व्यतीत किया।.83 दिन तक कठोर तपस्वी जीवन का अनुसरण करने के पश्चात् उन्होंने केवलज्ञान (पूर्णज्ञान) प्राप्त किया, और अपने जीवन के 100 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् सम्मेद पर्वत के शिखर पर महावीर के निर्वाण प्राप्त करने के 250 वर्ष पूर्व मुक्ति प्राप्त की। “मुख्य शहरों में से जिनमें उन्होंने भ्रमण किया था वे हैं- अहिछत्ता, आमलकप्पा, हत्थिनापुर, कंपिल्लपुर, कोसम्बी, रायगिह, सागेय और सावत्थी। इससे यह मालूम होता है कि उन्होंने बिहार और उत्तरप्रदेश के आधुनिक प्रदेशों में भ्रमण किया।''12 9. Uttarādhyayana, XXIII 10. Sacred Books of the East Series, Vol. XLV. p. XXI 11. Bhagavaī, pp. 136 ff. vide History of Jaina Monachism, pp. 63-64. 12. History of Jaina Monachism, pp. 60-61 (4) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्व का धर्म पार्श्व का धर्म “चाउज्जाम'13 धर्म कहा गया है या चार प्रकार का धर्म जो हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रहवृत्ति से परहेज प्रस्तावित करता है। प्रश्न यह है कि पार्श्व और महावीर के द्वारा व्रतों की संख्या जो क्रमश: चार और पाँच प्रस्तावित की गयी थी उनकी संख्याओं में भेद क्यों था? इसके उत्तर में यह कहा गया कि प्रथम तीर्थंकर के अधीन जो साधु थे वे सरल थे लेकिन मन्दबुद्धि थे, और अंतिम तीर्थंकर के अधीन जो साधु थे वे कपटी थे और मन्दबुद्धि भी थे, उन दोनों के बीच में (दूसरे से तेईसवें तीर्थंकर तक) साधु सरल और बुद्धिमान थे इसलिए दो प्रकार के नियम हैं। फिर, जो प्रथम (तीर्थंकर) के अधीन साधु थे वे नियमों के आदेशों को कठिनाई से समझते थे और अंतिम (तीर्थंकर) के अधीन साधु उनको केवल कठिनाई से पालन कर सकते थे। लेकिन उनमें से जो बीचवाले साधु (दूसरे से तेईसवें तीर्थंकर तक) थे वे आसानी से समझ जाते थे और उनका पालन भी करते थे।15 महावीर का अतिरिक्त स्पष्टीकरण . प्रथम, महावीर द्वारा जो स्पष्टीकरण किया गया वह था पार्श्व के चार व्रतों में पाँचवें व्रत ब्रह्मचर्य की स्पष्टरूप से वृद्धि। पार्श्व के धर्म में वह अव्यक्त था जबकि महावीर के धर्म ने अपने शिष्यों को ध्यान में रखते हुए ब्रह्मचर्य व्रत को व्यक्त कर दिया, क्योंकि वे शिष्य जटिल और मन्दबुद्धि थे। यह वृद्धि पार्श्व के शिष्यों के विरोध में है जो “सरल . 13. Uttarādhyayana, XXIII. 12 14. Uttaradhyayana, XXIII.26 मूलाचार, 534, 535 15. Uttarādhyayana, XXIII. 27 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बुद्धिमान थे।" याकोबी का कथन है- “ब्रह्मचर्य का व्रत पार्श्व के चार व्रतों में स्पष्टतया उल्लिखित नहीं था किन्तु अव्यक्त रूप से उनके द्वारा प्रस्तावित समझा गया था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि केवल ऐसे व्यक्ति जो ईमानदारवृत्ति के थे और जल्दी समझने वाले थे चार व्रतों का अक्षरश: पालन करने से वे पथभ्रष्ट नहीं होंगे, किन्तु दूसरे व्यक्ति कामभोग से अलग नहीं रहेंगे क्योंकि कामभोग स्पष्ट रूप से निषिद्ध नहीं किया गया था। मूल पाठ में जो तर्क है वह बताता है साधु संघ के नैतिकता के क्षय को जो पार्श्व और महावीर के बीच के समय में घटित हुआ और यह इस मान्यता के आधार पर संभव है कि अंतिम दो तीर्थंकरों के समय में पर्याप्त अन्तराल व्यतीत हो गया था। और यह बात सामान्य परम्परा के पूर्णतया अनुरूप है कि महावीर पार्श्व के ढाई सौ वर्ष बाद हुए।"16 द्वितीय, आगमिक परम्परा की दृष्टि से महावीर ने नग्नता के आचरण को आरंभ किया। ‘कल्पसूत्र' हमें बताता है कि पूजनीय तपस्वी महावीर ने एक साल और एक महीने के लिए वस्त्र पहने थे; इसके बाद वह नग्न चले और खाली हाथ में भिक्षा को स्वीकार किया। महावीर के पूर्ववर्ती पार्श्व ने शिष्यों को नीचे और ऊपर के वस्त्र पहनने की अनुमति दी।18 'सुत्तपाहुड' में कुन्दकुन्द ने घोषणा की कि तीर्थंकर भी वस्त्रों के प्रयोग से मोक्ष प्राप्त करने में असमर्थ रहेंगे। इस बात से यह सूचना प्राप्त होती है कि किसी भी तीर्थंकर ने साधुओं के लिए वस्त्रों के प्रयोग की अनुमति नहीं दी। यह दृष्टिकोण सुझाता है कि न केवल महावीर बल्कि अन्य सभी (तीर्थंकरों) ने नग्नता का उपदेश दिया। तृतीय, 16. Uttarādhyayana, p. 122., Foot note No. 3 17. Kalpasutra, p. 260 18. Uttarādhyayana, XXIII. 13 19. सुत्तपाहुड, 23 (6) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के द्वारा प्रतिक्रमण (अतिचार की निन्दा) के व्यवहार की पालना अनिवार्य कर दी गयी, इस तथ्य का बिना लिहाज किए कि अतिचार किया गया है। इसका कारण हो सकता है अस्थिर मन की स्वीकृति और शिष्यों का विस्मरणशील स्वभाव या यह विश्वास कि पाप की चेतना से व्यक्ति गलत काम करने से रुकेंगे। प्रथम तीर्थंकर के समय यही व्यवहार चलता रहा लेकिन तीर्थंकरों (दूसरे से तेईसवें तीर्थंकर तक) के शिष्यों ने किसी अतिचार के करने पर ही प्रतिक्रमण के व्यवहार की पालना की क्योंकि वे अतिसूक्ष्म और स्थायी माने गये हैं। चतुर्थ, पूज्यपाद 'चारित्र भक्ति' में बताते हैं कि महावीर ने तेरह प्रकार के चारित्र का उपदेश दिया अर्थात् पाँच समिति, तीन गुप्ति और पाँच महाव्रत। दूसरे तीर्थंकरों द्वारा इतने विस्तार से उपदेश नहीं दिया गया। पाँचवाँ, 'मूलाचार' के अनुसार ऋषभ और महावीर ने छेदोपस्थापना चारित्र के पालने की घोषणा की जब कि दूसरों ने केवल एक सामायिक व्रत पालने की घोषणा की।22 छेदोपस्थापना का अर्थ है- तेरह प्रकार का चारित्र जो ऊपर बताया गया है या पाँच महाव्रत। सामायिक का अर्थ है- सभी प्रकार की पापपूर्ण प्रवृत्तियों का वर्जन जिसमें संक्षेप में सभी प्रकार के चारित्र का समावेश किया जाता है।24 पूर्व में विद्यमान धर्म के व्याख्याता के रूप में महावीर - उपर्युक्त जो कुछ कहा गया है उससे यह निष्कर्ष निकलता है 20. मूलाचार, 624-630 21. चारित्र भक्ति, 7 22. मूलाचार, 533 23. आचारसार, 5/6,7 . सर्वार्थसिद्धि, 7/1 - 24. सर्वार्थसिद्धि, 7/1 Ethical Doctrines in Jainism etatert # Tarnea Pelle (7) For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि महावीर ने स्पष्टीकरण के द्वारा अपने पूर्ववर्ती के धर्ममत को उन्नत किया और बिलकुल ही नया धर्ममत स्थापित नहीं किया। प्रो. घाटगे का कथन है- “जैसी स्थिति है उसके द्वारा यह समझा जा सकता है कि परम्परा ने पार्श्व के धर्म के केवल उन बिंदुओं को ही बनाए रखा जो महावीर के धर्म से भिन्न थे, जब कि दूसरे समान बिंदुओं की उपेक्षा कर दी गयी। कुछ भिन्नताएँ जो जानी गयी हैं वे महावीर को निश्चितरूप से एक विद्यमान धर्म के सुधारक के रूप में रखती हैं- एक व्रत (ब्रह्मचर्य) को जोड़ना, नग्नता का महत्त्व और दार्शनिक सिद्धान्तों की अधिक योजनाबद्ध व्यवस्था- इनके लिए महावीर के सुधारवादी उत्साह को श्रेय दिया जा सकता है)"25 "इस प्रकार बुद्ध के विपरीत महावीर एक नये धर्म को स्थापित करने के बजाय विद्यमान धर्म के और संभवतया संघ के सुधारक थे। वे (महावीर) संभवतया पार्श्व के सुव्यवस्थित धर्ममत के अनुयायी के रूप में चित्रित किए गए हैं। पालि त्रिपिटक महावीर को नये धर्ममत का संस्थापक नहीं मानता है, केवल उनको पूर्व में विद्यमान धार्मिक समुदाय का नेता मानता है।''26 "नैतिक शिक्षण में सुधारों के अतिरिक्त यह मालूम करना कठिन है कि महावीर ने अपने पूर्ववर्ती (पार्श्व) के तात्त्विक और मनोवैज्ञानिक चिन्तन में क्या वृद्धि की? अत्यधिक संभावना यह है कि जो कुछ उन्होंने किया वह विश्वासों के अव्यवस्थित पुंज को साधु और गृहस्थ के आचरण के लिए कठोर नियमों के समूह में वर्गीकृत कर दिया। (अत: यह कहा जा सकता है कि) गणना और वर्गीकरण की ओर निश्चित झुकाव के लिए महावीर को श्रेय दिया जा सकता है।''27 25. The Age of Imperial Unity p. 412 26. The Age of Imperial Unity p. 412 27. The Age of Imperial Unity p. 420 Ethical Doctrines in Jainisn For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का जीवन और प्रभाव संक्षेप में महावीर के जीवन पर विचार- “वर्धमान महावीर कुंडग्राम या कुंडपुर में पैदा हुए थे, उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो ज्ञातृ क्षत्रिय से संबंध रखते थे। उनकी माता त्रिशला थी जो राजा चेटक की पुत्री या बहिन थी। वे वैशाली के शासक थे और लिच्छिवि क्षत्रियों से संबंध रखते थे। इस प्रकार पिता और माता की तरफ से वे शाही क्षत्रिय वंश से संबंधित थे।"28 “पैगम्बर (तीर्थंकर) का वास्तविक नाम 'वर्धमान' था। जबकि देवताओं के द्वारा अधिक प्रसिद्ध नाम ‘महावीर' उनको प्रदान किया गया था। आगम में भी उनके बहुत से महत्त्वपूर्ण उपनाम दिये गए हैं, जैसे- नायपुत्त, नायकुल के वंशज, गोत्र के कारण कासव, जन्मस्थान के कारण वैशालीय और जन्मभूमि के कारण विदेहदिण्ण। पूजनीय तपस्वी महावीर' के रूप में वे बार-बार उल्लिखित किये गये हैं।''29 दिगम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने अपना जीवन ब्रह्मचर्य में व्यतीत किया जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उन्होंने यशोदा से विवाह किया और वे पुत्री से धन्य हुए जिसका नाम प्रियदर्शना था। राजसी जीवन के होते हुए उन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में सांसारिक सुख-साधन त्याग दिया और निर्ग्रन्थ हो गये। 12 वर्ष तक आत्मसंयम का कठोर मार्ग अपनाने के पश्चात् उन्होंने पूर्णता प्राप्त की और वे केवली हुए। “30 वर्ष तक देश के विभिन्न भागों की यात्रा की। महावीर व बुद्ध के विहार या धार्मिक यात्रा ने मगध क्षेत्र को बिहार नाम दिया।"30 “समन्तभद्र ने ई. की द्वितीय शताब्दी में महावीर के तीर्थ को 'सर्वोदय' के नाम से पुकारा। जो शब्द सामान्यतया आजकल गांधीजी 28. History of Jaina Monachism, p. 65 29. The Age of Imperial Unity, p. 413 30. Mahāvīra and his Philosophy of life, p. 3 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (9) For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नाम से प्रयुक्त होता है। महावीर ने 72 वर्ष की आयु में 527 ई. पू. पावा में निर्वाण प्राप्त किया।"31 केवलज्ञान की उपलब्धि के बाद उनके लिए कहा जाता है कि उन्होंने प्रथम वर्षाकाल अस्थिकाग्राम में, तीन वर्षाकाल चम्पा में, बारह वर्षाकाल वैशाली और वणियगाम में, चौदह रायगिह और उपनगर नालन्दा में, छह मिथिला में, दो भदिया और एक अलभिया में, एक पणियभूमि में, एक सावत्थी में, एक पावा नगर में व्यतीत किया।2"कुछ क्षेत्रों के पहचान से ऐसा ज्ञात होता है कि उनके प्रभाव का क्षेत्र लगभग बिहार के आधुनिक प्रदेश और बंगाल व उत्तरप्रदेश का कुछ भाग रहा।"33 “वे हमें उन देशों की सन्तोषजनक सूचना देते हैं जिनमें उन्होंने धर्म को प्रचारित करने के लिए भ्रमण किया लेकिन हमें यह याद रखना चाहिये कि यह सूची न तो सर्वाङ्गपूर्ण है न ही कालानुक्रमिक, यद्यपि 42 वर्ष के अपने यात्रा वृत्तान्त का स्थूल रूप से विवरण देती है।''34 जैन ग्रंथों के अनुसार कई राजा, रानियाँ, राजकुमार, राजकुमारियाँ, मंत्री और व्यापारियों ने महावीर को गुरु के रूप में स्वीकार किया। अब हम जैनधर्म में विशेषतया दो सम्प्रदाय दिगम्बर व श्वेताम्बर के बारे में संक्षेप में विचार करेंगे। इन दो सम्प्रदायों के बीच आधारभूत भिन्नता साधुओं के वस्त्रों के प्रयोग करने की दृष्टि से कही गई है। श्वेताम्बर साधु सफेद वस्त्र पहनते हैं जब कि दिगम्बर साधु नग्न रहते हैं। इसके अतिरिक्त दिगम्बरों का कथन है कि वास्तविक आगम लुप्त हो चुके हैं लेकिन श्वेताम्बर स्वीकार करते हैं कि मूल आगम 31. Mahāvīra and his Philosophy of life, p. 3 32. Kalpasātra, p. 264 33. History of Jaina Monachism, p. 69 34. The Age of Imperial Unity, p. 412 (10) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान हैं। यहाँ यह कहा जा सकता है कि तात्त्विक, आचारशास्त्रीय और धार्मिक सिद्धान्त जो दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रंथों में वर्णित हैं, कोई विशिष्ट भेद नहीं दर्शाते हैं। दिगम्बरों के पंथ समय बीतने के साथ ही दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में नये सम्प्रदायों (पंथों) का उदय हो गया। पहले हम दिगम्बर सम्प्रदायों (पंथों) की ओर संकेत करेंगे तत्पश्चात् श्वेताम्बर सम्प्रदायों (पंथों) की ओर चलेंगे। दिगम्बरों के विभिन्न पंथ ये हैं- (1) द्रविडसंघ (2) काष्ठासंघ (3) माथुरसंघ (4) यापनीयसंघ (5) तेरापंथ (6) बीसपंथ (7) समइयापंथ और (8) गुमानपंथ। . (1) द्रविडसंघ- दर्शनसार के अनुसार विक्रम संवत् 526 (469 ई.) में द्रविड देश मद्रास के पास प्रकट हुआ और वज्रनन्दि के द्वारा जो पूज्यपाद के शिष्य थे; आरंभ किया गया। बहुत से महान आचार्य जैसे- जिनसेन (हरिवंशपुराण के रचयिता), वादिराज आदि ने संघ को संरक्षण दिया लेकिन इस संघ में मुनियों के अनुशासन के प्रचलित नियमों के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। (2) विक्रम संवत् 753 (696 ई.) में कुमारसेन मुनि द्वारा काष्ठासंघ स्थापित किया गया; उनके शिष्य गायों के बालों से बनी हुई पीछी रखते थे। (3) काष्ठासंघ की उत्पत्ति के 200 वर्ष बाद विक्रम संवत् 953 (896 ई.) में रामसेन द्वारा माथुरसंघ” दक्षिण भारत में मदुरा में आरंभ किया गया; इस संघ के मुनि पीछी नहीं रखते थे। आचार्य अमितगति इस 35. दर्शनसार, पृष्ठ 38, 41 36. दर्शनसार, पृष्ठ 39, 41 37. दर्शनसार, पृष्ठ 39, 41 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (11) For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ से संबंधित थे। नाथूराम प्रेमी का कथन है कि- दर्शनसार के लेखक देवसेन ने, अनावश्यकरूप से और बिना किसी यथेष्ट कारण के इन संघों को नकली जैन कहा। (4) हमें एक अन्य संघ का नाम मिलता है जो यापनीयसंघ के नाम से जाना जाता है; जो विक्रम संवत् के 205 वर्ष बाद (148 ई.) श्री कलश द्वारा कल्याण में आरंभ किया गया था। यापनीय संघ के मुनियों ने दिगम्बरों की तरह नग्नता का आचरण किया, श्वेताम्बरों के अनुरूप स्त्रियों के मोक्ष में विश्वास किया। इस प्रकार वे दो प्रमुख सम्प्रदायों में सामञ्जस्य स्थापित करानेवाले कहे जा सकते हैं। आजकल इस संघ के अनुयायी नहीं देखे जाते हैं। डॉ. उपाध्ये के अनुसार या तो उनका उन्मूलन हो गया या उन्होंने अपने आपको दिगम्बर सम्प्रदाय में मिला लिया। (5-6) समय के बीत जाने पर मुनि अनुशासन के प्रस्तावित मार्ग से विचलित हो गये; उन्होंने ऐसे आचरण प्रारम्भ कर दिये जिनका कोई शास्त्रीय आधार नहीं था। ऐसे मुनियों को भट्टारक कहा जाने लगा। ये भट्टारक इस हद तक पथभ्रष्ट हुए कि दिगम्बर परम्परा के द्वारा प्रस्तावित अनुशासन की पवित्रता संकट में पड़ गई। इसके परिणामस्वरूप सत्रहवीं शताब्दी में आगरा के पंडित बनारसीदास भट्टारकों की विकृत प्रवृत्तियों के विरोध में खड़े हुए और उन्होंने एक पंथ को प्रवर्तित किया जो तेरापंथ कहलाया। जो भट्टारकों के अनुयायी बने रहे वे बीसपंथी कहलाये।1 तेरापंथ और बीसपंथ नाम किस प्रकार प्रचलन में आये- यह एक उलझन भरा प्रश्न है। तेरापंथी भट्टारकों को अपना 38. दर्शनसार, पृष्ठ 45 39. दर्शनसार, पृष्ठ 38-39 40. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ 493 41. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ 493 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुम नहीं मानते हैं। दस पंश प्रवर्तन ने भालों की मालित प्रवृत्तियों पर मारक प्रहार किया। तेरापंथी और बीसपंथी दोनों ही मूर्तिपूजक दिगम्बर हैं। (7) सोलहवीं शताब्दी में तारण स्वामी+2 ने समइयापंथ की स्थापना की। इस पंथ के अनुयायी अमूर्तिपूजक दिगम्बर हैं और आगम के मूलपाठ को पूजते हैं। (8) अट्ठारहवीं शताब्दी में जयपुर के पंडित टोडरमल के पुत्र गुमानीराम ने आचरण की पवित्रता के महत्त्व पर जोर देने की दृष्टि से गुमानपंथ की स्थापना की। यहाँ यह बताया जा सकता है कि उपर्युक्त पंथ कटुतापूर्ण सामाजिक भेद उत्पन्न नहीं कर सके और इन पंथों के अनुयायी सद्भावपूर्ण रूप से रहते हैं। दिगम्बर संघ के इतिहास में इतने आंदोलनों के होते हुए भी संघ की एकता खतरे में नहीं डाली जा सकी। श्वेताम्बरों के पंथ अब हम श्वेताम्बरों के पंथों के बारे में विचार करेंगे। मूर्तिपूजक श्वेताम्बरों में यद्यपि बड़ी संख्या में गच्छों का उद्भव हुआ उन्होंने केवल अनुशासन के स्थूल भेदों को दर्शाया और कोई आधारभूत दार्शनिक भेद नहीं दिखाया। 84 गच्छों की पारम्परिक संख्या में से केवल कुछ ही ज्ञात हैं और उनमें से कुछ ही आज तक जीवित हैं। उदाहरणार्थ- खरतरगच्छ, तपागच्छ और अञ्चलिकागच्छ। वह पंथ जिसने श्वेताम्बर संघ के संगठन को गहराई से प्रभावित किया (वह) स्थानकवासी कहा जाता है। स्थानकवासी मूर्तिपूजा और मंदिरों की निन्दा करते हैं और तीर्थयात्रा में विश्वास नहीं करते। इस सम्प्रदाय के 42. History of Jaina Monachism, p. 448 43. History of Jaina Monachism, p. 448 44. History of Jaina Monachism, p. 440 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (13) For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सदैव मुहँपट्टी बांधते हैं, उनका श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों से मुनि जीवन के विस्तार में ज्यादा भेद नहीं है। 18वीं शताब्दी में एक नया सम्प्रदाय जो तेरापंथ नाम से जाना जाता है वह भीखनजी द्वारा आरंभ किया गया; जो स्थानकवासी सम्प्रदाय के ही एक साधु थे।45 यह सम्प्रदाय भी अमूर्तिपूजक है। तेरापंथी मुनि अपने ठहरने के लिए बनाये गये मकानों में नहीं रहते हैं जैसे- स्थानकवासी मुनि करते हैं, यद्यपि तेरापंथी हमेशा स्थानकवासियों की तरह मुहँपट्टी बाँधते हैं। यह सम्प्रदाय आचार्य तुलसी तथा आचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में फला-फूला। जैन आचारशास्त्र का उद्भव डॉ. उपाध्ये का कथन है, "हम न्यायोचितरूप से कल्पना कर सकते हैं कि गंगा और जमुना के उपजाऊ किनारों पर एक उच्चकोटि का समाज विद्यमान था और इसके अपने धार्मिक गुरु थे। वैदिक ग्रंथों में मगध देश को सदैव विरोध से देखा है जहाँ जैनधर्म और बुद्धधर्म फले-फूले और ये धर्म वैदिकों के प्रति कोई निष्ठा नहीं रखते हैं। अत: हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जैन आचारशास्त्र अपने उद्भव में मागधीय है।''46 45. भिक्षु विचार दर्शन, पृष्ठ 3 46. वृहत्कथाकोश, भूमिका, पृष्ठ 12 प्रवचनसार, पृष्ठ 12-13 (14) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय जैन आचार का तात्त्विक आधार तत्त्वमीमांसा पर आचार की निर्भरता जैनदर्शन के अनुसार आचार-सम्बन्धी चिन्तन तात्त्विक विचारविमर्श पर आश्रित होता है। हमारे आचरण और व्यवहार तात्त्विक पूर्वमान्यता पर निर्भर रहते हैं। एक निर्दोष तात्त्विक सिद्धान्त नैतिक चेतना के विकास के लिए प्रेरणा उत्पन्न करता है। समन्तभद्र का तर्क है कि यदि हम द्रव्य के स्वभाव की रचना में केवल नित्यता या क्षणिकता को स्वीकार करते है तो बंधन और मोक्ष, पुण्य और पाप, स्वर्ग और नरक, सुख और दुःख आदि अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। यह कथन तत्त्वमीमांसा पर आचार की निर्भरता को स्पष्टतया व्यक्त करता है। फिर, सब वस्तुओं का क्षणिक विघटन वित्तीय कार्य सम्पादन को, स्मृति को, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य आदि के सामान्य संबंधों को असंभव कर देता है। यह कथन बताता है कि आचार-सम्बन्धी समस्याएँ द्रव्य के स्वरूप के अधीन रहती हैं। इसलिए निम्न पृष्ठों में सर्वप्रथम, द्रव्य के सामान्य स्वभाव पर विचार करना प्रासंगिक है और द्वितीय, द्रव्य के ज्ञान और उसकी अभिव्यक्ति की विधि पर विचार करना उपयुक्त होगा, क्योंकि यह 1. आप्तमीमांसा, 40-41 युक्त्यनुशासन, 8-15 स्याद्वादमञ्जरी, 27 2. युक्त्यनुशासन, 16-17 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त . (15) For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे आचार-सम्बन्धी विचार-विमर्श से घनिष्ठ संबंध रखता है। तृतीय, द्रव्यों का संक्षिप्त परिचय दिया जायेगा और नैतिक आदर्श की अभिव्यक्तियों के विभिन्न प्रकार प्रस्तुत किए जायेंगे । द्रव्य का सामान्य स्वभाव 4 जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य वस्तुगत दृष्टि से अपने अन्तर्गत विरोधों को सम्मिलित करता है, केवल ऊपरी रीति से। जैनदर्शन इन विरोधों के लिए भाषा की अपर्याप्तता स्वीकार करता है। इसलिए द्रव्य सत् और. असत्,' एक और अनेक, ' नित्य और अनित्य' आदि विरोधों के रूप में विचारा गया है। जैनदर्शन का यह पक्ष उन दार्शनिकों को अस्त-व्यस्त कर देता है जो निरपेक्ष पद्धति से विचार करने के अभ्यस्त हैं । प्रागनुभविक तर्क (A priori logic) से प्रभावित होने के कारण वे दार्शनिक द्रव्य के जैन दृष्टिकोण को असंगत चित्रित करते हैं और इसलिए वे सर्वव्यापक नित्यवाद या सर्वव्यापक अनित्यवाद के निरपेक्ष सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। जैनदर्शन तात्त्विक समस्याओं के समाधान के लिए अनुभव (Experience) के साक्ष्य के आधार पर चलता है और इस तरह जैन दार्शनिकों की अनुभव पर आश्रित दृष्टि को लेकर सभी निरपेक्षवादियों से उनका मतभेद है। जैनदर्शन द्रव्य का ढाँचा अनुभव के आधार पर बनाता है और प्रागनुभविक तर्क के आकर्षण के द्वारा प्रभावित नहीं किया जाता है। दार्शनिक चिन्तन की निरपेक्ष पद्धति का गहरा विरोधी होने के कारण जैनदर्शन, जो कुछ अनुभव में दिया जाता है उसका मूल्याङ्कन करता है 3. युक्त्यनुशासन, 49 4. आप्तमीमांसा, 15 5. आप्तमीमांसा, 34 6. आप्तमीमांसा, 56 (16) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इसके फलस्वरूप वह अनित्यता और नित्यता का तात्त्विक रूप से समर्थन करता है । दोनों (अनित्यता और नित्यता) पृथक हो सकते हैं, किन्तु केवल तार्किक विचार के स्तर पर। द्रव्य की यह धारणा हमें ग्रीक दार्शनिक ‘पारमेनाइडीज' का स्मरण कराती है जिन्होंने नित्यता को द्रव्य का एकमात्र स्वभाव माना और अनित्यता को अस्वीकृत किया। उसी प्रकार यह धारणा हरोक्लेटस' की याद दिलाती है, जिसके लिए नित्यता एक भ्रम है और अनित्यता वास्तविक है। यह हमको बौद्ध दर्शन की प्रवाहशीलता और वेदान्त की नित्य परमसत्ता का भी स्मरण कराती है। लेकिन ये सभी अनुभव का एकान्तिक मूल्याङ्कन है। यह कहा जा सकता है, “यदि औपनिषदिक दार्शनिकों ने जगत में अपरिवर्तनीय सत्ता को पाया और बुद्ध ने सभी वस्तुओं को अनित्यरूप बताया, महावीर ने सामान्य अनुभव का अनुसरण किया और उन्होंने नित्यता और अनित्यता में कोई विरोध नहीं पाया और इस तरह वे सम्पूर्ण निरपेक्षवाद से मुक्त हो गये।" अनुभव' शब्द का अर्थ . जैन दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत 'अनुभव' शब्द के व्यापक अर्थ को यहाँ बताना असंगत नहीं होगा। 'अनुभव' शब्द के व्यापक अर्थ में पाँच प्रकार के ज्ञान सम्मिलित हैं, उदाहरणार्थ- मति (ऐन्द्रिक), श्रुत (आगमिक/शाब्दिक), अवधि (पौद्गलिक वस्तुओं का अन्तर्बोध या प्रत्यक्ष दृष्टि), मन:पर्यय (मानसिक पर्यायों का प्रत्यक्ष (अन्तर्बोधात्मक) ज्ञान) और केवल (पूर्णज्ञान या केवलज्ञान)। प्रथम दो परोक्ष ज्ञान के अन्तर्गत आते हैं, क्योंकि उनको अपनी उत्पत्ति के लिए बाहरी ज्ञानेन्द्रियों और मन की आवश्यकता होती है, अंतिम तीन प्रत्यक्ष ज्ञान के अन्तर्गत 7. Studies in Jaina Philosophy, P. 18 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (17) For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आते हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति ज्ञानेन्द्रियों और मन के बिना होती है। 'अनुभव' के अन्तर्गत प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान समाविष्ट होते हैं। इस प्रकार ऐन्द्रिक और बौद्धिक ज्ञान उतने ही अनुभव के भाग हैं जितना इन्द्रियातीत ज्ञान। इस प्रकार ऐन्द्रिक और बौद्धिक अनुभव' भी वास्तविक हैं, यद्यपि उनमें (इन्द्रियातीत) ज्ञान की विशुद्धता नहीं होती है। प्रत्यक्ष (अन्तर्बोधात्मक) अनुभव बौद्धिक अनुभव का विरोधी नहीं है, किन्तु केवल क्षेत्र, विस्तार और शुद्धता में बढ़कर होता है। द्रव्य की परिभाषा जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य वह है जो सत् (अस्तित्व) है या एकसमय में उत्पत्ति (उत्पाद), विनाश (व्यय), स्थायित्व (ध्रौव्य) से युक्त है या गुण और पर्याय का आधार है। प्रारंभ में द्रव्य की ये परिभाषाएँ एक दूसरे से भिन्न मालूम हो सकती हैं, लेकिन सच यह है कि इनमें से प्रत्येक परिभाषा शेष परिभाषाओं को अपने में सम्मिलित करती है, क्योंकि अनुभव के दृष्टिकोण से द्रव्य अपने में अनित्यता और नित्यता को समाविष्ट करता है।' नित्यता गुणों सहित द्रव्य की निरन्तरता को व्यक्त करती है और अनित्यता प्रवाहशील पर्यायों को बताती है।" उदाहरणार्थ- द्रव्य के रूप में स्वर्ण अपने गुण और पर्यायों के साथ अस्तित्ववान है। आभूषण बनाने के पश्चात् स्वर्ण द्रव्य के रूप में अपने गुणों सहित अस्तित्व में रहता है और जो कुछ परिवर्तन होता है वह पर्याय है। इस प्रकार सत् द्रव्य और गुण से स्वर्ण के साथ बंधा हुआ है 8. पञ्चास्तिकाय,10 प्रवचनसार, 2/3-4 तत्त्वार्थसूत्र, 2/29, 30, 38 9. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 10 10. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 10 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पर्यायें नये रूप में उत्पन्न होती हैं, पुरानी पर्याय नष्ट होती है और स्वर्ण उसीरूप में एक ही समय में निरन्तर बना रहता है। इस तरह से द्रव्य एक ही समय में क्रम से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के त्रयी से सम्पन्न रहता द्रव्य और गुण द्रव्य, सामान्य और विशेष (गुणों और पर्यायों) से भिन्न नहीं होता। गुण और पर्याय से रहित द्रव्य कपोल-कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। गुण अपने आप में एक क्षण के लिए भी विद्यमान नहीं हो सकते। वे (गुण) द्रव्य के समकालिक अस्तित्व को अवश्यंभावी मानते हैं और किसी भी पृथक् स्वरूप को स्वीकार नहीं करते हैं और वे स्वयं गुणरहित होते हैं।" द्रव्य का विचार एकीकृत और सुव्यवस्थित गुणों का विचार है।"12 द्रव्य और गुण अभिन्न और भिन्न दोनों हैं। उनकी अभिन्नता एक ही प्रदेश (स्थानिक विस्तार) में अस्तित्ववान होने के कारण उत्पन्न होती है और भिन्नता इस तथ्य के कारण उत्पन्न होती है कि द्रव्य गुण . नहीं होता है। द्रव्य गुण नहीं है, गुण द्रव्य नहीं है- यह कथन द्रव्य और गुण के भेद के स्वरूप को महत्त्व देने के लिए है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम द्रव्य का गुणों में पूर्णतया निषेध कर दें या गुणों का द्रव्य में पूर्णतया निषेध कर दें। इस प्रकार द्रव्य और गुण में संबंध अभेद-में-भेद का है। द्रव्य और गुण में भेद केवल नाम, संख्या, स्वरूप और प्रयोजन'4 की दृष्टि से है और वह भेद प्रदेशों (स्थानिक विस्तार) की अपेक्षा नहीं है। 11. तत्त्वार्थसूत्र, 5/41 12. Idea of God, P. 159 सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ 310 13. प्रवचनसार, 2/16 14. आप्तमीमांसा,72 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (19) For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "कहने का अभिप्राय यह है कि उनमें से एक भी दूसरे के बिना नहीं पाया जाता है। इन दोनों का संबंध समकालिकता का होता है। इनका संबंध 15 समय में पहले और पीछे का नहीं है। " " दूसरे शब्दों में, “द्रव्य और गुण मैं संबंध समकालिक अभेद, एकता, अपृथक्ता और सारभूत सरलता का है। द्रव्य और गुण में एकता संयोग का परिणाम नहीं है । ' 16 द्रव्य और पर्याय 17 पर्याय विशेषतया जैनदर्शन की ही परिकल्पना है ।" द्रव्य के स्वभाव · के अनुसार परिवर्तनशीलता (अनित्यता) में नित्यता रहती है। पर्याय एक वस्तु की परिवर्तनशीलता की ओर इंगित करती है जो बाह्य और अंतरंग कारणों से उत्पन्न होती है। द्रव्य और पर्याय में दो भिन्न वस्तुओं की तरह भेद नहीं किया जाना चाहिए और यह द्रव्य, गुणों के जरिये अपने परिवर्तनशील स्वभाव के कारण पर्यायी कहलाता है। द्रव्य और पर्याय न तो अभेदात्मक हैं और न ही भिन्न हैं, किन्तु उन दोनों में संबंध अभेद-में-भेद का है जो कि पूर्णतया जैनदर्शन के द्वारा समर्थित अनिरपेक्षवादी दृष्टिकोण से सामंजस्य रखता है। इस तरह से उत्पत्ति (उत्पाद) और विनाश (व्यय) पर्यायों पर लागू होता है और स्थायित्व (ध्रौव्य) द्रव्यसहित गुणों पर लागू होता है। कुन्दकुन्द के अनुसार कोई भी द्रव्य पर्याय के बिना नहीं होता और पर्याय बिना द्रव्य के नहीं होती है । 18 गुण और पर्याय द्रव्य के गुणों का सारभूत स्वभाव परिवर्तनशीलता के होते हुए 15. Epitome of Jainism, P. 24 16. Indian Philosophy, Vol. I., P.314 17. प्रवचनसार, प्रस्तावना, P. LXVI 18. पञ्चास्तिकाय, 12 (20) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी, द्रव्य शाश्वत है। इस प्रकार गुण का निरन्तर प्रवाहशील स्वभाव स्वयं गुण को नष्ट नहीं करता है जिसको यदि स्वीकार किया जाता है तो हम स्मरणशीलता को समझाने में असफल होंगे और परिणामस्वरूप यह हमारे प्रतिदिन के साधारण कार्यों के सम्पादन के विरुद्ध होगा। परिवर्तनशीलतारहित निरन्तरता हमारे अनुभव के स्पष्ट विरोध में होगी। अतः नित्यता परिवर्तन की अस्वीकृति नहीं है, किन्तु इसको अनिवार्य पहलू के रूप में सम्मिलित करती है। इस प्रकार पर्याय की अनुपस्थिति में गुणों पर विचार नहीं किया जा सकता है। गुण का पर्याय से भेद है। प्रथम, एक अखंड द्रव्य में अनन्त गुण सदैव एक समय में विद्यमान रहते हैं, किन्तु अनन्त पर्यायें एक समय में प्रकट नहीं होती है, किन्तु क्रम से प्रकट होती है। द्वितीय, गुण समानता के निर्णय को संभव बना देते हैं जब कि 'यह वह नहीं है' इस निर्णय को पर्यायों की ओर संकेत के द्वारा समझाया जा सकता है। तृतीय, गुणों की अपरिवर्तनीय रूप में व्याख्या की जा सकती है, जब कि पर्यायें परिवर्तनशील मानी गई हैं। दूसरे शब्दों में, एक द्रव्य के गुणों को निरन्तरता के स्वभाव से गौरवान्वित किया जा सकता है, जब कि उत्पादक और विनाशक पदनाम (Designation) पर्यायों के लिए दिए जाते हैं। द्रव्य और सत् द्रव्य के अनन्त गुणों में से अत्यधिक व्यापक गुण सत् है। द्रव्य अपने स्वभाव में सत्तावान है। द्रव्य असंदिग्ध है, स्वतः प्रमाण है, 19. सर्वार्थसिद्धि, 5/31 20. पञ्चाध्यायी, 1/8 तत्त्वार्थसूत्र, 5/29 प्रवचनसार, 2/6 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त · (21) For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए अनन्त काल से विद्यमान है। यह आत्मनिर्भर. और अपने आप में पूर्ण है। यह हमारी सीमित अवधारणाओं से नहीं नापा जा सकता है, क्योंकि इसमें अनन्त गुण हैं।22 यदि हम सत् को द्रव्य का सारभूत गुण नहीं मानें तो द्रव्य या तो अविद्यमान होगा या सत् से अलग हो जायेगा। पूर्ववर्ती बात (द्रव्य को अविद्यमान मानना) को स्वीकार करने पर द्रव्य पूर्णतया लुप्त हो जायेगा और परवर्ती बात (द्रव्य को सत् से अलग मानना) को स्वीकार करने पर सत् का आरोपण प्रयोजनरहित होगा, क्योंकि द्रव्य अपना सारभूत स्वभाव रखने की योग्यता सत् के अभाव में प्राप्त कर लेगा। इसलिए सत् का विनाश अनिवार्य परिणाम होगा। इसके अतिरिक्त वस्तुओं के सत्तात्मक स्वभाव की अस्वीकृति से हमें वस्तुओं की उत्पत्ति असत् से या दूसरे स्त्रोतों से जो श्रृंखला अन्तरहित होगी स्वीकार करनी होगी।24 इसलिए द्रव्य और सत् अग्नि और ताप की तरह अभेद्य रूप से संबंधित है। यद्यपि वे नाम, संख्या और स्वरूपादि में भिन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में उनमें अन्यत्व (भिन्नता) है और पृथक्त्व (वियोजन) नहीं है। द्रव्य और सत् प्रदेश (स्थानिक विस्तार) की अपेक्षा भिन्न नहीं हैं, जैसे, दो भिन्न-भिन्न वस्तुएँ प्रदेश की अपेक्षा भिन्न होती हैं। उनका प्रदेशभेद नहीं, किन्तु स्वरूपभेद है। सत् को द्रव्य के आधार की आवश्यकता है, वह दूसरे गुणों से रहित होता है, द्रव्य के अनन्त विशेषणों में से स्वयं एक विशेषण होता है, द्रव्य की 21. पञ्चाध्यायी, 1/8 प्रवचनसार, 2/6 22. पञ्चाध्यायी 1/8 23. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/13 24. पञ्चाध्यायी, 1/10, 11 25. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/14 (22) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना करता है और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वभाव का होता है। इसके विपरीत, द्रव्य किसी प्रकार के आधार से रहित होता है और दूसरे असीम गुणों के साथ होता है, अनगिनत अनुबंधों सहित एक संज्ञा होता है और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का विषय होता है। इस प्रकार यदि इन दोनों का संबंध प्रकट करने के लिए कोई उपयुक्त प्रत्यय अपेक्षित है तो वह है अभेद-में-भेद का संबंध। अभेद का संकेत प्रदेश की ओर है और भेद का संकेत स्वरूप की ओर है। द्रव्य और सत् का संबंध अद्वितीय, मौलिक और अनुत्पन्न है। प्रमाण, नय और स्याद्वाद जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य प्रमाण और नय से जाना जाता है।27 प्रमाण द्रव्य को समग्रता से जानने की ओर संकेत करता है जब कि नय प्रमाण के द्वारा प्रकाशित अनन्त पक्षवाले द्रव्य के एक पक्ष को इंगित करता है। इस प्रकार नय समग्रता के केवल एक पक्ष पर ही विचार करता है। एक वस्तु अपने आप को अनन्त गुणों से अलंकृत करती है। किसी एक पर बल देना और दूसरे को निरस्त कर देना हमें पक्षपातपूर्ण आकलन और द्रव्य की एकान्तिक दृष्टि की ओर ले जाता है।30 : प्रमाण बिना किसी एक और दूसरे गुण के विरोध के सभी गुणों को एक साथ सम्मिलित करता है, उदाहरणार्थ- एक और अनेक, सत् और असत् आदि। द्रव्य के अथाह गुणों में से नय एक समय में एक को 26. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/14 27. तत्त्वार्थसूत्र, 1/6 28. सर्वार्थसिद्धि, 1/6 ... राजवार्तिक 1/6/33 29. स्याद्वादमञ्जरी, 22 30. स्याद्वादमञ्जरी, 27 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त . (23) For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही चुनता है, लेकिन दूसरे गुणों को भी दृष्टि में रखता है। हम यहाँ बता सकते हैं कि यद्यपि असंख्य गुणों के अनुरूप असंख्य नय हैं जिनको यदि जोड़ा जाय तो वे हमें प्रमाण के द्वारा दिये हुए ज्ञान को प्रदान करने में असमर्थ रहेंगे। दूसरे शब्दों में, सभी नयों का जोड़ प्रमाण के प्रत्यय को समझाने के लिए अपर्याप्त है। इसलिए यह स्वीकार किया गया है कि प्रमाण के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त है वह मानवीय मस्तिष्क का स्वतंत्र कार्य है। इसलिए हम कह सकते हैं कि द्रव्य के स्वभाव को उचितरूप से समझने के लिए प्रमाण और नय दोनों ही आवश्यक हैं। द्रव्य अनन्त गुणों की खान है, विशेष दृष्टिकोण से जानने के लिए नयात्मक ज्ञान विषयगत (Objective) रूप में दिया गया है और आत्मगतरूप (Subjective) सें नहीं दिया गया है। यह बहुपक्षवाले सम्पूर्ण द्रव्य को समाप्त नहीं करता है। चूंकि द्रव्य का ज्ञान एक विशेष नय के प्रयोग द्वारा समाप्त नहीं हो जाता है, इसलिए प्रत्येक कथन के पूर्व 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिये जिससे हम दूसरे वैकल्पिक कथनों की संभावना से अवगत हो सकें। यह प्रयोग स्याद्वाद सिद्धान्त जाना जाता है। स्याद्वाद निःसन्देह अनेकान्तवाद का तार्किक परिणाम है। यह कथन की या सम्प्रेषण की केवल एक विधि है, जो द्रव्य के बहुपक्षवाले ज्ञान को सम्प्रेषित करने के लिए जैन दार्शनिकों द्वारा सोची गयी है। इस प्रकार स्यावाद अभिव्यक्ति की विधि है, अनेकान्तवाद या नयवाद ज्ञान की विधि है। स्याद्वाद अनेकान्तवाद की भाषा में अभिव्यक्ति है। ए. एन. उपाध्ये ने स्याद्वाद और नयवाद के संबंध को बताने के लिए इस प्रकार कहा है, "स्याद्वाद नयवाद का परिणाम है, नयवाद विश्लेषणात्मक और विशेषरूप से वैचारिक है और स्याद्वाद संश्लेषात्मक (24) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और मुख्यतया शाब्दिक है। नय सिद्धान्त के बिना स्यावाद निश्चितरूप से पंगु होगा। स्याद्वाद के बिना नय सिद्धान्त भी व्यावहारिक मूल्य का नहीं होगा। स्याद्वाद कथन-प्रक्रिया की दिशा में व्यक्तिगत नयों की निरपेक्ष दृष्टियों को नियन्त्रित और सन्तुलित करता है।''31 जैन दार्शनिक समग्रता के एक पक्ष को भी पूर्णतया समझने के लिए या इसके साथ पूर्ण न्याय करने के लिए सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं कि केवल सात (न अधिक न कम) प्रकार के निर्णय आवश्यक हैं। इसलिए यह सिद्धान्त सप्तभंगीवाद के नाम से जाना जाता है।2 द्रव्य का वर्गीकरण जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव। अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं- पुद्गल (भौतिक पदार्थ), धर्म (गति का सिद्धान्त), अधर्म (स्थिति का सिद्धान्त), आकाश (स्थान) और काल (समय)। अत: जैनदर्शन द्वैतवादी तथा अनेकत्ववादी है, किन्तु यदि वस्तुगत दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो अनेकता एकता के साथ भी बंधी हुई है। कुन्दकुन्द के अनुसार विभिन्न द्रव्य अद्वितीय गुणों से सम्पन्न हैं तो भी सत् सभी गुणों को समाविष्ट करनेवाला माना गया है, जो • समस्त भेदों को समाप्त कर देता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार सभी द्रव्य, द्रव्य के दृष्टिकोण से एक हैं जब कि वे अपने गुणात्मक भेदों से भिन्न और पृथक् हैं। समन्तभद्र भी यह कहते हुए समर्थन करते हैं कि एक सर्वव्यापक सत् की धारणा के दृष्टिकोण से सभी द्रव्य एक हैं, किन्तु 31. प्रवचनसार, प्रस्तावना, LXXXV 32. सप्तभंगीतरंगिणी, पृष्ठ 8 33. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका 2/5 . 34. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 236 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (25) For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यों के दृष्टिकोण से भेद उत्पन्न होते हैं। पद्मप्रभमलधारीदेव घोषणा करते हैं कि महासत्ता सभी वस्तुओं में पूर्णरूप से व्याप्त है, लेकिन वह सदैव अवान्तरसत्ता के साथ संबंधित रहती है जो केवल विशेष वस्तुओं में ही व्याप्त रहती है। उसीप्रकार अमृतचन्द्र दो प्रकार की सत्ता का उल्लेख करते हैं - स्वरूपसत्ता और सादृश्यसत्ता। सादृश्यसत्ता सामान्यसत्ता के समान है।” विमलदास ने 'सप्तभंगीतरंगिणी' में सत् की एकता व अनेकता की समस्या पर विस्तार से विचार किया है और वे इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि सत्तात्मक अभेद की अभिधारणा और भेदों का स्पष्ट कथन दोनों ही विभिन्न द्रव्यों के दृष्टिकोण से न्यायसंगत हैं। इस प्रकार जैनदर्शन सत्तात्मक एकत्व को स्वीकार करने में विश्वास करता है, किन्तु मात्र एकत्व ही नहीं है, क्योंकि यह सदैव अनेकत्व के साथ बंधा रहता है। इस प्रकार महासत्ता अपनी अवान्तरसत्ता के साथ संबंधित होगी। यह महासत्ता कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है, किन्तु सदैव विपरीत के साथ रहती है। कुन्दकुन्द उल्लेख करते हैं कि सत् का स्वभाव एक है; विश्व की रचना करनेवाले सब द्रव्यों में व्याप्त है; सम्पूर्ण विश्व को सम्मिलित और संक्षिप्त करता है; अनन्त पर्यायोंवाला होता है; उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के त्रयी गुणों को बताता है; अंत में उपर्युक्त बताये हुए विपरीत गुणों से संबंधित होता है। अतः द्रव्यों के वर्गीकरण में एकता, द्वैतता और अनेकता- ये सभी अनिवार्य रूप से सम्मिलित हैं। 35. आप्तमीमांसा, 34 36. नियमसार, पद्मप्रभमलधारीदेव की टीका, 34 37. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका 2/3/5 38. सप्तभंगीतरंगिणी,पृष्ठ 78 39. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 8 40. पञ्चाध्यायी, 1/15 41. पञ्चास्तिकाय, 8 (26) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिकवाद और आत्मवाद दो अतियाँ जीव और पुद्गल को द्रव्यों के रूप में स्वीकार करने से जैनदर्शन भौतिकवाद और आत्मवाद की दो अतियों को निरस्त कर देता है, जो मूलत: एक दूसरे के विरुद्ध हैं। भौतिकवाद विचार करता है कि विश्व की जड़ में पुद्गल है, जब कि आत्मवाद विचार करता है कि मन या आत्मा आधारभूत और प्रमुख है। भौतिकवाद पुद्गल की वास्तविकता की मान्यता पर बल देता है और आत्मा को एक घटना या संलग्न वस्तु विचारता है। आत्मवाद निश्चयपूर्वक कहता है कि मन या आत्मा को वास्तविक गिना जाना चाहिए, पुद्गल केवल एक आभास है। किन्तु जैनदर्शन के अनुसार पुद्गल और आत्मा समान रूप से सत्य है और इनमें से एक को न्यायसंगत उसी समय माना जायेगा जब अनुभव को उसके महत्त्व से वंचित कर दिया जाय। द्रव्यों का सामान्य स्वभाव छह द्रव्य परस्पर में अन्तर्व्याप्त होते हुए भी वे कभी भी मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते। यह कथन इस तथ्य का संकेत करता है कि ये द्रव्य अपनी निश्चित संख्या, जो छह है, उसका अतिक्रमण करने में असमर्थ है, इसलिए उनका घटना और बढ़ना असंभव है।43 एकमात्र काल द्रव्य के अपवादसहित, शेष पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय कहलाते हैं। उसका कारण है कि उनके कई प्रदेश होते हैं। 'काय' शब्द केवल बहुत 42. पञ्चास्तिकाय, 7 43. सर्वार्थसिद्धि, 5/4 44. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 22 पञ्चास्तिकाय, 102 प्रवचनसार, 2/43 Niyamasāra, 34 · The space occupied by one atom is called a Pradeśa. Ethical Doctrines in Jainism off # 3 Taksite falan (27) For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशों की ओर संकेत करने के लिए समझा जाना चाहिये। जीव, धर्म और अधर्म के अपने असंख्य प्रदेश होते हैं; आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं; काल का एक प्रदेश होता है; किन्तु पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। पुद्गल द्रव्य के सिवाय सभी द्रव्य भौतिक गुण- स्पर्श, रस, गंध और वर्ण से रहित माने गये हैं और केवल जीव के ही चेतनागुण कहा गया है। अत: धर्म, अधर्म, आकाश और काल - चेतनागुण और भौतिक गुण दोनों से रहित हैं। उनको पुद्गल की श्रेणी के अन्तर्गत नहीं समझा जाना चाहिये, लेकिन वे अचेतनता और अभौतिकता की भिन्न कोटि में आते हैं। उनमें से धर्म, अधर्म और आकाश प्रत्येक को संख्या में एक माना गया है जब कि जीव और पुद्गल अनन्त हैं काल .. असंख्यात हैं। इसके अतिरिक्त धर्म, अधर्म, आकाश और काल स्वभाव से निष्क्रिय हैं और शेष दो द्रव्य क्रियाशील हैं।48 पुद्गल का स्वभाव और कार्य __जैनदर्शन पुद्गल को यथार्थवादी अर्थ में प्रतिपादित करता है और इसलिए इसका ज्ञान विशिष्ट इन्द्रिय गुणों-स्पर्श, रस, गंध और वर्ण पर आधारित है, इसमें एक गुण पृथक् रूप से कभी नहीं पाया जाता, किन्तु हमेशा चार के समूह में पाया जाता है यद्यपि प्रगाढ़ता की 45. सर्वार्थसिद्धि, 5/1 46. द्रव्यसंग्रह, 25 तत्त्वार्थसूत्र, 5/8,9,10 Niyamasāra, 35,36 47. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 587 तत्त्वार्थसूत्र, 5/6 48. सर्वार्थसिद्धि, 5/7 पञ्चास्तिकाय, 98 Ethical Doctrines in Jainis For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तनशील मात्राएँ होती हैं। जैनदर्शन के द्वारा प्रतिपादित पुद्गल की धारणा इतनी व्यापक है कि वह वैशेषिकों द्वारा स्वीकृत नौ द्रव्यों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन) में से पाँच द्रव्यों-पृथ्वी, जल, वायु, तेज (अग्नि) और द्रव्य-मन को अपने अन्तर्गत सम्मिलित करता है। पाँच द्रव्य आसानी से पुद्गल में समाविष्ट हो जाते हैं, क्योंकि ये पुद्गल परमाणुओं के भिन्न-भिन्न संयोगों से उत्पन्न होते हैं। परमाणुओं के चार गुण, संख्यात, असंख्यात और अनन्त वर्गों को स्वीकार करते हैं, लेकिन मुख्य प्रकार बीस माने जाते हैं। आठ प्रकार का स्पर्श- कोमल, कठोर, भारी, हल्का, ठंडा, गरम, स्निग्ध और रूक्ष, पाँच प्रकार का रस- कड़वा, कसैला, खट्टा, मीठा और चरपरा, दो प्रकार की गंध- सुगंध और दुर्गन्ध पाँच प्रकार का वर्ण-नीला, पीला, सफेद, काला और लाल। पुद्गल के कार्य हैं- पाँच प्रकार के शरीर, वचन, मन, कर्म परमाणु, श्वासोच्छ्वास (श्वास लेना और श्वास छोड़ना), सुख और दुःख, जीवन और मरण तथा पाँच प्रकार की इन्द्रियाँ। 49. तत्त्वार्थसूत्र, 5/23 ___ सर्वार्थसिद्धि, 5/5 50. सर्वार्थसिद्धि, 5/3 51. सर्वार्थसिद्धि, 5/23 -52. सर्वार्थसिद्धि, 5/23 53. सर्वार्थसिद्धि, 5/23 54. सर्वार्थसिद्धि, 5/3 55. तत्त्वार्थसूत्र, 2/36 ____ शरीर पाँच प्रकार के हैं- औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण। 56. पञ्चास्तिकाय, 82 . सर्वार्थसिद्धि, 5/19, 20 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (29) For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल के प्रकार पुद्गल दो प्रकार के हैं- अणु (परमाणु) और स्कन्धा' परमाणुओं के दो से लेकर अनन्त तक का संचय स्कन्ध में सम्मिलित हैं। अणु केवल एक प्रदेशी होता है; यह पुद्गल के विभाजन का अंत है; यह अपने आप में आदि, मध्य और अंत से रहित होता है; यह ध्वनिरहित होता है और रस, स्पर्श, गंध और वर्ण के गुणों से जुड़ा हुआ होता है।" इसके अतिरिक्त, यह अविनाशी और शाश्वत है। यह उनका (स्कन्धों का) आधारभूत कारण भी होता है और यह समय का माप भी है। फिर, यह ध्वनिरहित होता है, किन्तु ध्वनि का कारण होता है जब परमाणुओं का जोड़ दूसरे जोड़ों के साथ टकराता है तो ध्वनि पैदा होती है। कोई एक वर्ण, कोई एक रस, कोई एक गंध, किन्तु स्पर्श का जोड़ा, जो आपस में विरोधी नहीं है अर्थात् शीत और स्निग्ध या शीत और रूक्ष या उष्ण और स्निग्ध या उष्ण और रूक्ष का जोड़ा। 2 शेष स्पर्श अर्थात् कोमल और कठोर, हल्का और भारी केवल स्कन्ध अवस्था में ही प्रकट होते हैं और इस प्रकार वे परमाणु अवस्था में उपस्थित नहीं होते हैं। स्निग्धता और रूक्षता के गुण प्रगाढ़ता की मात्रा में न्यूनाधिक होते हैं। इस प्रकार वे गुण निम्नतम सीमा से उच्चतम सीमा 57. तत्त्वार्थसूत्र, 5/25 Niyamasāra, 20 58. सर्वार्थसिद्धि, 5/26 59. पञ्चास्तिकाय,77 60. पञ्चास्तिकाय, 80 61. पञ्चास्तिकाय, 78, 79, 81 62. Niyamasāra, 27 पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 81 (30) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक और एक बिन्दु से अनन्त तक विस्तार को प्राप्त होते हैं। स्निग्धता के दृष्टिकोण से बकरी, गाय, भैंस और ऊँटनी के दूध में प्रगाढ़ता की मात्रा का परिवर्तन साधारणतया देखा जा सकता है और रूक्षता के दृष्टिकोण से धूलि (पांसु), धूल का जर्रा (कणिका), रेत (शर्करा) में भी प्रगाढ़ता की मात्रा का परिवर्तन देखा जा सकता है। अत: परमाणुओं के इन दो गुणों में अनन्त परिवर्तनशीलता के साथ उनका अस्तित्व हो सकता है। परमाणुओं को आपस में जोड़ने के लिए ये उत्तरदायी हैं।65 यद्यपि जैनदर्शन के अनुसार परमाणु सक्रिय है, किन्तु सक्रियता संयोग का कारण नहीं है। वे परमाणु जो स्निग्धता और रूक्षता की निम्नतम श्रेणी में हैं, (वे) एक दूसरे के साथ या दूसरी प्रगाढ़ताओं के साथ संयोजित नहीं होते हैं। इसके अतिरिक्त, जो परमाणु स्निग्धता और रूक्षता में तुल्य मात्रावाले होते हैं वे भी एक दूसरे के साथ संयोग को प्राप्त नहीं होते हैं। किन्तु वे परमाणु जो स्निग्धता और रूक्षता की मात्रा में दो अंश ज्यादा होते हैं, वे आपस में जुड़ जाते हैं अर्थात् परमाणु जो स्निग्धता और रूक्षता की दो मात्रावाले हैं उनका संबंध चारमात्रा वाले परमाणुओं से हो जायेगा। इसी प्रकार दूसरे संयोगों के लिए भी ये नियम लागू होगा। इसके अतिरिक्त परमाणु जिनमें स्निग्धता और रूक्षता की चार मात्रा होती है वे दो मात्रावाले स्निग्धता और रूक्षता के परमाणुओं को अपने प्रकृति में रूपान्तरित 63. सर्वार्थसिद्धि, 5/33 64. सर्वार्थसिद्धि, 5/33 65. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 608 66. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 98 67. सर्वार्थसिद्धि, 5/34 68. सर्वार्थसिद्धि, 5/35 - 69. सर्वार्थसिद्धि,5/36 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त ... (31) For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने में समर्थ होते हैं। इसी प्रकार यह बात उन सब परमाणुओं के लिए लागू होती है जिनमें स्निग्धता या रूक्षता की दो मात्रा का अन्तर है। यह सिद्धान्त परमाणुओं के मात्र संयोग को निरस्त करता है लेकिन उनका संश्लेषात्मक एकत्व प्रतिपादित करता है। अब हम स्कन्धों की धारणा को समझने की ओर अग्रसर होते हैं। परमाणुओं का संयोग छह विभिन्न रूपों में होता है, अर्थात्- (1) स्थूल-स्थूल, (2) स्थूल, (3) स्थूल-सूक्ष्म, (4) सूक्ष्म-स्थूल, (5) सूक्ष्म, और (6) सूक्ष्म-सूक्ष्म।2 (1) पुद्गल का वह वर्ग, जो विच्छिन्नता को प्राप्त होता है और अपनी मूल अवस्था को बिना किसी बाहरी सहयोग के प्राप्त नहीं कर सकता, (वह) स्थूल-स्थूल कहलाता है, उदाहरणार्थ- लकड़ी, पत्थर आदि। (2) जो विच्छिन्न किए जाने पर बिना किसी तीसरे के हस्तक्षेप के एक हो सकते हैं वे स्थूल कहलाते हैं, उदाहरणार्थ- जल, तेल आदि। (3) जो विच्छिन्न नहीं हो सकते और पकड़े नहीं जा सकते हैं वे स्थूल-सूक्ष्म के अन्तर्गत आते हैं, उदाहरणार्थ- छाया, धूप आदि। (4) स्पर्श, रस, गंध और शब्द के विषय सूक्ष्म-स्थूल कहलाते हैं। (5) कर्म वर्गणा आदि जो इन्द्रियों से अगोचर हैं वे सूक्ष्म कहलाते हैं। (6) दो परमाणुओं के जोड़ और कार्माण वर्गणा से छोटे स्कन्ध सूक्ष्म-सूक्ष्म की श्रेणी में आते हैं। जैसा हम पहले कह चुके हैं कि ध्वनि की उत्पत्ति स्कन्धों के आपसी टकराव से पैदा होती है। अब हम गति के स्वभाव पर प्रकाश डालेंगे। जैनदर्शन गति की वास्तविकता को स्वीकार करता है। वह पर्याय के रूप में समझी जा 70. सर्वार्थसिद्धि, 5/37 71. सर्वार्थसिद्धि,5/37 72. Niyamasara, 21-24 (32) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकती है। यह अंतरंग और बाह्य प्रेरणाओं से उत्पन्न होती है जिनके कारण आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश को पार करना संभव होता है। इस अर्थ में धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य निष्क्रिय है और गतिरहित हैं, लेकिन जीव और पुद्गल गतिसहित कहे गये हैं अर्थात् ये दो द्रव्य ही क्रियाशील होने में समर्थ होते हैं। सक्रियता कोई भिन्न और स्वतंत्र कोटि नहीं है, लेकिन बाह्य और अंतरंग कारणों से उत्पन्न दो द्रव्यों की विशेष पर्याय है। जीव की सक्रियता कर्मों के बाह्य कारण की अपेक्षा रखती है। इस प्रकार सिद्ध, जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं (वे) कर्मों की अनुपस्थिति के कारण निष्क्रिय हैं। पुद्गल की सक्रियता काल की उपस्थिति के कारण होती है। यह शाश्वत रहेगी, क्योंकि काल किसी भी समय कभी भी अनुपस्थित नहीं रह सकता। इस प्रकार पुद्गल निष्क्रिय नहीं हो सकता। आकाश आकाश का वह विस्तार जो पुद्गलों व जीवों से, काल से, गति के सिद्धान्त और स्थिति के सिद्धान्त से, (वह) लोकाकाश (विश्वआकाश) जाना जाता है। इसका अलोकाकाश (खालीआकाश) · से भेद है जहाँ कोई भी पाँच द्रव्य नहीं रहते हैं। इस प्रकार लोकाकाश 73. सर्वार्थसिद्धि, 5/7 .. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 98 74. सर्वार्थसिद्धि, 5/7 75. राजवार्तिक, 2/5/7, 4 76. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 98 राजवार्तिक, 2/5/7, 14-16 77. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 98 78. द्रव्यसंग्रह, 20 सर्वार्थसिद्धि, 5/12 पञ्चास्तिकाय, 90, 91 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (33) For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव, पुद्गल और शेष द्रव्यों को स्थान प्रदान करने में समर्थ होता है। वह आकाश अपने स्वयं का आधार और सहारा है और इसको स्थान देने के लिए किसी दूसरे द्रव्य की आवश्यकता नहीं होती। यह बात इस तथ्य से स्पष्ट हो जाती है कि ऐसा कोई द्रव्य इससे ज्यादा विस्तारवाला नहीं है, जो इसको स्थान दे सके। यदि यह स्वीकार भी कर लिया जाय, तो यह निर्विवाद रूप से हमको अनवस्था दोष की ओर ले जायेगा।" इसके अतिरिक्त यह जानना अत्यावश्यक है कि यदि वस्तु-के-अपनेस्वभाव (Thing-in-itself) के दृष्टिकोण से विचारा जाय तो सभी द्रव्य अपने आप में रहते हैं। यह व्यावहारिक दृष्टिकोण से कहा जाता है कि सभी द्रव्य आकाश में रहते हैं। गति और स्थिति के सिद्धान्त तिल में तेल की व्याप्ति के समान सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त होते हैं। लोकाकाश में धर्म और अधर्म की सर्वव्यापिता होते हुए भी और उसमें जीव, पुद्गल और काल का अस्तित्व होते हुए भी वे अपने निजी विशेष स्वभाव से कभी भी वंचित नहीं होते हैं।82 धर्म और अधर्म धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति में क्रमश: उदासीन निमित्त हैं। धर्मास्तिकाय स्थानान्तरण नहीं कर सकता और दूसरी वस्तुओं में गति उत्पन्न नहीं कर सकता, लेकिन जीव और पुद्गल की गति के लिए केवल उसकी विद्यमानता ही अनिवार्य शर्त होती है, जैसे जल मछली की स्वाभाविक गति में केवल अपनी विद्यमानता से ही सहायक होता है 79. राजवार्तिक, 2/5/12, 2-4 80. राजवार्तिक, 5/12/5 से 6 81. सर्वार्थसिद्धि, 5/13 82. राजवार्तिक, 2/5/16, 10 Ethical Doctrines in Jainisn For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वह हवा की तरह नहीं होता जो दूसरी वस्तुओं में क्रियाशीलता उत्पन्न कर देती है। उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय गतिमान जीव और पुद्गलों को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता है, किन्तु उदासीन निमित्त हो जाता है, जब वे अपने आप अपनी गति को रोक देते हैं, जैसे वृक्ष की छाया एक राहगीर को इसके नीचे विश्राम करने के लिए प्रेरित नहीं करती है।4 इस प्रकार न तो धर्मास्तिकाय गति उत्पन्न करता है, न ही अधर्मास्तिकाय उसको (गति को) रोकता है। दोनों निष्क्रिय निमित्त हैं। इसके अतिरिक्त ये दोनों सिद्धान्त लोकाकाश और अलोकाकाश की सीमा के विभाजन के लिए भी उत्तरदायी हैं, क्योंकि ये जीव और पुद्गल का केवल लोकाकाश में ही अस्तित्व संभव बनाते हैं। इसके अतिरिक्त लोक के शिखर पर सिद्धों का निवास इस बात को भी सिद्ध करता है कि आकाश गति और स्थिति के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता है और इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्यों के पृथक् सिद्धान्तों की मान्यता को स्वीकार किया जाना आवश्यक है।66 काल . हमने जैनदर्शन की इस मान्यता का बार-बार उल्लेख किया है कि · द्रव्य सतत परिवर्तनशील होते हुए भी अपने एकरूप स्वभाव को बनाए रखता है। प्रत्येक द्रव्य बिना अपवाद के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से गौरवान्वित होता है। धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य, सिद्धात्मा और पुद्गल के एक परमाणु में गुण लगातार अपने आप में परिवर्तित हो रहे हैं। 83. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 85, 88 84. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 86 85. पञ्चास्तिकाय, 87. 86. पञ्चास्तिकाय, 92, 93 अमृतचन्द्र की टीका 87. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/1 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (35) For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांसारिक जीवों में और स्थूल पुद्गल में परिवर्तन का अनुभव सर्वव्यापी है और इसको समझाया जाना आवश्यक है और इसे केवल माया (भ्रम) के रूप में निन्दित नहीं किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण से जैन दार्शनिकों ने यथार्थ रूप से काल को अस्तित्ववाचक प्रतिष्ठा प्रदान की है और अनुभवात्मक परिवर्तन को समझाने के लिए वे इसको द्रव्य कहते हैं, जैसे गति, स्थिति और अवगाहन पर प्रकाश डालने के लिए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य सुविचारित हैं,89 जैसे आकाश अपना स्वयं का आधार है उसी प्रकार परमार्थ काल अपने परिवर्तन में स्वयं सहयोगी होता है। साथ ही विश्व की रचना करनेवाले दूसरे द्रव्यों में परिवर्तन का निमित्त माना गया है। काल का परमार्थ काल और व्यवहार काल में वर्गीकरण किया जा सकता है। परमार्थ काल द्रव्य है और समय आदि व्यवहार काल के भेद हैं।2 परमार्थ काल का कार्य वर्तना है अर्थात् यह स्वतः परिवर्तित होनेवाले द्रव्यों में उदासीन रूप से परिवर्तन में सहयोगी होता है और व्यवहार काल का कार्य वस्तुओं में परिवर्तन, गति और अपने आप को युवा और वृद्ध समझने का भाव है। जैसा पहले बताया जा चुका है कि काल द्रव्य 'काय' से रहित होता है, क्योंकि इसके केवल कालाणु के रूप में एक ही प्रदेश होता है। ये कालाणु असंख्य होते हैं और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक दूसरे से मिश्रित हुए बिना अलग-अलग स्थित होते हैं। व्यवहार काल 88. Niyamasāra, 33 89. Niyamasāra, 30 90. सर्वार्थसिद्धि, 5/22 91. तत्त्वार्थसूत्र, 5/39 92. Niyamasāra, 31 93. सर्वार्थसिद्धि, 5/22 94. द्रव्यसंग्रह, 22 Niyamasāra, 32 (36) Ethical Doctrines in Jainism fteref Å BERRIRA RAGAT For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की इकाई 'समय' कही जाती है जो इस प्रकार परिभाषित की जा सकती है- पुद्गल के एक परमाणु द्वारा आकाश के एक प्रदेश से निकटस्थ दूसरे प्रदेश में धीमी गति से जाने के लिए जो अवधि आवश्यक होती है उसको 'समय' कहा जाता है। यह जीवन में व्यावहारिक रूप से अचिन्त्य होता है। यह ध्यान रखना चाहिये कि असंख्य समय एक आँख की पलक खोलने में बीत जाते हैं। जीव (आत्मा) का सामान्य स्वभाव दर्शन के क्षेत्र में जीव की समस्या अत्यधिक आधारभूत समस्या है। दार्शनिक चिन्तन के उषाकाल से लेकर आज तक महान दार्शनिकों को इसने व्याकुल किया है और उनके द्वारा समर्थित तात्त्विक दृष्टिकोण के अनुसार इसकी विभिन्न धारणाओं को उन्होंने प्रतिपादित किया है। जैनदर्शन के लिए यद्यपि आत्मा के स्वभाव पर गहराई से विचारना कोई नया साहस नहीं है, फिर भी जैन दृष्टिकोण का प्रमुख बिन्दु है- बिना उच्चतम रहस्यात्मक ऊँचाइयों (Mystical heights) को अनदेखी किये और बिना सामान्य अनुभव को मात्र माया (भ्रम) के रूप में निन्दा किये आत्मा की धारणा को स्थापित करना। आत्मा तात्त्विक रूप से अनुत्पन्न तथ्य है; वह छह द्रव्यों में से एक द्रव्य है और स्वतन्त्र रूप से स्थित है। ज्ञान, भाव"और क्रिया का अनुभव आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार आत्मा सब द्रव्यों में उच्चतम महत्त्व रखता है और सब तत्त्वों में उच्चतम मूल्यवाला है। यह श्रेष्ठ गुणों 95. प्रवचनसार, 2/47 96. Ācārānga- Sūtra 1.5.5, P. 50 97. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 183 98. कार्तिकेयानुप्रेक्षा,184 99. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 204 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (37) For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की खान है।100 यह आन्तरिक द्रव्य है। इसका दूसरे द्रव्यों से भेद किया जाता है, जो केवल बाह्य है, क्योंकि वे वस्तुओं को त्यागने और ग्रहण करने के ज्ञान से रहित होते हैं।101 कुन्दकुन्द प्रवचनसार में इसको महार्थ (महान वास्तविकता) कहते हैं।102 न तो यह अपरिवर्तनीय तत्त्व है जो वेदान्त, सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक द्वारा समर्थित है, न ही यह मनोभावों की परिवर्तनशील शृंखला है जैसा कि बौद्धों द्वारा स्वीकार किया गया है, किन्तु जैनदर्शन के अनुसार यह नित्यता और परिवर्तन का संश्लेषण है। उसके अनुसार चेतना इसका स्वरूपगत और भेदमूलक गुण है। इसलिए जैनदर्शन का न्याय-वैशेषिक और पूर्वमीमांसा से भेद है, जो चेतना को आगन्तुक गुण मानते हैं और चार्वाक दर्शन से भी भेद है, जो चेतना को भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न मानता है, जैसे, कुछ संघटकों के मिलने से मदोन्मत्त करनेवाली शक्ति उत्पन्न हो जाती है। सांख्य-योग और शंकर तथा रामानुज का वेदान्त दर्शन जैनदर्शन से इस बात में समानता रखता है कि चेतना स्वरूपगत रूप से आत्मा से संबंधित है। ___ जैनदर्शन के ग्रंथों में आत्मा की धारणा विभिन्न प्रकार से प्रतिपादित है। इनको हम दो दृष्टियों में व्यक्त कर सकते हैं। प्रथम, मुक्तात्मा (निश्चय) का दृष्टिकोण है जो आत्मा की शुद्ध अवस्था को बताता है और द्वितीय, संसारी आत्मा (व्यवहार) का दृष्टिकोण है जो आत्मा की अशुद्ध अवस्था का वर्णन करता है। यहाँ हम आत्मा का संसारी दृष्टिकोण से विचार करेंगे और मुक्तात्मा के दृष्टिकोण से विचार इसके पश्चात् करेंगे। 100. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 204 101. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 205 102. प्रवचनसार, 2/100 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीव (आत्मा) का स्वभाव प्रथम, संसारी जीव (आत्मा) आवागमन के चक्र में अनादिकाल से चला आ रहा है। इस कारण कहा जाता है कि जीव उत्पन्न होता है और उसका परिवर्तन भी होता है। किन्तु यह पर्यायार्थिक दृष्टिकोण से ही युक्तियुक्त है और द्रव्यार्थिक दृष्टिकोण से नहीं, जो आत्मा की अनश्वरता और अनुत्पन्नता को दर्शाता है।103 द्वितीय, यह आत्मा सारे शरीर में व्याप्त होकर इसको प्रकाशित करता है, जैसे पद्मराग मणिरत्न दूध के प्याले को पूरा प्रकाशित कर देता है।104 तृतीय, जैनदर्शन के द्वारा संसारी जीव शुभ और अशुभ क्रियाओं का कर्ता माना गया है। चतुर्थ, यह भोक्ता भी है। संक्षेप में, संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधा हुआ है और स्वयं के द्वारा किये हुए शुभ और अशुभ क्रियाओं का भोक्ता है, ज्ञाता-दृष्टा है और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के त्रयी स्वभाव से संबंधित है। इसके अतिरिक्त यह संकोच विस्तार के गुणवाला होता है; यह शरीर की सीमा तक फैलता है; यह ज्ञान; आनन्द आदि विशिष्ट गुणों का स्वामी होता है।105 यहाँ यह उल्लेख किया जा सकता है कि जैनदर्शन अनन्त आत्माओं की तात्त्विक वास्तविकता को स्वीकार करता है। हम यहाँ सरसरी तौर पर बता सकते हैं कि संसारी आत्मा और मुक्त आत्मा में संबंध अभेद और भेद का है। .. एक ही आत्मा की दो अवस्थाओं (संसारी और मुक्त) में तादात्म्य होता है, किन्तु इन दोनों अवस्थाओं में कर्मोपाधियों के दृष्टिकोण से भेद है जो अनादिकाल से चला आ रहा है वह भी स्वीकार करने योग्य है। संसारी आत्मा अन्तःशक्ति के रूप में सिद्धात्मा है। यद्यपि यह सिद्ध अवस्था वर्तमान में प्रकट नहीं है इसलिए इन दोनों में भेद अखंडनीय है। 103. प्रवचनसार, 2/20-22 पञ्चास्तिकाय, जयसेन की टीका, 17, 18 104. पञ्चास्तिकाय,33 105. सिद्ध-भक्ति, 2 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (39) For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीव (आत्मा) के भेद-एकेन्द्रिय संसारी जीव . संसारी जीव की पहिचान उसके प्राणों द्वारा होती है। संसारी जीव के कम से कम चार प्राण होते हैं- एक इन्द्रिय, एक बल, आयु और श्वासोच्छ्वास और अधिकतम दस प्राण होते हैं:-पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास।106 कर्म पुद्गलों से एक आत्मा कितनी ही भार ग्रस्त हो सकती है, फिर भी यह पूर्णतया चेतना की अभिव्यक्ति को नहीं रोक सकती, जैसे- अत्यधिक घने बादल भी सूर्य के प्रकाश को . पूर्णतया नहीं रोक सकते। अस्तित्व की श्रेणी में एकेन्द्रिय जीव निम्नतम हैं। उनके चार प्राण होते हैं। इसको स्पष्ट करने के लिए यह कहा जा सकता है कि पाँच इन्द्रियों- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण में से एकेन्द्रिय जीव के केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है और तीन बल- मन, वचन और काय में से उनके केवल कायबल होता है और इसके अतिरिक्त आयु और श्वासोच्छ्वास होता है। ये एकेन्द्रिय जीव पाँच प्रकार के होते हैं107पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव। एकेन्द्रिय जीव की पहिचान बड़ी कठिनाई से होती है, क्योंकि चार प्राण स्पष्टतया प्रकट नहीं होते हैं, जैसे- एक आदमी के प्राण सुन्न अवस्था में या पक्षी के अंडे में जीव के प्राण या भ्रूण अवस्था में प्राण उनके स्पष्टतया प्रकट होने के अभाव में नहीं पहचाने जा सकते हैं।108 106. पञ्चास्तिकाय, 30 प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/54, 55 107. पञ्चास्तिकाय, 110 सर्वार्थसिद्धि, 2/13 108. पञ्चास्तिकाय, 113 (40) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के संसारी जीव दो इन्द्रिय जीवों के छह प्राण होते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय जीव के चार प्राणों के अतिरिक्त दो प्राण और अधिक होते हैं- रसना इन्द्रिय और वचन बल। तीन इन्द्रिय जीवों में घ्राण इन्द्रिय अधिक होती है। चार इन्द्रियवाले जीवों में इनके अतिरिक्त चक्षु इन्द्रिय अधिक होती है और अंतिम, पंचेन्द्रिय जीव जो असंज्ञी (मनरहित) हैं उनके कर्ण इन्द्रिय अतिरिक्त होती है और जिनके मन होता है उनके सभी दस प्राण होते हैं।109 इस प्रकार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों के प्राणों की संख्या क्रमशः चार, छह, सात, आठ, नौ और दस होती है। दो इन्द्रिय जीव हैंघोंघा, सीप, शंख, केचुआँ10 आदि; तीन इन्द्रिय जीव हैं- नँ, खटमल, चीटी11 आदि; चार इन्द्रिय जीव हैं- डांस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भ्रमर, पतंगा, तितली112आदि; पंचेन्द्रिय जीव- देव, नारकी, मनुष्य और कुछ तिर्यंच जीवों के दस प्राण होते हैं। 13 चार इन्द्रियों तक सभी संसारी जीव असंज्ञी (मनरहित) होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव संज्ञी (मनसहित) और असंज्ञी (मनरहित) हो सकते हैं। देव, नारकी और मनुष्य अनिवार्यरूप से संज्ञी (मनसहित) होते हैं।14 संज्ञी (मनसहित) जीव उपदेश श्रवण की योग्यता होने से, निर्देशन प्राप्त करने की योग्यता होने से और ऐच्छिक क्रियाएँ करने की योग्यता होने से पहचाने जाते हैं।115 . . 109. सर्वार्थसिद्धि, 2/14 110. पञ्चास्तिकाय, 114 .111. पञ्चास्तिकाय, 115 112. पञ्चास्तिकाय, 116 113. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 117 114. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 117 115. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 660 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (41) For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी जीवों के स्वभाव और भेद का वर्णन करने के पश्चात् अब हम नैतिक आदर्श पर विचार करेंगे जो मनुष्य जीवन का उच्चतम आदर्श है जिससे मुक्तात्मा के स्वभाव का स्पष्टीकरण भी हो जायेगा। जिस प्रकार आत्मा के अस्तित्व की प्रामाणिकता का विरोध नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार उच्चतम आदर्श की विद्यमानता सन्देहरहित है। एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के संसारी जीव तथा कुछ तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उसी अवस्था में अपने परमार्थ पर चिन्तन करने में असमर्थ होते हैं। उनको ऐसी समझ प्राप्त नहीं होती है जो उनको कर्मों की दासता से अपने आपको विमुक्त करवाने में सहयोग दे सके। कर्मों का प्रभाव इतना अधिक होता है कि अस्तित्व की उच्च श्रेणियों में उनका विकास 'समय' से ही निश्चित होता है। किन्तु संज्ञी (मनसहित) मनुष्य अपने विकास के लिए चिन्तन कर सकते हैं और उच्चतम आदर्श प्राप्त कर सकते हैं। उच्चतम आदर्श का अनुभव करने की संभावना से स्वतंत्र, पवित्र और अमर मनुष्य जीवन की संभावना है जिससे आवागमनात्मक चक्र और उससे संबंधित अनिष्ट समाप्त हो जाते हैं। तीर्थंकर ऐसी प्राप्ति के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। नैतिक, धार्मिक और दार्शनिक जैन ग्रंथों में उच्चतम आदर्श विभिन्न प्रकार से प्रतिपादित हैं। संसार के बहुमूर्तिदर्शी (Kaleidoscopic) परिवर्तनों से थककर जैन आचार्यों ने अंतरंग गहन आत्मा में प्रवेश करके, उच्चतम आदर्श को विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त किया है, किन्तु यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि उच्चतम आदर्श के सभी प्रतिपादन एक ही अर्थ का संप्रेषण करते हैं। नैतिक आदर्श के रूप में मोक्ष प्रथम, आत्मा की मुक्ति उच्चतम आदर्श मानी गयी है। प्रत्येक (42) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य को संसार के दुःखों से स्वयं को मुक्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सभी भारतीय दर्शन चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त मोक्ष को नैतिक आदर्श स्वीकार करते हैं, यद्यपि वे मोक्ष की अनुभूति के स्वरूप में भिन्न-भिन्न होते हैं। जैनदर्शन के अनुसार मोक्ष आत्मा का ब्रह्म से तादात्म्य नहीं है, जैसा कि वेदान्त दर्शन के द्वारा स्वीकार किया गया है, किन्तु यह सिद्ध अवस्था की प्राप्ति है जिसमें आत्म-वैयक्तिकता बनी रहती है। सूत्रकृतांग हमें बताता है कि मोक्ष सर्वोत्तम होता है जैसे - तारों के बीच चन्द्रमा सर्वोत्तम होता है । 116 आचारांग घोषणा करता है कि मोक्ष उस व्यक्ति के द्वारा प्राप्त किया जाता है जो आत्म-संयम में अरुचि अनुभव नहीं करता है। 17 जैसे अग्नि सूखी लकड़ियों को तुरन्त जला देती है, उसी प्रकार अपने आप में स्थित आत्मा तत्काल कर्मों के मैल को नष्ट कर देता है। 18 पूर्ण मोक्ष की अवस्था में संसारी जीव सिद्ध की स्थायी अवस्था में रूपान्तरित हो जाता है। 19 आठ कर्मों का पूर्णतया विनाश करके और अतीन्द्रिय परमानन्द प्राप्त करके संसारी जीव कर्मों का बंधन करनेवाली कालिख से पूर्णतया रहित हो जाता है और उसी रूप में लोकाकाश के शिखर पर स्थायी रूप से बना रहता है। अब उसके लिए कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है । 120 . उच्चतम आदर्श के रूप में परमात्मा द्वितीय, बहिरात्मा की अवस्था को छोड़ते हुए, अन्तरात्मा की अवस्था से गुजरते हुए, परमात्मा की प्राप्ति के रूप में आदर्श वर्णित हैं। 121 116. Sūtrakrtanga I. II, 22 117. ācārānga-Sutra I, 2, 2 P. 17 118. ācārānga-Sūtra I, 4, 3 P.39 119. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 68 120. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 68 121. मोक्षपाहुड, 7 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (43) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. केर्ड के अनुसार तीन प्रकार के रुखों (Attitudes) से एक ही आत्मा की इन तीन अवस्थाओं से तुलना की जा सकती है। मनुष्य अंतरंग को देखने से पहले बाहर देखता है, ऊपर की ओर देखने से पहले अंतरंग की ओर देखता है।122 बहिरात्मा बाहर की ओर देखता है, जब वह अन्तरात्मा हो जाता है तो अंतरंग की ओर देखता है और जब वह परमात्मा हो जाता है तो ऊपर की ओर देखनेवाला हो जाता है। इस प्रकार परमात्मा का अनुभव उच्चतम आदर्श के अनुभव के समान हो जाता है। कुन्दकुन्द, योगीन्दु और पूज्यपाद जैसे महान जैन विचारक इस बात पर सहमत हैं। वे परमात्मा के अनुभव का उच्चतम आदर्श के रूप में उल्लेख करते हैं। यहाँ 'सतर्कता' के एक शब्द की आवश्यकता है। जैनदर्शन के ग्रंथों में ‘परमात्मा' और 'ब्रह्म' शब्द पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु उपनिषदों के 'ब्रह्म' को जो विश्व का आधार है उसके साथ उनको नहीं उलझाना चाहिये। जैनदर्शन अनन्त ‘ब्रह्म' के अस्तित्व को स्वीकार करता है अर्थात् अनन्त ‘परमात्मा' जो स्वअस्तित्ववाले व्यक्तियों के आध्यात्मिक विकास की उत्कृष्ट अवस्थाएँ हैं। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा और परमात्मा अभिन्न ही है, क्योंकि वे एक ही सत्ता की दो अवस्थाएँ हैं। इस प्रकार प्रत्येक आत्मा अंत:शक्ति से दिव्य है और दिव्यता का प्रकटीकरण परमात्म-अवस्था है। यदि परमात्मा का यह अर्थ जैन दृष्टिकोण से स्वीकार नहीं किया जाता है तो आत्मा के तात्त्विक बहुत्ववाद को छोड़ना पड़ेगा जिसको जैनदर्शन प्रतिपादित करता है। यद्यपि उपनिषद के 'ब्रह्म' और जैनदर्शन के ब्रह्म' में कई समानताएँ दिखती हैं, तो भी उनमें बहुत भेद हैं। उच्च आदर्श के रूप में परमात्मा की धारणा पर जोर देने से हम इस दृष्टिकोण से प्रतिबद्ध 122. Evolution of Religion, II. 2. P. 247, vide, Constructive Survey of Upanişadic Philosophy (44) Ethical Doctrines in Jainism star 3418R ita FAGNAT For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं कि धार्मिक और नैतिक आदर्श एक ही हैं। आध्यात्मिक मूल्य और नैतिक मूल्यों में तादात्म्य माना जा सकता है। नैतिक आदर्श के रूप में निश्चयनय तृतीय, हमें नैतिक आदर्श की अन्य प्रकार से अभिव्यक्ति जैन ग्रंथों में मिलती है। जैन दार्शनिक इसको समझाने के लिए नयों की भाषा का प्रयोग करते हैं। प्रथम शताब्दी के उत्कृष्ट नैतिक-धार्मिक दार्शनिक कुन्दकुन्द निश्चयनय और व्यवहारनय का प्रयोग करने के लिए विशिष्ट हैं जिससे अध्यात्मवाद की भाषा के रूप में नैतिक आदर्श को समझा जा सके। निश्चयनय आत्मा को उसकी शुद्ध अवस्था में ग्रहण करता है उसके विरोध में व्यवहारनय आत्मा को बंधन-युक्त, अशुद्ध आदि के रूप में वर्णन करता है। इस तरह से निश्चयनय नैतिक आदर्श को व्यक्त करने की ओर उन्मुख है। निःसन्देह हम अनादिकाल से अशुद्ध अवस्था में चले आ रहे हैं, किन्तु निश्चयनय हमें हमारे आध्यात्मिक वैभव एवं गौरव की याद दिलाता है और मलिन आत्मा को उसके अपनी आध्यात्मिक सम्पत्ति का अवलोकन करने के लिए प्रेरित करता है। .. समयसार के प्रारम्भ में कुन्दकुन्द ने उपर्युक्त दो नयों के अर्थों का संक्षिप्तीकरण किया है, यह कहकर कि प्रत्येक आत्मा ने सांसारिक सुख और उनसे उत्पन्न कर्म बंधन के बारे में सुना है, निरीक्षण किया है, अनुभव किया है, किन्तु उसके द्वारा उच्चतम आत्मा का स्वभाव बिलकुल नहीं समझा गया है।123 अत: पूर्ववर्ती विवरण व्यवहारनय कहलाता है, जब कि परवर्ती कथन निश्चयनय कहलाता है, जो संसारी आत्मा की अंत:शक्ति की ओर संकेत करता है जिससे वह संसारी आत्मा शुद्ध हो जाय और शुद्ध अवस्था का अनुभव कर सके। इसलिए यह कहा जाता है कि जब 123. समयसार, 4 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (45) For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा ने स्वयं को आध्यात्मिक अनुभव के क्षेत्र में उन्नत कर लिया है तो व्यवहारनय अयथार्थ हो जाता है और निश्चयनय यथार्थ हो जाता है। दूसरे शब्दों में, तब हमको व्यवहारनय को छोड़ने का अधिकार प्राप्त हो जाता है जब हमने रहस्यात्मक अनुभव की उच्चतम ऊँचाई को प्राप्त कर लिया है। नैतिक आदर्श की प्रकृति को नय की भाषा में समझाते हुए कुन्दकुन्द एक कदम ओर अधिक आगे बढ़ते हैं और कहते हैं कि शुद्धात्मा का अनुभव सभी बौद्धिक दृष्टिकोणों को चाहे वे निश्चय हो या व्यवहार हो (उनका) अतिक्रमण कर देता है।124 पूर्ववर्ती (निश्चयनय) आत्मा को कर्मों के द्वारा अबद्ध और अस्पर्शित बताता है, जब कि परवर्ती (व्यवहारनय) उनके द्वारा बंधनयुक्त और स्पर्शित बताता है, किन्तु वह व्यक्ति, जो इन शाब्दिक-बौद्धिक दृष्टिकोणों से परे हो जाता है, समयसार कहलाता है।25 जो उच्चतम आदर्श है जिसको प्राप्त करने पर आत्मा शुद्ध चेतना, परमानन्द और शुद्धज्ञान स्वरूप हो जाता है। लोकोत्तर लक्ष्य के रूप में स्वसमय (आत्म-प्रतिष्ठित होना) चतुर्थ, उच्चतम आदर्श की अन्य अभिव्यक्ति जैन ग्रंथों में देखी जा सकती है। 'स्वसमय' एक दिव्य आदर्श है जिसे प्राप्त किया जाना चाहिए। जो सांसारिक पर्यायों में लीन है, जो चार प्रकार के आवागमनात्मक चक्र में फँसा है, जो विश्वास नहीं करता है कि द्रव्य स्वतः प्रमाण है, स्वतः अस्तित्ववान है, वह आत्मा ‘परसमय' (पर-प्रतिष्ठित) होता है और जो स्व में प्रतिष्ठित है वह 'स्वसमय' कहलाता है।126 आत्मा का 124. समयसार, 144 125. समयसार, 141,142 126. प्रवचनसार, 2/2/6 (46) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन, ज्ञान और चारित्र में सतत ठहरना ‘स्वसमय' के अर्थ को बताता है; इसको ‘परसमय' से पृथक् किया जा सकता है जिसमें आत्मा शरीर के साथ, राग और द्वेष आदि मनोभावों के साथ तादात्म्य कर लेता है।127 लक्ष्य के रूप में शुद्धोपयोग (चैतन्य की शुद्ध अवस्था) ___ पाँचवाँ, शुद्धोपयोग की प्राप्ति मानव प्रयत्न का लक्ष्य है। उसमें आत्मा केवलज्ञान और आनन्द का एक ही समय में अनुभव करता है जो इसकी (आत्मा की) क्रमशः ज्ञानात्मक और भावात्मक अन्तःशक्ति है। हम पहले बता चुके हैं कि चेतना आत्मा का विशिष्ट गुण है। यह अपने आपको उपयोग में व्यक्त करता है जो चेतना से उसी प्रकार फलित होता है, जैसे तर्क के आधार वाक्यों से निष्कर्ष फलित होता है। उपयोग (चैतन्य की प्रवृत्ति) तीन प्रकार का होता है, अर्थात् शुभ, अशुभ और शुद्ध। आत्मा उस समय शुभोपयोग की ओर प्रवृत्त होता है जब वह नैतिक और आध्यात्मिक पुण्यकर्मों के पालन करने में लीन होता है। फलस्वरूप आत्मा देवयोनि को प्राप्त करता है जो सांसारिक जीवन का ही भाग है। इसके अतिरिक्त, जब आत्मा हिंसात्मक पापकर्मों, ऐन्द्रिक सुखों आदि के दोषों में फँसता है तो अशुभ उपयोग होता है, तब आत्मा तिर्यंच और नरक गति में उत्पन्न होती है। शुभोपयोग और अशुभोपयोग कर्मों के कारण उत्पन्न होते हैं और ये दोनों उपयोग लगातार आत्मा को अन्तहीन दुःखों के चक्र में घुमाते हैं। परिणामस्वरूप, ये दोनों उपयोग मानव जीवन के उच्चतम आदर्श के रूप में कभी भी कार्यकारी नहीं हो सकते। इसलिए जैनदर्शन स्पष्ट घोषणा करता है कि जब तक आत्मा इन दो प्रकार के उपयोगों से घनिष्ठ रूप से संबंधित है, तब तक वह अपनी ऊर्जा को व्यर्थ 127. समयसार, 2 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (47) For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मृगतृष्णा में निष्फल रूप से अपव्यय करता है। इसलिए उच्चतम आदर्श रहस्य में ढका रहता है। लेकिन ज्योंहि आत्मा शुभोपयोग और अशुभोपयोग को त्याग देती है, तो इसका शुद्धोपयोग से संसर्ग हो जाता है। दूसरे शब्दों में, शुद्धोपयोग का अनुभव स्वतः ही अशुद्धोपयोग (शुभ और अशुभ) की समाप्ति में प्रेरणा देता है। परिणामस्वरूप, आत्मा का आवागमनात्मक चक्र पूर्णतया समाप्त हो जाता है। ___ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सोचने पर हम कह सकते हैं कि सद्गुण और अवगुण दोनों अशुद्धोपयोग हैं जो आत्मा को उच्चतम रहस्यात्मक ऊँचाइयों को प्राप्त करने से रोकते हैं। अतः आत्मा के विकास के लिए. उनको समान रूप से अहितकर मानकर निन्दित किया जाना चाहिए, किन्तु यदि संसारी आत्मा पाती है कि रहस्यात्मक ऊँचाई पर आरोहण कठिन है, तो शुभ क्रियाएँ की जानी चाहिए जिससे कम से कम संसारी आत्मा स्वर्गीय सुख प्राप्त कर सके, किन्तु इस स्पष्ट ज्ञान से कि ये क्रियाएँ कितनी ही मनोयोगपूर्वक और निरन्तर की जाए तो भी किसी प्रकार शुद्धोपयोग का स्वाद देने में असमर्थ रहेंगी। अशुभ क्रियाएँ निश्चित रूप से निन्दित की जानी चाहिए, क्योंकि वे हजारों प्रकार के हृदय-विदारक दुःखों को उत्पन्न करती हैं। शुद्ध चेतना ऐसे आनन्द का अनुभव करती है, जो लोकोत्तर, आत्मा से उत्पन्न, अतीन्द्रिय, अद्वितीय, अनन्त और अविनाशी है।128 यह आत्मा आदर्श के रूप में स्वयंभू'129 कही जा सकती है। यह आत्मनिर्भरता की अवस्था है जिसे अपने आप को संभाले रखने के 128. प्रवचनसार, 1/19,13 सिद्धभक्ति, 7 129. प्रवचनसार, 1/16 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए किसी दूसरे का बाह्य सहयोग अपेक्षित नहीं है। यह आत्मा अपने आप में विषयी, विषय, अपने आपको प्राप्त करने का साधन, अपने लिए प्राप्तकर्ता, बाह्य अवयवों का नाशक और अनन्त अंत:शक्तियों का आधार है। अत: आत्मा अपने मूल स्वभाव को छह कारकों में परिवर्तित होकर प्रकट करती है। यह कर्ता कारक, कर्म कारक, करण कारक, सम्प्रदान कारक, अपादान कारक और अधिकरण कारक क्रमश: है।130 संक्षेप में कहा जा सकता है कि उच्चतम आदर्श ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक आत्मा में निहित अंत:शक्तियों का पूरा प्रकटीकरण है। हमने पहले दो पर विचार कर लिया है, आगे हम अंतिम का संक्षेप में विचार करेंगे। आदर्श के रूप में शुद्ध भावों का कर्तृत्व छठा, आदर्श क्रिया के रूप में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। कुन्दकुन्द जैन अध्यात्मवाद के प्रमुख व्याख्याता हैं। उन्होंने कर्ता और कृत्य का दर्शन हमें वसीयत में दिया है। उन्होंने घोषणा की है कि जो कुछ भी कृत्य आत्मा संसार में करती है वे कृत्य आत्मा के शुद्ध, निष्कलंक और लोकातीत स्वभाव का कोई प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। आत्मा अपने यथार्थ स्वभाव में पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है; वह तो अपनी शुद्ध अवस्था का ही कर्ता है। संसारी आत्मा भी पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है;वह तो केवल अशुद्ध मनोभावों का कर्ता है, जिनके द्वारा पुद्गल परमाणु विभिन्न कर्मों में अपने आपको रूपान्तरित करते हैं। कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव के विरुद्ध किसी भी कार्य का कर्ता नहीं है, क्योंकि अशुद्ध मनोभावों का आत्मा के मूलस्वभाव से कोई संबंध नहीं है और वे कर्मों से संबंधित होने के परिणाम है। इसलिए शुद्धात्मा अशुद्ध . 130. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 1/16 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (49) For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोभावों के कर्तृत्व को भी अस्वीकार करती है। पुद्गल कर्म के कर्तृत्व को अस्वीकार करना अर्थात् शुभ और अशुभ मनोभावों के कर्तृत्व को अस्वीकार करना आत्मा की निष्कलंक लोकोत्तर अवस्था को बताता इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संसारी आत्मा अनादिकाल से अशुद्ध मनोभावों में रमता है। इसलिए वह इन अशुद्ध मनोभावों का कर्ता है। जब जैन दार्शनिक कहता है कि संसारी आत्मा अशुद्ध भावों का कर्ता नहीं है तो वे संसारी आत्मा को कर्मों के आवरण के पीछे देखने के लिए प्रेरित करते हैं। अत: यहाँ मुख्य रूप से आत्मा के शुद्ध स्वभाव की ओर संकेत किया गया है। जैनदर्शन कोई विरोध नहीं देखता है यह कहने में कि ज्ञानी आत्मा, जो आत्मा के शुद्ध स्वभाव से परिचित हो गयी है, वह शुद्ध पर्याय को प्रकट करती है और इस प्रकार वह सारभूत कर्ता उन पर्यायों की हो जाती है। यह कहने में कि अज्ञानी आत्मा अशुद्ध स्वभाव से तादात्म्य करने के कारण अशुद्ध भावों को उत्पन्न करता है और उसके फलस्वरूप यह उनका कर्ता कहलाता है।31 जैसे सोने से केवल सोने की वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं और लोहे से केवल लोहे की वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार ज्ञानी आत्मा शुद्ध पर्यायों को उत्पन्न करता है और अज्ञानी आत्मा अशुद्ध पर्यायों को उत्पन्न करता है। 32 जब अज्ञानी आत्मा ज्ञानी हो जाता है तो वह शुद्ध पर्यायों को बिना किसी असंगति के उत्पन्न करना प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार आत्मा केवल अपनी अवस्थाओं का कर्ता होता है और अन्य किसी का भी कर्ता नहीं होता है। संसारी आत्मा अशुद्ध 131. समयसार, 128, 129 132. समयसार, 130, 131 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोभावों का कर्ता कर्मों के संबंध के कारण होता है। किन्तु यदि हम एक कदम और आगे बढ़ते हैं और हम लोकोत्तर रूप से सोचते हैं तो हम अपरिहार्य निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शुद्ध आत्मा अशुद्ध मनोभावों का भी कर्ता नहीं हो सकता है, क्योंकि वे उसके स्वभाव के विपरीत हैं। इस प्रकार शुद्ध आत्मा शुद्ध भावों का कर्ता और भोक्ता होता है। परिणामस्वरूप यह कहा जा सकता है कि क्रियात्मक अन्त:शक्ति का प्रकटीकरण आत्मा के वास्तविक स्वभाव की अभिव्यक्ति है जो आदर्श की अनुभूति के समान है। आत्मविकास के लक्ष्य के रूप में स्वरूपसत्ता की अनुभूति सातवाँ, नैतिक आदर्श को तात्त्विक शब्दों में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। आत्मा के स्वरूपसत्ता की अनुभूति या आत्मा के आभ्यन्तर गुणों और पर्यायों का प्रकटीकरण या आत्मा के मौलिक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की अभिव्यक्ति नैतिक आदर्श है। निःसन्देह आत्मा अस्तित्ववान है, किन्तु इसका अस्तित्व संसारी है और अनादिकाल से अशुद्ध है। आत्मा को अस्तित्व प्राप्त नहीं करना है, किन्तु जो प्राप्त करना है वह केवल अस्तित्व की शुद्धता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल का शुद्ध अस्तित्व है। पुद्गल अणुरूप में शुद्ध है, और स्कन्ध रूप में अशुद्ध है, किन्तु आत्मा का अस्तित्व अनादिकाल से मलिन अवस्था में है। यह संसारी अवस्था में अपनी अशुद्ध पर्यायों और गुणों की विशेषता लिए हुए होता है। परिणामस्वरूप, यह अशुद्ध उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्रकट करती है। अपनी कठोर साधना से शुद्ध पर्याय व गुण और शुद्ध उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्रकट किया जाना है। केवल इस अवस्था में आत्मा शुद्ध द्रव्य होने का अनुभव करती है। यह वही रूप होता है जैसा सिद्ध अवस्था में, परमात्म अवस्था में, AG (51) Ethical Doctrines in Jainism $ # 347arat For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेहमुक्ति में, स्वसमय आदि में होता है। अत: तात्त्विक आदर्श, नैतिक आदर्श और धार्मिक आदर्श पूर्णतया अभिन्न हैं। नैतिक उच्चतम आदर्श के रूप में पण्डित-पण्डित मरण ___ आठवाँ, नैतिक उच्चतम आदर्श को प्रकट करने के लिए जैनदर्शन मृत्यु के रूप में भी आदर्श की घोषणा करता है। उसके अनुसार मुमुक्षु का लक्ष्य पण्डितमरण, बाल-पण्डितमरण, बालमरण और बालबालमरण को छोड़कर, एकाग्र प्रयास से पण्डित-पण्डित मरण (दिव्यमृत्यु) को प्राप्त करना होना चाहिए। ये पाँच प्रकार के मरण33 आध्यात्मिक प्रगति की विभिन्न श्रेणियों को दृष्टि में रखते हुए134 गिनाये गये हैं। निम्नतम और अत्यधिक घृणास्पद (बाल-बालमरण) मरण उस व्यक्ति का होता है जो मिथ्यात्व (मूर्छा) का जीवन जीता है।135 उच्चतम प्रकार का मरण (पण्डित-पण्डितमरण) सदेह केवलज्ञानियों का होता है, जब वे शरीर को त्यागते हैं।136 वे आत्माएँ, जिन्होंने आध्यात्मिक रूपान्तरण (सम्यग्दर्शन) को प्राप्त कर लिया है, किन्तु वे अपने जीवनकाल में अणुव्रतों का पालन करने में असमर्थ होते हैं, (वे) बालमरण के वशीभूत होते हैं। इस प्रकार बालपण्डित मरण38 से इसका भेद किया जाना चाहिए। यह उन लोगों की नियति है जो आध्यात्मिक रूपान्तरण के पश्चात् अणुव्रतों का पालन करते हैं। मुनि जो महाव्रतों का पालन 133. भगवती आराधना, 26 134. We shall deal with the stages of spiritual advancement in the sixth chapter. 135. भगवती आराधना, 30 136. भगवती आराधना, 27 137. भगवती आराधना, 30 138. भगवती आराधना, 2078 (52) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं उनके पण्डितमरण होता है। 139 पण्डित - पण्डित मरण के अतिरिक्त सभी प्रकार के मरण पुनर्जन्म की संभावना से युक्त होते हैं। अत: उनको संसारी मरण कहा जा सकता है। अतः उनका भेद उनसे किया जाना चाहिये (लोकोत्तर प्रकार के मरण से या पण्डित - पण्डित मरण से ) जिनका संसारी जीवन समाप्त हो चुका है। इस प्रकार यह परवर्ती मरण ( पण्डित - पण्डित मरण) अत्यधिक आनन्ददायक होता है और परिणामस्वरूप, इसमें हमारी सर्वोपरि निष्ठा अपेक्षित है। शारीरिक कारावास से आत्मा की मुक्ति का यह प्रकार मृत्यु के लिए चुनौती के रूप में हमारे सामने आता है। यहाँ मृत्यु की अनिवार्यता का उचित प्रकार से सामना किया गया है। लक्ष्य के रूप में अहिंसा नवाँ, नैतिक उच्चतम आदर्श की अभिव्यक्ति सम्पूर्ण अहिंसा की अनुभूति में होती है। अहिंसा जैनदर्शन में इतनी प्रमुख है कि इसे जैनधर्म का आदि और अंत कहा जा सकता है। समन्तभद्र का यह कथन कि सभी प्राणियों में अहिंसा परम बह्म की अनुभूति के समान है, अहिंसा की सर्वोपरि विशेषता पर प्रकाश डालती है। 140 सम्पूर्ण जैनाचार अहिंसा से उत्पन्न है। सभी पाप हिंसा के उदाहरण हैं । सूत्रकृतांग हमें उपदेश देता है कि अहिंसा प्रज्ञा का सारतत्त्व है, 141 क्योंकि निर्वाण अहिंसा से अन्य नहीं है। अतः सभी प्राणियों को हानि पहुँचाना समाप्त करना चाहिए | 142 आचारांग घोषणा करता है कि किसी भी प्राणी को जीवन से वंचित नहीं करना चाहिए, न उनके ऊपर शासन करना चाहिए, न ही उनको सताना 139. भगवती आराधना, 29 140. स्वयंभूस्तोत्र, 117 141. Sūtrakrtanga, 1.1.4.10, 1.11.10 142. Suūtrakrtānga, 1.11.11 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (53) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए और न ही उनको उत्तेजित करना चाहिए।143 इस प्रकार कहने का अर्थ है कि अहिंसा शुद्ध और शाश्वत धर्म है। 44 एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सभी प्राणी मूलरूप से हमारे स्वयं के समान होते हैं। 145. अत: उनको हानि पहुँचाना, उनके ऊपर शासन करना, उनको सताना न्यायसंगत नहीं है।146 यह सब व्यवहार दृष्टिकोण से कहा गया है। निश्चय दृष्टिकोण कहता है कि आत्मा जो अप्रमत्त है वह अहिंसा है और आत्मा जो प्रमत्त है वह हिंसा है।147 अमृतचन्द्र स्वीकार करते हैं कि किसी प्रकार की कषाय आत्मा में प्रकट होना हिंसा है और आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था में अहिंसा है।148 पूर्ण और परम अहिंसा केवल रहस्यात्मक अनुभव में संभव है, जिसको सभी नैतिक प्रयासों का लक्ष्य माना जाता है। आदर्श की क्रमिक अनुभूति इस अध्याय को हम यह कहते हुए पूरा करते हैं कि आदर्श क्रमिक रूप से अनुभव किया जाता है। प्रथम सोपान- आत्मा और शरीर की भिन्नता में दृढ़ श्रद्धा का विकास। दूसरे शब्दों में, दृढ़ श्रद्धा साधक में विश्वास उत्पन्न करती है कि वह आवश्यक रूप से शुद्ध आत्मा है जिसका पूर्ण भेद शारीरिक या ऐन्द्रिक आवरण से और दोनों प्रकार के मनोभावों से है। द्वितीय सोपान- सच्ची श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) और सम्यग्ज्ञान के उत्पन्न होने के पश्चात् साधक उन दोषों को नष्ट करने के लिए अग्रसर होता है जो 143. Acaranga-Sutra, 1,4,1 P. 36 144. Acāranga-Sutra 1,4,1 P. 36 145. दशवैकालिक सूत्र, 10/5 146. Acāranga-Sutra 1.5.5. P. 50 147. Haribhadra, Astaka. 7 , vide. Ahimsa Tattva Darsana by Muni Nathamal P.4 148. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 44 (54) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्मा के अनुभव में बाधा डालते हैं। तृतीय सोपान- द्वितीय सोपान का तार्किक परिणाम तृतीय सोपान है अर्थात् उसमें शुद्धात्मा का अनुभव किया जाता है, केवल अनात्मा से भेद ही नहीं किया जाता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति आत्मा की अनुभूति के समान है जिसको संक्षेप में नैतिक उच्चतम आदर्श कहा जाता है। अगले अध्याय में हम प्रथम सोपान की व्याख्या करेंगे और शेष सोपानों का क्रमश: चौथे, पाँचवें और छठे अध्याय में विवेचन किया जायेगा। 149. द्रव्यसंग्रह, 40 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त - (55) For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्याय सम्यग्दर्शन और सात तत्त्व संक्षिप्त पुनरावृत्ति प्रथम, पूर्व अध्याय में हमने सामान्यरूप से द्रव्य की जैन दृष्टिकोण से व्याख्या की है और यह समझाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार द्रव्यों का तात्त्विक स्वभाव अनुभव (Experience ) के अनुरूप है? द्वितीय, हमने यह दिखाया है कि प्रमाण, नय और अनेकान्तवाद द्रव्य के आश्रित हैं और स्यादवाद पदार्थों के तात्त्विक स्वभाव की अभिव्यक्ति और संप्रेषण का माध्यम है। तृतीय, हमने आत्मा के स्वभाव का विशेष विवेचन करने के साथ ही छह प्रकार के द्रव्यों के स्वभाव का वर्णन किया है। अंत में हमने नैतिक आदर्श की विभिन्न अभिव्यक्तियों को बताया है और यह बताने का प्रयास किया है कि वे अर्थ की दृष्टि से एकरूपता का प्रतिपादन करती हैं। उच्चतम अनुभूति की प्राप्ति में बाधा के रूप में मिथ्यात्व हमने देखा है कि साधक का परम लक्ष्य उच्चतम नैतिक आदर्श को प्राप्त करना है। आदर्श ऐसा नहीं है जो किसी दूरवर्ती प्रदेश में स्थित हो, किन्तु यह अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव की अनुभूति है । यहाँ हम एक साधारण प्रश्न प्रस्तुत कर सकते हैं कि आत्मा अपने स्वभाव से कैसे दूर हो सकती है ? इसका उत्तर यह है कि आत्मा अनादिकाल से कलुषित अवस्था में चली आ रही है। अतः शुद्धात्मा की अनुभूति का प्रयास इतना आकर्षक नहीं है, जितनी आशा की जा सकती है। इसके विपरीत (56) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर का जीवन आत्मा के जीवन से ज्यादा सरल हो रहा है। यहाँ 'कुछ' है जो किसी भी व्यक्ति को कलुषित अवस्था से चिपके रहने के लिए बाध्य करता है और शुद्धात्मा की अनुभूति के लिए अत्यधिक बाधा डालता है। यह 'कुछ' अविद्या, मिथ्यात्व और अज्ञान के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व (मूर्छा) आत्मा के सम्यक् जीवन के लिए बाधक है। यह सभी बुराइयों के मूल में है और संसाररूपी वृक्ष का बीज है। यह हमारी सारी क्रियाओं को विषाक्त कर देता है, जिससे जीवन के उच्चतम आदर्श की अनुभूति अवरुद्ध हो जाती है। इसके अतिरिक्त मिथ्यात्व हमारे ज्ञान और चारित्र की विकृति के लिए भी उत्तरदायी है। मिथ्यात्व की प्रक्रिया से दृष्टि, ज्ञान और चारित्र दूषित हो जाते हैं। जब तक मिथ्यादर्शन (मूर्छा) क्रियाशील है तब तक हमारे प्रयास आत्मारूपी सूर्य की गरिमा को देखने के लिए असफल होते हैं। अत: सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) प्राप्त किया जाना चाहिए जो ज्ञान और चारित्र को सम्यक् बना देगा और मोक्ष- प्राप्ति के लिए प्रेरक होगा। सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् ही आत्मा दुःखों के चक्र से मुक्त होने के लिए प्रारंभिक योग्यता प्राप्त करती है। यदि मिथ्यात्व संसार के मूल में है तो सम्यक्त्व मोक्ष के मूल में है। लेकिन सम्यक्त्व का उदय होने के पश्चात् भी अर्थात् ज्ञान के सम्यक् होने के पश्चात् भी आत्मा की दूसरी प्रवृत्तियों के क्रियाशील होने के कारण सम्यक्चारित्र ग्रहण नहीं हो पाता है। फलस्वरूप पूर्णचारित्र (महाव्रत) के आदर्श को दृष्टि में रखते हुए आत्मा प्रारंभ में आंशिकचारित्र (अणुव्रत) ग्रहण करता है। इस अध्याय में हम सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) के स्वरूप पर विचार करेंगे क्योंकि यह आध्यात्मिक यात्रा के प्रारंभ के लिए मूलभूत आधार है। अगले दो अध्यायों में हम आंशिकचारित्र (अणुव्रत) और पूर्णचारित्र Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (57) For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (महाव्रत ) पर विचार करेंगे अर्थात् गृहस्थ के आचार और मुनि के आचार पर। नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए अनिवार्य सात तत्त्व सम्यग्दर्शन का अध्ययन प्रारंभ करने से पहले हमारे लिए सात तत्त्वों के स्वरूप, महत्त्व और तात्पर्य को समझना उचित होगा, क्योंकि इन तत्त्वों की समझ हमें सम्यग्दर्शन के अर्थ को हृदयंगम करने के लिए समर्थ बना सकेगी। इन तत्त्वों के स्वभाव में अन्तर्दृष्टि नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए अनिवार्य है । आत्मा की मुक्ति के लिए तत्त्वों का बोध अपरिहार्य है। आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रगति की पूर्वमान्यता है तत्त्वों में श्रद्धा । विचार की दो धाराएँ हैं, वे तत्त्व और द्रव्य से संबंधित हैं उनको एक दूसरे से नहीं मिलाना चाहिए, किन्तु प्रत्येक का अर्थ बुद्धि में धारण करना चाहिए। जैन दार्शनिकों के दो उद्देश्य हैं- विश्व की व्याख्या और आत्मा की मुक्ति। छह द्रव्य, जिनका हम पूर्व अध्याय में वर्णन कर चुके हैं, विश्व सम्बन्धी जिज्ञासा की अभिव्यक्तियाँ हैं, जब कि सात तत्त्व नैतिक और धार्मिक जिज्ञासा के परिणाम हैं। तत्त्व के आधार से विचार किया जाता है- आध्यात्मिक रोग, उसके कारण, उसके इलाज के साधन और रोगमुक्त अवस्था का अर्थात् वे तत्त्व संसार और उसके कारण का और उसके साथ ही मोक्ष और उसके कारण का विचार करते हैं। इस तरह साधक को बंध और इसके कारण को जानना चाहिए तथा मोक्ष और उसके कारण संवर और निर्जरा को जानना चाहिए। इन पाँच तत्त्वों के अतिरिक्त उस आत्मा (जीव) के ज्ञान की भी आवश्यकता है जो बंधन में है लेकिन जिसको स्वतंत्र किया जाना अपेक्षित है। आत्मा (जीव) के बंधन अवस्था की पूर्व मान्यता है एक अजीव तत्त्व (58) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मानना, जिसके द्वारा आत्मा अनादिकाल से बंधन में है । इस तरह इन सात तत्त्वों - (1) जीव, (2) अजीव, (3) आस्रव, (4) बंध, (5) संवर, (6) निर्जरा, और ( 7 ) मोक्ष के अध्ययन का उस व्यक्ति के लिए प्रमुख महत्त्व है जिसको मोक्ष की उत्कंठा है। सात तत्त्वों के स्थान पर कुन्दकुन्द' नौ पदार्थों का उल्लेख करते हैं अर्थात् वे सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को और जोड़ देते हैं । किन्तु वे (पुण्य और पाप) आस्रव और बंध में सम्मिलित किये जा सकते हैं। इसलिए उनकी पृथक् गणना दूसरे आचार्यों, जैसे उमास्वामी और पूज्यपाद द्वारा उचित नहीं मानी गई। यदि कुन्दकुन्द ने ऐसा किया है तो यह केवल स्पष्टीकरण की अभिरुचि के कारण है न कि तत्त्वों की संख्या और अर्थ विकृत करने के दृष्टिकोण से । अब हम तत्त्वों पर विचार करेंगे, क्योंकि ये साधक के आध्यात्मिक जीवन - विकास के आधार हैं। जीव (आत्मा) तत्त्व प्रथम, हम जीव तत्त्व से प्रारंभ करते हैं, क्योंकि शेष छह तत्त्वोंअजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष का निरूपण सारा महत्त्व खो देता है, यदि जीव तत्त्व को सर्वप्रथम न बताया जाए । तत्त्वों के स्वभाव को समझने से पहले जीव तत्त्व के स्वभाव को समझना आवश्यक है, क्योंकि जीव ही बंधनयुक्त होता है ओर जीव ही बंधन से स्वतंत्र होने के लिए प्रयास करता है। बंधन और मोक्ष का चिंतन और उनके बारे में समझना जीव (आत्मा) के अभाव में असंभव है। जीव (आत्मा) का स्वभाव है- चिन्तन करना और प्रश्न करना । इसलिए यह स्पष्ट है कि आत्मा का यथार्थ स्वभाव जानना दूसरे तत्त्वों को समझने से पहले आवश्यक है। शेष छह तत्त्वों की व्याख्या करना आत्मा की जीवन-गाथा 1. समयसार, 13 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (59) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए लाभदायक है। पूर्व में जीव द्रव्य के स्वभाव को समझाते समय हम संसारी जीव (आत्मा) के स्वभाव पर विचार कर चुके हैं और नैतिक आदर्श के स्वभाव के बारे में विचार-विमर्श करते समय हम जीव (आत्मा) के शुद्ध स्वभाव के बारे में उल्लेख कर चुके हैं, इसलिए उनको यहाँ दोहराना अनावश्यक होगा। अजीव तत्त्व - अब हम अजीव तत्त्व के बारे में विचार करेंगे जिसका अजीव द्रव्य से भेद किया जाना चाहिए। जैनदर्शन में अजीव द्रव्य जीव के अतिरिक्त पाँच द्रव्यों के अस्तित्व को बताता है। इन पाँच द्रव्यों में से चार द्रव्य- धर्म, अधर्म, आकाश और काल आत्मा के स्वभाव पर अहितकर प्रभाव नहीं डालते हैं। पाँचवाँ, पुद्गल सांसारिक आत्मा पर अनादिकाल से दूषित प्रभाव डाल रहा है और इसके फलस्वरूप यह आत्मा के स्वाभाविक गुणों को अवरुद्ध कर रहा है। इस प्रकार (अजीव द्रव्य के विरोध में) अजीव तत्त्व का अर्थ होना चाहिए केवल पुद्गल, क्योंकि तत्त्वों का आध्यात्मिक महत्त्व है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्त्व पूर्ण सहयोगी है। ____ अजीव तत्त्व का अर्थ है- पुद्गल की बंधन-शक्ति। यदि आत्मा को स्वतन्त्रता प्राप्त करनी है तो इस पुद्गल की बंधन-शक्ति को हटाना चाहिए। भौतिक शरीर में जीव की दासता सूक्ष्म और अदृश्य पुद्गल से उत्पन्न होती है जो कर्म कहलाती है और बंधन से स्वतन्त्रता की प्राप्ति का अर्थ है आत्मा से कर्मों का पृथक्करण। शेष पाँच तत्त्व जो आत्मा और पुद्गल के साथ आपसी अन्तक्रिया से प्राप्त हुए हैं, वे हैं- (1) आत्मा में पुद्गल कर्मों का आना (आस्रव) और, (2) उनको आत्मसात करना (बंध), (3) कर्मों के आस्रव का रुकना (संवर), (4) पुद्गल कर्मों की (60) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रित मलिनता का निष्कासन (निर्जरा) और अंत में, (5) उनसे छुटकारा (मोक्ष)। आस्रव और बंध सात तत्त्वों में जीव और अजीव तत्त्व के स्वभाव का विचारविमर्श करके अब हम आस्रव और बंध के बारे में विचार करेंगे। आस्रव (आत्मा में कर्मों का आना) वह है जो बंध (आत्मा में कर्मों को आत्मसात करना) के लिए आधार तैयार करता है। बंध अपना अर्थ और महत्त्व आस्रव से प्राप्त करता है। बंध स्वभाव से परजीवी होता है। यह जीवन और अस्तित्व के लिए आस्रव पर निर्भर होता है। यदि आस्रव अस्वीकार किया जाता है, तो बंध भी स्वत: ही अस्वीकार कर दिया जायेगा। अब हम कर्म के आस्रव के कारणों पर विचार करेंगे। आस्रव का आधारभूत कारण है आत्मा की परिस्पन्दन युक्त क्रिया जो मन-वचनकाय से उत्पन्न होती है जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'योग' कहा जाता है। 'योग' आस्रव का अत्यधिक व्यापक कारण है, क्योंकि यह सांसारिक जीवों और जीवनमुक्तों या अरहंतों दोनों को अपने में सम्मिलित कर लेता है। हम यहाँ कह सकते हैं कि योग भी बंध के कारणों में से एक कारण है। यहाँ यह कहना पर्याप्त है कि योग अकेला सांसारिक बंधन उत्पन्न नहीं करता है। ..सांसारिक आत्मा अनादिकाल से कषायों के विकृत प्रभाव में रहती है। परिणामस्वरूप योग कषायों के कारण भौतिक परमाणुओं को आकर्षित करता है जो स्वत: ही कर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं और आत्मा का सांसारिक बंधन उत्पन्न करते हैं। ये आत्मा के चिपक जाते हैं, जैसे गर्म लोहे का पिंड पानी में रखने से सब तरफ से इसको सोख लेता है, या तेल युक्त या 2. तत्त्वार्थसूत्र, 6/1, 2 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (61) For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीला कपड़ा चारों तरफ से धूल के कण चिपका लेता हैं। संक्षेप में, आस्रव योग के कारण होता है जब कि बंध योग और कषाय के कारण होता है। पूर्ववर्ती का उदाहरण है सदेह लोकोत्तर अरिहंत की आत्मा, जब कि परवर्ती का उदाहरण संसारी आत्मा है, लेकिन दोनों आत्माओं में आस्रव और बंध का स्पष्टतया भेद किया जाना चाहिए। हम इस भेद को आगे समझाने का प्रयत्न करेंगे। वर्तमान में हम योग और कषाय के स्वभाव को बताने की ओर अग्रसर होंगे। योग का स्वभाव - आस्रव का यथार्थ कारण योग है, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। अब हमको यह समझना है कि दोनों अर्थात् योग और आस्रव एक ही है, क्योंकि मन, वचन और काय की क्रिया के कारण जो परिस्पन्दन आत्मा के प्रदेशों में होता है, वह कर्मों के आने के साथ एक ही समय में होता है। इसके अतिरिक्त वह प्रयत्न, जो मन, वचन और काय को क्रिया में लगाता है, उससे जो आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है (वह प्रयत्न भी), योग कहलाता है। अरहंत और संसारी आत्माओं में इस प्रकार का प्रयत्न होता है, लेकिन सिद्ध सभी प्रयत्नों से रहित हैं इसलिए योगरहित हैं, क्योंकि उनके मन, वचन और काय की क्रिया नहीं होती है। प्रयत्न के रूप में योग, आत्मा के परिस्पन्दन रूप में योग (मन, वचन और काय की क्रिया) से कारण रूप से संबंधित है। इसलिए कभी-कभी प्रयत्न योग कहलाता है, और कभी-कभी परिस्पन्दन। अत: दोनों ही योग की परिभाषा के दृष्टिकोण से उचित हैं। 3. राजवार्तिक, 6/2/4, 5 4. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 279 5. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 140 गोम्मटसार जीवकाण्ड, 215 (62) Ethical Doctrines in Jainism Aer Å BERAT PAGI For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग की अधिकतम संख्या तीन है अर्थात् एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीवों के विकास के साथ यह परिवर्तनशील होता है। योग का सामान्य स्वभाव ऐसा है कि वह कर्म पुद्गलों को आत्मा की तरफ आकर्षित करता है। इस प्रकार योग अन्य कारणों की उपस्थिति में सांसारिक बंधन के लिए आधार बनाता है। दूसरे शब्दों में, कर्मों को आत्मा की तरफ आकर्षित करने का उत्तरदायित्व योग पर होता है यद्यपि उनका आत्मसात्करण कषायों की उपस्थिति में होता है जिससे वह दिव्य गुणों के आच्छादन का कारण बनता है। अब हम योग और कषाय के द्वारा बंध का विवेचन करेंगे। योग से उत्पन्न बंध के प्रकार हम बता चुके हैं कि बंध आस्रव पर निर्भर होता है, जो प्राथमिकरूप से योग द्वारा उत्पन्न होता है। कर्मों द्वारा आत्मा का बंध चार प्रकार का है(1) प्रकृतिबन्ध, (2) प्रदेशबन्ध, (3) स्थितिबन्ध, और (4) अनुभागबन्ध। (1) जब आत्मा परिस्पन्दन क्रिया के कारण पुद्गल का कर्मों में परिवर्तन करता है उससे जो बन्ध होता है उस बंध को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। यह प्रकृतिबन्ध भोजन का विभिन्न शारीरिक तत्त्वों में परिवर्तन के अनुरूप कहा जा सकता है। यह पारम्परिक रूप से संख्या में आठ माना गया है। उनका नामकरण आत्मा के मूलभूत दिव्य गुण के आच्छादन 6. तत्त्वार्थसूत्र, 8/3 गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 89 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (63) For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांध। .. और उसकी विकृति के आधार से होता है।' वे कर्म आठ प्रकार* के हैं- (i) ज्ञानावरणीय (ज्ञान का आच्छादन करनेवाले), (ii) दर्शनावरणीय (दर्शन का आच्छादन करनेवाले), (iii) वेदनीय (सुख-दुःख का उत्पादक), (iv) मोहनीय (मूर्छा का उत्पादक), (v) आयु (जीवनकाल का निर्धारक), (vi) नाम (शरीर-निर्माता), (vii) गोत्र (जीवन-स्तर का निर्धारक) और (viii) अन्तराय (बाधा-उत्पादक)। (2) आत्मा के . प्रदेशों में योग के माध्यम से जो कर्म-पुद्गलों का मात्रासहित आपसी .. संबंध होता है वह प्रदेशबन्ध कहलाता है। यह बन्ध बताता है कि आत्मा का कोई भी प्रदेश कर्म के बिना नहीं रहता है, जो बहुत सूक्ष्म है। इस प्रकार योग के दो कार्य है, प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध ।' 7. सर्वार्थसिद्धि, 8/4 राजवार्तिक, 8/4/3 8. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 8 तत्त्वार्थसूत्र, 8/4 9. सर्वार्थसिद्धि, 8/3 पृष्ठ 379 *(i) जैसे परदा कमरे के भीतर की वस्तु का ज्ञान नहीं होने देता वैसे ही ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को रोकने या अल्पाधिक करने में निमित्त हैं। इसके उदय की हीनाधिकता के कारण कोई विशिष्टज्ञानी और कोई अल्पज्ञानी होता है। (ii) जैसे द्वारपाल दर्शनार्थियों को राजदर्शन आदि से रोकता है, वैसे ही दर्शन का आवरण करनेवाला दर्शनावरण कर्म हैं। (ii) जैसे तलवार की धार पर लगा मधु चाटने से मधुर स्वाद अवश्य आता है, फिर भी जीभ के कट जाने का असह्य दुःख भी होता है, वैसे ही वेदनीय कर्म सुखदुःख का निमित्त है। (iv) जैसे मद्यपान से मनुष्य मदहोश हो जाता है और सुध-बुध खो बैठता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से विवश जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है। (v) जैसे हलि (काठ) में पाँव फंसा देने पर मनुष्य रुका रह जाता है, वैसे ही आयु कर्म के उदय से जीव शरीर में निश्चित समय तक रुका रहता है। (vi) जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नाम कर्म के उदय से जीवों के नानाविध देहों की रचना होती है। (vii) जैसे कुम्भकार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है, वैसे ही गोत्र कर्म के उदय से जीव को उच्चकुल या नीचकुल मिलता है। (viii) जैसे भण्डारी (खजांची) दाता को देने से और याचक को लेने से रोकता है, वैसे ही अन्तराय कर्म के उदय से दान-लाभ आदि में बाधा पड़ती है। इस तरह ये आठों कर्मों के स्वभाव हैं। -समणसुत्तं, पृष्ठ 22-23, सर्व सेवा संघ, वाराणसी Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय से उत्पन्न बंध के प्रकार आत्मा के साथ कर्मों की अनवरत स्थिति निश्चित अवधि तक बने रहना स्थितिबंध कहलाता है, और कर्मों में जो प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति भरी रहती है, वह फलन-शक्ति-बंध अनुभागबंध कहलाता है। अनुभागबंध व्यक्ति की आत्मा के अनुभवात्मक पक्ष को बताता है, और जगत में दृश्यमान भेदों का कारण है। ये दो प्रकार के बंध कषायों से उत्पन्न होते हैं जो वास्तव में दूषित अवस्था के लिए उत्तरदायी हैं जिनके कारण गमन और पुनर्जन्म होता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कषायों के अभाव में योग से बंध बिना किसी सांसारिक परिणाम के होता है। यह उसी समय संभव है जब अनासक्त क्रिया व्यक्ति के जीवन में रूपान्तरित हो जाती है। कषायरहित क्रिया स्वयं के द्वारा प्राप्त की जाती है और इसके लिए दुष्कर तपस्या, कठोर आत्म-संयम और ध्यान के सतत जीवन की आवश्यकता होती है। हमारी मुख्य रुचि आचार-सम्बन्धी अध्ययन में है, इसलिए हम चार प्रकार के बंधों के विस्तार में नहीं जाना चाहते, जैसा कि जैनागम में वर्णित है। कषायसहित और कषायरहित योग __ अब हम यह बताने का प्रयास करेंगे कि योग व्यक्ति के जीवन में कषायसहित या कषायरहित हो सकता है। दो प्रकार के योग के अनुरूप दो प्रकार के आस्रव होते हैं। ईर्यापथ आस्रव कषायरहित योग को बताता है और साम्परायिक आस्रव कषायसहित योग से उत्पन्न होता है।'' महान आचार्य अमृतचन्द्र ने कुन्दकुन्द द्वारा रचित प्रवचनसार की टीका करते समय दो प्रकार की क्रियाओं को उपर्युक्त प्रकार से बताया है, किन्तु 10. सर्वार्थसिद्धि, 8/3 पृष्ठ 379 11. तत्त्वार्थसूत्र, 6/4 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (65) For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके नाम भिन्न हैं अर्थात् (1)ज्ञप्ति क्रिया और (2) ज्ञेयार्थ परिणमन क्रिया।12 (1) प्रथम, ज्ञप्ति क्रिया में परा इन्द्रिय ज्ञान होता है, जो बिना किसी विकृति और पक्षपात के वस्तुओं को जैसी है, जैसी थी और जैसी होगी वैसी युगपत् जानता है। यह क्रिया पूर्व में वर्णित अनासक्त क्रिया से मेल रखती है और अरहंत या जीवनमुक्त का दिव्य जीवन उसका उत्कृष्ट उदाहरण है, वे शारीरिक क्रियाओं यथा- खड़ा होना, बैठना और गमन करना आदि तथा सम्यक् धर्म के उपदेश देने की क्रियाओं को आनन्दपूर्वक करते हैं। इन क्रियाओं को कर्म फलन के स्वाभाविक परिणाम माना गया है, यद्यपि वे राग, द्वेष और मोह से रहित होती हैं। अत: वे कर्म की पारिभाषिक शब्दावली में क्षायिक क्रियाएँ कहलाती हैं वे कर्मों के सम्पूर्ण नष्ट होने से उत्पन्न होती हैं, जिससे वे सांसारिक जीवन उत्पन्न करनेवाले नवीन कर्मों को न तो अपने में आत्मसात् करती हैं और न ही उनका संग्रह करती हैं। ये क्रियाएँ ईर्यापथ प्रकार का आस्रव उत्पन्न करती हैं, जो नाममात्र का होता है और जो संसार को अनिश्चित काल के लिए बढ़ाने की शक्ति नहीं रखता है। इसके अतिरिक्त केवल योग के ही कारण लोकोत्तर आत्मा अस्थायी रूप से शरीर में ठहरती है। (2) दूसरे प्रकार की क्रिया अर्थात् ज्ञेयार्थ-परिणमन क्रिया राग, द्वेष और मोह से ग्रसित होती है और प्राणसहित और प्राणरहित जगत की वस्तुओं के स्वाभाविक अर्थ को बदल देती है। यह वस्तुओं के मूल 12. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 1/52 13. प्रवचनसार, 1/44 14. प्रवचनसार, 1/45 15. प्रवचनसार, 1/45 (66) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाहा और तात्विक महत्त्व से हमको दूर ले जाती है। अत: इससे साम्परायिक आस्रव उत्पन्न होता है जो हमारी आत्मा के अंतरंग जीवन को मदोन्मत्त (बेहोश) कर देता है, जिससे जीवन और मृत्यु का सतत चक्र उत्पन्न होता है। संसारी आत्मा जो अनात्मा के दलदल में फँसी हुई है, इस प्रकार की क्रिया का उदाहरण है। निम्न पृष्ठों में, प्रथम, हम कषायों की विभिन्न प्रकार की क्रियाओं पर विचार करेंगे और द्वितीय, हम साम्परायिक आस्रव पर विचार करेंगे जो कषायसहित योग से उत्पन्न होता है। दो प्रकार के साम्परायिक योग जो शुभ और अशुभ मनोभावों से उत्पन्न होते हैं उनसे शुभ और अशुभ आस्रव घटित होते हैं। यहाँ सरसरी तौर पर उल्लेख किया जा सकता है कि यह शुभ और अशुभ मनोभाव अपना नाम कषायों के मापक्रम (Scale) के अनुसार प्राप्त कर लेते हैं। कषायों के मापक्रम के अनुसार मापक्रम के एक छोर से मध्य तक हम शुभ मनोभावों को रख सकते हैं और दूसरे छोर से मापक्रम के मध्य तक अशुभ मनोभावों को रख सकते हैं। इनमें प्रकार का भेद है स्वभाव का भेद नहीं है। अत: आध्यात्मिक अनुभव की ऊँचाई पर पहुँचने के लिए इन दोनों को हटाये जाने की आवश्यकता है। कषाय की विविध अभिव्यक्तियाँ . (क) कषायें मिथ्यात्वसहित शुभ और अशुभ मनोभावों को समाविष्ट करनेवाली मानी जाती हैं- 'कषाय' शब्द आत्मा की पूर्ण विकृति को समझने के लिए अतिसंक्षिप्त और अतिसरल अभिव्यक्ति है। कषायें आत्मा को मोहित करने और पथभ्रष्ट करने में बहुत व्यापक और गहरी होती हैं। ये इतनी सशक्त होती हैं कि ये हमारे हृदय को संसार के असारभूत सुखों में लगा देती हैं, ये पूर्णरूप से हमारी ऊर्जाओं (शक्तियों) को इस तरह 16. सर्वार्थसिद्धि, 6/3 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (67) For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम में लेती हैं कि जीवन के तेजस्वी पक्ष को देखने के लिए कोई भी स्थान नहीं बचता है। अध्यात्मवाद अंधकारमय हो जाता है। शुष्क नैतिकता (अध्यात्मरहित नैतिकता) या घृणित विषयासक्ति प्रचलित हो जाती है। मिथ्यात्व अध्यात्मवाद में बाधा डालता है। मिथ्यात्व की उपस्थिति में शुभ भाव शुष्क नैतिकता के समान हैं और अशुभ भाव घृणित विषयासक्ति के समान हैं। यहाँ हमने कषाय की व्याख्या आत्मा के मिथ्यात्वसहित शुभ और अशुभ मनोभावों के अर्थ में की है, क्योंकि यह आत्मा के सम्यक् जीवन को अवरुद्ध करती है। (ख) मोहनीय कर्म के समानार्थक रूप में कषाय- 'कषाय' शब्द मोहनीय कर्म के समानार्थक माना गया है, जो आठ प्रकार के कर्मों में से एक है। मोहनीय कर्म के दो उपभेद माने गये हैं अर्थात् दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। इस प्रकार यह कषाय एक ओर आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन) में बाधा डालती है, दूसरी ओर सम्यक्चारित्र में। अधिक स्पष्ट रूप में कहें तो कषाय का कार्य आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन), अणुव्रतों, महाव्रतों और पूर्णचारित्र से आत्मा को रोक देना है।' यद्यपि कषायें संख्या में चार हैं अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ, तो भी उनके कार्यों के कारण वे सोलह मानी जाती हैं। प्रत्येक कषाय निम्नलिखित चार प्रकार की होती है- (1) अनन्तानुबंधी कषाय- यह आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन) को अवरुद्ध कर देती है जिसके फलस्वरूप अन्तरहित संसारी जीवन के लिए आधार तैयार हो जाता है, (2) अप्रत्याख्यानावरण कषाय- यह अणुव्रतों की ओर झुकाव को तिरोहित कर देती है, (3) प्रत्याख्यानावरण कषाय- यह महाव्रतों की ओर झुकाव को रोक देती है, और अंतिम (4) संज्वलन कषाय- यह पूर्णचारित्र को अवरुद्ध कर देती है, इस प्रकार अर्हत 17. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 282 (68) Ethical Doctrines in Jainism hent # 347Karita fecha For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्था की प्राप्ति विफल हो जाती है। इसके अतिरिक्त नौ कषाय हैं, जो कम बाधा डालनेवाली होने के कारण ईषत् कषाय कहलाती हैं। वे हैं- (1) हास्य (हँसी), (2) रति (प्रीति), (3) अरति (अप्रीति), (4) शोक (विषाद), (5) भय (डर), (6) जुगुप्सा (घृणा), (7) स्त्रीवेद (स्त्री की पुरुष के प्रति आसक्ति), (8) पुरुषवेद (पुरुष की स्त्री के प्रति आसक्ति) और (9) नपुंसकवेद (स्त्री-पुरुष के प्रति आसक्ति)।' जयसेन ने क्रोध, मान, माया, लोभ और नौ ईषत् कषाय को राग और द्वेष के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया। पूर्ववर्ती (राग) में माया, लोभ, हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद सम्मिलित हैं जबकि परवर्ती (द्वेष) में क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा को सम्मिलित किया गया है। (ग) क्रियाशील कषाय के रूप में लेश्या- जो कार्य कषायों द्वारा किये जाते हैं, वे प्रगाढ़ता की विभिन्न श्रेणियों में होते हैं और जो क्रियाओं के रूप में प्रकट होते हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि सांसारिक जीवन में योग कषायों के साथ गुंथा हुआ है। इनमें से कोई भी दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। एक का दूसरे में आत्मसात्करण लेश्या कहा जाता है। कषायों से रंजित क्रिया (योग) लेश्या होती है। यहाँ योग पर जोर दिया गया है, कषाय पर नहीं, जिससे अरहंतों को सम्मिलित किया जा सके जो शुक्ल लेश्या रखते हैं। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से कहें तो यह कहा जा सकता है कि जो आत्मा को कर्मों से संबंधित करती है, वह लेश्या कहलाती है। 18. सर्वार्थसिद्धि, 8/9 19. सर्वार्थसिद्धि, 8/9 20. समयसार, जयसेन की टीका, 282 21. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 489 22. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 386 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (69) : For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषाय की छह प्रकार की प्रगाढ़ता के अनुरूप लेश्या छह प्रकार की होती हैं- तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम जो क्रमश: इस प्रकार कही गयी हैं-(1) कृष्ण, (2) नील, (3) कापोत, (4) पीत, (5) पद्म और (6) शुक्ला प्रथम तीन अशुभ हैं और अंतिम तीन शुभ हैं। इसलिए वे क्रमशः पाप और पुण्य उत्पन्न करती हैं।24 छह प्रकार की लेश्याओं का उदाहरण क्रमशः निम्न प्रकार से ऐसे व्यक्तियों के दृष्टिकोण से बताया जा सकता है जो खाने के लिए फल चाहते हैं- (1) वृक्ष को जड़ से उखाड़ने के द्वारा, (2) वृक्ष के तने को काटने के द्वारा, (3) बड़ी शाखाओं को काटने के द्वारा, (4) छोटी शाखाओं को काटने के द्वारा, (5) केवल फल को तोड़ने के द्वारा और (6) धरती पर गिरे हुए फलों को रखने के द्वारा। (घ) संज्ञात्मक (मूलप्रवृत्त्यात्मक) क्रियाओं के रूप में कषाय- ये कषायें न केवल अपने आपको मिथ्यात्व, शुभ और अशुभ भावों के प्रकारों में और लेश्याओं में अभिव्यक्त करती हैं, बल्कि बाहरी वस्तुओं से संबंधित होने के कारण भिन्न-भिन्न नामों को प्राप्त करती हैं। जब लोभ कषाय बाहरी वस्तुओं को देखने से उत्पन्न होती है, तो परिग्रह संज्ञा कहलाती है। उसी तरह आहार, भय और मैथुन संज्ञा क्रमश: भोजन से, भययुक्त वस्तुओं और कामोत्तेजक वस्तुओं से उत्तेजित की जाती है। ये संज्ञाएँ कषायें ही हैं। (ङ) कषाय की अन्य अभिव्यक्तियाँ- ऐन्द्रिय वस्तुओं को भोगने के लिए कषायें इन्द्रियों को उत्तेजित करती है। इससे यह सिद्ध होता है कि 23. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 388 24. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 488 25. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 506, 507 26. षट्खण्डागम, भाग-2, पृष्ठ 413 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कषायों से प्रभावित होता है। वे इस हद तक काम कर सकती है कि जब प्रिय वस्तुएँ अलग होती है, और अप्रिय वस्तुएँ अपने समीप आती है, तो उससे तीव्र चिन्ता उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप मन की शांति नष्ट हो जाती है। फिर, एक प्रकार का सुख जो निर्दयता में, चोरी में, झूठ में और इन्द्रिय सुखों को बनाए रखने के लिए उपाय ढूँढ़ने में अनुभव किया जाता है, वह कषायों का ही एक मायावी प्रदर्शन है। बात यहाँ ही समाप्त नहीं होती है, बल्कि आगमों का स्वाध्याय, गुरु के प्रति भक्ति और इसी प्रकार अन्य भी कषायों की ही अभिव्यक्तियाँ है। इस प्रकार कषाय भिन्न-भिन्न कार्यों के कारण भिन्न-भिन्न नाम ग्रहण कर लेती है। कषायों का अभिनेता अपने आप को विभिन्न रूपों में दिखा सकता है और संसारी रंगमंच पर विभिन्न नामों और क्रियाओं के साथ अभिनय कर सकता है। लेकिन समझना यह है कि किसी को इस अभिनय से मोहित नहीं होना चाहिए और मात्र नाम और रूपों से धोखा नहीं खाना चाहिए। इसके विपरीत मूल में जो कषाय नाम और रूप धारण करती है, व्यक्ति को उनमें पैठते हुए कषायों को देखना चाहिए, कोई बात नहीं चाहे वे दयालुता, लोकोपकारिता, ईश्वर, गुरु और आगम की भक्ति, मायाचारी और अहंकार के रूप में हों। दूसरे शब्दों में, वे सद्गुण और अवगुण के रूप में विद्यमान हो। ऐसे दृष्टिकोण के रहते हुए कोई भी व्यक्ति आत्मानुभव से कम संतुष्ट नहीं होगा। . यह बताना अनुपयुक्त नहीं होगा कि 'कषाय' शब्द का प्रयोग जैन आगमों में सभी जगह इतने विस्तार से नहीं किया गया है जैसा ऊपर प्रस्तुत किया गया है, लेकिन कभी-कभी विशेष सन्दर्भ में सीमित अर्थ ही उपयुक्त होता है। उदाहरणार्थ समयसार के बंध अध्याय में कुन्दकुन्द Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (71) For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग, द्वेष, मोह और कषाय का उल्लेख करते हैं। प्रथम तीन अनंतानुबंधी कषाय के रूप में वर्णित हैं और अंतिम बताती है- अप्रत्याख्यानावरण कषाय, प्रत्याख्यानावरण कषाय और संज्वलन कषाय।” तत्त्वार्थसूत्र जब कषाय' शब्द का प्रयोग सातवें अध्याय में करता है, तो वह संज्वलन कषाय के अर्थ को बताता है।28 साम्परायिक आस्रव के कारण कषायें विभिन्न रूपों में साम्परायिक आस्रव का कारण होती हैं। कुन्दकुन्द, संक्षेप में शुभ साम्परायिक आस्रव की परिस्थितियों का वर्णन करते हैं- (1) प्रशस्त राग, (2) अनुकम्पासहित परिणाम, और (3) पापरहित चित्त। दूसरे शब्दों में (1) देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति, (2) उनकी सहायता करना जो दु:खी हैं, प्यासे और भूखे हैं, और (3) शान्त चित्त-ये सब क्रमशः उपर्युक्त वर्णित शुभ साम्परायिक आस्रव के विस्तार हैं। अशुभ साम्परायिक आस्रव उत्पन्न होता है- (1) अत्यधिक आलस्य सहित क्रिया से, (2) तीव्र कषायों से ग्रसित मानसिक अवस्थाओं से, (3) इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति से, (4) अन्य जीवों का अनादर करने से, (5) अन्य जीवों को परिताप (दुःख) देने से। इसके अतिरिक्त (1) चार संज्ञाएँ:- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह (मूलप्रवृत्तियाँ) (2) तीन अशुभ लेश्याएँ- कृष्ण, नील और कापोत (3) इन्द्रियों के प्रति आसक्ति (4) आर्तध्यान (5) रौद्रध्यान (6) व्यर्थ की बातों में ज्ञान 27. समयसार, 280 28. तत्त्वार्थसूत्र, 7/1 29. पञ्चास्तिकाय, 135 30. पञ्चास्तिकाय, 136-138 31. पञ्चास्तिकाय, 139 (72) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को लगाना (7) मोह (मूर्छा) - ये सभी अशुभ साम्परायिक आस्रव के स्रोत हैं। तत्त्वार्थसूत्र में साम्परायिक आस्रव के उनतालिस (39) कारण गिनाये गये हैं- कषायसहित पाँच इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण) पाँच प्रकार के अव्रत (हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह), चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) और पच्चीस क्रियाएँ। ___ पच्चीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं-34 (1) सम्यक्त्व (आध्यात्मिक जागरण) को बढ़ानेवाली क्रियाएँ उदाहरणार्थ- देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति, (2) मिथ्यात्वयुक्त (मूर्छायुक्त) क्रियाएँ, (3) एक स्थान से दूसरे स्थान पर शरीर का गमन, (4) व्रत लेने के पश्चात् उनकी अवहेलना की प्रवृत्ति, (5) विरक्ति की ओर प्रवृत्त क्रियाएँ, (6) क्रोध के वशीभूत क्रियाएँ करना, (7) दुष्ट भाव से कार्य करना, (8) हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना, (9) दूसरों को दुःख देनेवाली क्रियाएँ, (10) आत्मघाती और मानवघाती क्रियाएँ, (11-12) इन्द्रिय सुख के कारण रमणीय और मोहक वस्तुओं को देखना और छूना, (13) इन्द्रिय सुख के नये प्रकारों को प्रकाश में लाना, (14) ऐसे स्थान पर मल-मूत्र का त्याग करना जहाँ पुरुष, स्त्री और पशुओं का आवागमन हो, (15) अपरीक्षित (बिना देखे), अप्रमार्जित (बिना झाड़े) भूमि पर वस्तुओं को रखना, (16) दूसरों के द्वारा की जानेवाली क्रियाओं को स्वयं करना, (17) अनुचित वस्तुओं के लिए सलाह देना, (18) दूसरे व्यक्तियों की पापपूर्ण क्रियाओं की घोषणा करना, (19) आगम में कहे गये आदेश के अनुपालन में 32. पञ्चास्तिकाय, 140 33. तत्त्वार्थसूत्र, 6/5 34. सर्वार्थसिद्धि, 6/5 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त । (73) For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थ न होने के कारण उनका मिथ्या निरूपण करना, (20) पाखण्ड और आलस्य के कारण आगम में वर्णित विधि की तरफ अनादर का भाव रखना, (21) हिंसात्मक क्रियाओं को करना और दूसरे मनुष्यों के अनुचित कार्यों की प्रशंसा करना, (22) स्वयं के सांसारिक परिग्रह के संरक्षण की क्रियाएँ करना, (23) ज्ञान, दर्शन आदि के विषय में छलपूर्ण क्रियाएँ करना, (24) मिथ्यादर्शन (मूर्छा) में लगे हुए व्यक्ति की क्रियाओं को प्रोत्साहित करना और (25) संन्यास के प्रति अरुचि। ये सभी सामान्यरूप से साम्परायिक आस्रव के कारण हैं। विशेष साम्परायिक आस्रव तत्त्वार्थसूत्र में विभिन्न प्रकार के विशेष कर्मों के आस्रवों के कारणों का वर्णन किया गया है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव के कारण हैं-35 विमुक्त करनेवाला ज्ञान जब बताया जा रहा हो उस समय दुर्भावपूर्ण मौन रखना, अपने ज्ञान को छिपाना, जानते हुए भी जलन के कारण दूसरे को ज्ञान न देना, ज्ञानप्राप्ति में बाधा डालना, दूसरों के द्वारा बताये गये सत्य को अस्वीकार करना और अंत में आध्यात्मिक सत्य का खण्डन करना।असातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं-36 पीड़ारूप मानसिक अवस्था, सहानुभूति प्रकट करनेवाले व्यक्ति से संबंध विच्छेद होने पर उससे उत्पन्न शोक और व्याकुलता, बदनामी होने के कारण उद्विग्नता, आंतरिक असंतोष और अशान्ति के कारण रोना, किसी के भी इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास को नष्ट करना और दूसरों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए करुणाजनक विलाप करना। सातावेदनीय 35. तत्त्वार्थसूत्र, 6/10 सर्वार्थसिद्धि, 6/10 36. सर्वार्थसिद्धि, 6/11 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के आस्रव के कारण हैं- दानशीलता, विश्वजनीन अनुकम्पा, जो व्रतों का पालन करते हैं उनका विशेष ख्याल रखना, राग के साथ आत्मसंयम, मन, वचन और काय की शुभ कार्यों में एकाग्रता और क्रोध तथा लोभ का निष्कासन।” दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं- केवलियों, आगमों और साधुओं पर मिथ्यादोषारोपण करना। चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रव का कारण हैं- तीव्र मानसिक मनोभाव जो कषायों और ईषत् कषायों के उत्पन्न होने के कारण होता है। नरकायु के आस्रव के कारण हैं- हिंसा के कार्यों में सतत झुकाव, दूसरे मनुष्यों के धन की चोरी, स्वयं के परिग्रह पर अतिराग, इन्द्रिय विषयों में आसक्ति, मरण के समय कृष्ण लेश्या व रौद्रध्यान का प्रकट होना।40 तिर्यंचायु के आस्रव के कारण हैं- मन, वाणी और शरीर में असंगति, मिथ्या सिद्धान्तों का उपदेश, असंयमित जीवन, नील तथा कापोत लेश्या का प्रकट होना और शरीर से आत्मा के प्रयाण के समय आर्तध्यान। मनुष्यायु के आस्रव के कारण हैं- विनम्रता की प्रवृत्ति, सरल स्वभाव और सरल व्यवहार, मन्द कषाय और मरण के समय मन में अशान्ति न होना।42 देवायु के आस्रव के कारण हैं- अणुव्रत व सरागसंयम का पालन, विवशता में शांतिपूर्वक भूख और प्यास को सहना और बिना आध्यात्मिक प्रभाव के तप करना। अशुभनामकर्म 37. सर्वार्थसिद्धि, 6/12 38. सर्वार्थसिद्धि, 6/13 39. सर्वार्थसिद्धि, 6/14 40. तत्त्वार्थसूत्र, 6/15 __सर्वार्थसिद्धि, 6/15 41. तत्त्वार्थसूत्र, 6/16 42. तत्त्वार्थसूत्र, 6/17, 18 - 43. तत्त्वार्थसूत्र, 6/20 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (75) For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आस्रव के कारण हैं- मन-वचन-काय में असंगति, अस्थिरचित्त (मन की चंचलता), चुगलखोरी, माप-तोल में बेईमानी, आत्मप्रशंसा और परनिन्दा। शुभनामकर्म के आस्रव के कारण हैं- मन-वचनकाय में संगति और एकाग्र चित्त। नीचगोत्र कर्म के आस्रव के कारण हैं- अपनी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा, दूसरों के अच्छे गुणों पर परदा डालना और उनके अनुचित कार्यों की घोषणा करना। उच्चगोत्र कर्म के आस्रव के कारण हैं- उच्चकोटि के व्यक्तियों के सामने विनम्रता, और ज्ञान में अत्युत्तम होते हुए भी नम्रता, अपनी निन्दा और दूसरे की प्रशंसा। अन्तरायकर्म के आस्रव के कारण हैं- दूसरे के दान, लाभ, वस्तुओं के भोग (एक बार उपयोग), वस्तुओं के उपभोग (बार-बार उपयोग) और वीर्य (पुरुषार्थ के प्रयोग) में विघ्न डालना।46 कुन्दकुन्द के अनुसार आस्रव और बंध अब हम कुन्दकुन्द के अनुसार आस्रव और बंध के बारे में विचार करेंगे। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी रचनाओं का प्रमुख बिन्दु आध्यात्मिक जाग्रति है। संक्षेप में, वे उन सभी विचारों को व्यर्थ मानते हैं, जो चेतना में अन्तर्निहित दिव्यता के जागरण की तरफ मन को निर्दिष्ट नहीं करते हैं। परिणामस्वरूप वे किसी अन्य पक्ष पर इतना जोर नहीं देते हैं, जितना आध्यात्मिक जाग्रति पर। ऐसा लगता है कि वे अध्यात्मवाद के प्रसार के लिए अत्यन्त जागरूक हैं, अत: उनकी प्रत्येक अभिव्यक्ति इस एक ही बात को उजागर करती है। 44. तत्त्वार्थसूत्र, 6/22 45. तत्त्वार्थसूत्र, 6/23 46. तत्त्वार्थसूत्र, 6/27 सर्वार्थसिद्धि, 6/27 (76) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनुसार वे राग, द्वेष और मोह" को आस्रव के कारण ही नहीं बल्कि आस्रव ही मानते हैं, जो आध्यात्मिक जाग्रति में बाधक हैं। वे इस बात को जानते हैं कि केवल आध्यात्मिक जाग्रति के होने से ही तुरन्त मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि पूर्णचारित्र की कमी रहती है। इस बात की घोषणा से कि व्यक्ति सम्यग्दर्शन ( आध्यात्मिक जाग्रति) की प्राप्ति के पश्चात् कर्मों के आस्रव से रहित होता है (उनका ) आत्मा के जीवन की तरफ शक्तिशाली दृष्टिकोण व्यक्त होता है। आध्यात्मिक जाग्रति के पश्चात् पूर्णचारित्र अपरिहार्य है, इस जन्म में नहीं तो किसी दूसरे जन्म में | राग, द्वेष और मोह जो आस्रव की पूर्ववर्ती शर्त है वही बंध की भी पूर्ववर्ती शर्त है। इन अशुद्ध मनोभावों की उपस्थिति में आत्मा अपने में पराये कर्मों को आकर्षित और आत्मसात करती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि बाह्य जगत की वस्तुएँ बंध का कारण नहीं हैं। यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यदि उनको बंध का कारण माना जाता है तो मुक्ति मृगमरीचिका और छल हो जायेगी, क्योंकि अस्तित्ववान होने से बाहरी वस्तुओं को हम नष्ट नहीं कर सकते। तब प्रश्न यह है कि बाह्य वस्तुओं का रखना और उनसे संबंधित होना क्यों मना किया गया है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि संसारी आत्मा अर्थात् वह आत्मा जिसने पवित्र अवस्था प्राप्त नहीं की है, वह उनकी उपस्थिति में अशुद्ध मनोभावों के कारण उनके अधीन हो जाता है। इसलिए निश्चय ही बंध का वास्तविक कारण तो अशुद्ध मनोभावों की उपस्थिति है, परिसर में स्थित वस्तुएँ नहीं हैं। लेकिन निम्न अवस्था में 47. समयसार, 177 समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 164, 165 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (77) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुएँ अनजाने में ही संसारी आत्मा को अशुद्धता से भर देती हैं।48 परिणामस्वरूप हम सरसरी तौर पर कह सकते हैं कि यदि व्यक्ति को आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रयत्न करना है, तो प्रारंभिक अवस्था में अपने परिसर के प्रति सचेत होना चाहिए। बंध के कारणों को अन्य प्रकार से समझाने के लिए कुन्दकुन्द अध्यवसान का आश्रय लेते हैं, जिसका अर्थ है, आत्मा और अनात्मा में भ्रांति। इसका अभिप्राय है सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) का अभाव। मारने का विचार, जिलाने का विचार, दुःखी करने का विचार और सुखी करने का विचार और संक्षेप में, आत्मा का अशुभ प्रवृत्तियों (हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह) से तादात्म्यकरण का विचार और शुभ प्रवृत्तियों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) से तादात्म्यकरण का विचार अध्यवसान का उदाहरण है।' यद्यपि आत्मा दूसरे सभी अस्तित्ववान द्रव्यों से पृथक् है, तो भी वह अध्यवसान के कारण उनके साथ तादात्म्य कर लेती है, अत: आवागमन के दुःखद फल को सहती है। दूसरे शब्दों में, जब तक आत्मा शुभाशुभ वस्तुओं से तादात्म्यकरण की प्रवृत्ति को नहीं छोड़ती है, तब तक दुःख से छुटकारा नहीं हो सकता है। संवर, निर्जरा और मोक्ष की निश्चय (पारमार्थिक) दृष्टि जो कुछ कहा गया है उससे स्पष्ट है कि संसारी आत्मा का कषाय और योग से संबंध होने के कारण सांसारिक जीवन फलित होता है। 48. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 265 49. समयसार, 262 50. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 271 51. समयसार, 260, 261, 263, 264 (78) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांसारिक सुख और दुःख से रहित होने का अभिप्राय साम्परायिक आस्रव की समाप्ति है। इसका अभिप्राय है- अन्तर में स्थित कर्मशत्रुओं का विनाश। दूसरे शब्दों में, जब मन, वचन और काय की क्रियाएँ शुभ और अशुभ मनोभावों के प्रभाव से रहित हो जाती हैं तो साम्परायिक आस्रव की समाप्ति फलित होती है। 52 फिर, हम कह सकते हैं कि कर्मास्रवों का अवरोध फलित होता है, यदि कषायें पूर्णतया नष्ट कर दी जाती हैं और समताभाव जीवन में रूपान्तरित होता है। 3 53 निश्चय (पारमार्थिक) श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र जिसके फलस्वरूप आत्मा की सम्यक् अनुभूति घटित होती है, वह मोक्षप्राप्ति से एकरूप है। यह कहना इस बात के समान है कि जिसने आत्मानुभव की उच्चतम ऊँचाई पर उड़ान भरी है, वह कर्मों के आस्रव को न केवल रोकता है बल्कि आत्मा में स्थित अपवित्रता को ही मिटा देता है । पूर्ववर्ती क्रिया संवर कही जाती है और परवर्ती क्रिया निर्जरा और मोक्ष कही जाती है। आध्यात्मिक लीनता की उच्चतम अवस्था में संवर और निर्जरा के माध्यम से मोक्ष प्राप्त होगा। केवल सिद्ध अवस्था में (आत्मा की अन्तहीन विदेह अवस्था में) साम्परायिक और ईर्यापथ आस्रव समाप्त हो जाते हैं। दो प्रकार के आस्रवों में से हम यहाँ पूर्ववर्ती आस्रव से अधिक संबंधित हैं, क्योंकि वह ही ऐसा आस्रव है, ( ईर्यापथ आस्रव के विरोध में ) जो आत्मा के संसार में आवागमन के लिए उत्तरदायी है। ईर्यापथ आस्रव नाममात्र का होता है, जो यथासमय क्षीण हो जाता है। 52. पञ्चास्तिकाय, 143 53. पञ्चास्तिकाय, 142 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (79) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्रक्रिया उपर्युक्त वर्णित संवर, निर्जरा और मोक्ष को निश्चय दृष्टिकोण से कार्यान्वित करना काफी सरल प्रतीत होता है, किन्तु आत्मा अनादिकाल से शुभ और अशुभ मनोभावों में दोलायमान रहती है, जिसके फलस्वरूप सद्गुण और अवगुण के सापेक्ष जीवन को हटाना लगभग असंभव-सा प्रतीत होता है, और कभी-कभी ऐसा मालूम होता है कि यह मात्र कल्पना है या एक स्वप्न जो कार्यान्वित नहीं किया जा सकता है। लेकिन साधुओं ने इसकी व्यावहारिकता को दर्शाया है। निःसन्देह ऐसे जीवन में बिना किसी आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन के छलांग लगाना निराशा और उदासी में उतार देगा। किन्तु यदि गुरु की शिक्षाएँ ईमानदारी और निष्ठा से पालन की जाती हैं, तो दिखावटी कठिनाइयाँ समाप्त हो जायेगी। जैन आचार्य जो स्वयं बड़े साधक हैं, उन्होंने स्पष्टतया बताया है कि धर्मयात्रा के प्रारंभ में सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जाना चाहिये, क्योंकि अकेले सम्यग्दर्शन में हमारे चारित्र को सत्यनिष्ठ (सम्यक्) बनाने की अन्तःशक्ति है। तत्पश्चात् अशुभ मनोभावों का परित्याग किया जाना चाहिए और शुभ मनोभावों को ग्रहण किया जाना चाहिए। लेकिन गृहस्थ शुभ मनोभावों में पूर्णरूप से नहीं रह सकता है, अत: वह अणुव्रतों का पालन करता है, महाव्रतों का नहीं। महाव्रत केवल मुनि द्वारा पालन किये जाते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि संवर क्रमिक होता है। केवल व्यवहार दृष्टिकोण से ही संवर, निर्जरा और मोक्ष में भेद किया जाना चाहिए। ये तीनों आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि एक दूसरे की तरफ ले जाता है। आस्रव और बंध के विरोध में ये तीन तत्त्व मनुष्य जीवन को अध्यात्म में ले जाते हैं। वास्तव में संवर मोक्ष प्रक्रिया का उद्घाटन है। (80) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पूर्ण क्रिया का प्रथम कदम प्रारंभ होता है सम्यग्दर्शन के उषाकाल से, द्वितीय कदम संवर और निर्जरा का सूचक है जब दूसरा कदम उच्चतम अवस्था तक क्रियाशील होता है तब तृतीय कदम मोक्ष को निर्दिष्ट करता है। यह आवश्यक नहीं है कि हम यहाँ संवर, निर्जरा और मोक्ष के कारणों पर विचार करें, क्योंकि गृहस्थ का आचार और मुनि का आचार इन तीन तत्त्वों की प्राप्ति के उदाहरण हैं। मोक्ष के प्रमुख कारण के रूप में सम्यग्दर्शन _ अब हम सम्यग्दर्शन के स्वरूप के बारे में विचार करेंगे। यह आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ है, और यह मोक्षरूपी विशाल भवन का आधार है। 'यशस्तिलक' बताता है कि यह मोक्ष का प्रमुख आधार है जैसे- नींव महल का मुख्य आधार होता है, उत्तम भाग्य सौन्दर्य का आधार होता है, शारीरिक सुख जीवन का आधार होता है, संस्कृति कुलीनवर्ग का आधार होती है और जैसे नीति सरकार का आधार होती है। सम्यग्दर्शन के जरिये सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार यह धर्म का मेरुदण्ड है। धर्म का अर्थ है- आत्मा के स्वभाव में अनवरत ध्यान। 'उत्तराध्ययन' बताता है कि सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के • अभाव में अलभ्य रहता है और सम्यक्चारित्र सम्यग्ज्ञान के अभाव में असंभव होता है। . सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र संभव है सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) की प्राप्ति के पश्चात् .. एक प्रश्न पूछा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन के द्वारा सम्यग्ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि यद्यपि 54. Yasastilaka and Indian Culture, P. 248 55. Uttarādhyayana, 28/30 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (81) For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलचाल में ज्ञान श्रद्धा से पहले घटित होता है, फिर भी (वास्तव में कहा जाय तो) सम्यग्दर्शन के प्रदीप्त होने के पश्चात् ही ज्ञान आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का कारण होता है। यहाँ 'सम्यक्' शब्द प्रारंभ में लगाना ज्ञानमीमांसात्मक महत्त्व नहीं रखता है, किन्तु यह आध्यात्मिक मूल्य का द्योतक है। यद्यपि सम्यग्दर्शन का धारक रस्सी को साँप के रूप में जानता है, जो ज्ञानात्मक रूप से अप्रमाणिक है, फिर भी उसका ज्ञान सम्यक् समझा जायेगा। इसके विपरीत सम्यग्दर्शनरहित व्यक्ति यद्यपि वह संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दूर करके वस्तु को जैसी है वैसी जानता है, तो भी वह आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सम्यक्ज्ञाता नहीं कहा जा सकता है। अतः ज्ञानमीमांसात्मक निश्चितता ज्ञान के सम्यक् होने से कोई संबंध नहीं रखती है। वह (सम्यक् होना) तो आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन) से उत्पन्न होता है। ____ पारमार्थिक अनुभव के संदर्भ में सम्यग्ज्ञान से पूर्व सम्यग्दर्शन होता है। यद्यपि उनका कार्य-कारण संबंध होता है, फिर भी वे एकसाथ उत्पन्न होते हैं जैसे प्रकाश जलते दीपक के साथ उत्पन्न होता है। एकसाथ उत्पन्न होने से उनका भेद (प्रकाश और दीपक) नष्ट नहीं हो सकता है। उसी तरह सम्यक्चारित्र के पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होते हैं। उनके अभाव में चारित्र भी नैतिकता के परे नहीं जा सकता है। दर्शनपाहुड बताता है कि सम्यग्दर्शन से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है, जिससे सद्गुणात्मक और अवगुणात्मक मार्ग जाने जाते हैं, और सम्यग्दर्शन का धारक अवगुणों को नष्ट कर देता है, और शील (सद्गुण) ग्रहण करता है, जिससे वह मुक्ति का अनुभव करता है। 56. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 34 57. दर्शनपाहुड, 15, 16 मूलाचार, 903, 904 (82) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों में यह देदीप्यमान रत्न जो ज्ञान और चारित्र को प्रकाशित करता है विभिन्न प्रकार से समझाया गया है। इसके विभिन्न प्रकारों को निश्चय और व्यवहार के दृष्टिकोण से समझाया जा सकता है। ये आध्यात्मिक नय इतने विस्तृत हैं कि वे सम्यग्दर्शन के विभिन्न प्रतीत होनेवाले लक्षणों में सामञ्जस्य कर सकते हैं, जो विभिन्न आचार्यों द्वारा जैन इतिहास के विभिन्न कालों में बताये गये हैं। अब हम सम्यग्दर्शन के विविध लक्षणों पर विचार करेंगे। सम्यग्दर्शन के विविध लक्षण कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में सम्यग्दर्शन के स्वरूप की विशेषता बताते हैं- छह द्रव्यों, नौ पदार्थों, पाँच अस्तिकायों और सात तत्त्वों में दृढ़ श्रद्धा रखना। नेमिचन्द्राचार्य व्यक्त करते हैं- छह द्रव्यों, पाँच अस्तिकायों और नौ पदार्थों में श्रद्धा सम्यग्दर्शन को बतानेवाली है। मोक्षपाहुड बताता है- अहिंसा धर्म में श्रद्धा, दोषों से रहित देव और केवलज्ञानी का उपदेश सम्यग्दर्शन के सूचक हैं।60 नियमसार बताता है- पूर्ण आत्मा में, आगम में और छह द्रव्यों में श्रद्धा सम्यग्दर्शन के स्वरूप को निर्धारित करती है। इसके अतिरिक्त 'मूलाचार' और 'उत्तराध्ययन' के अनुसार नौ पदार्थों में श्रद्धा सम्यग्दर्शन के स्वरूप को व्यक्त करती है। 62 वसुनन्दी श्रावकाचार के अनुसार- आप्त, आगम और सात तत्त्वों में अविचल . 58. दर्शनपाहुड, 19 59. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 560 60. मोक्षपाहुड, 90 61. Niyamsāra, 5 62. मूलाचार, 203 Uttaradhyayana, 28/14, 15 ___Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (83) For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। कुछ महान आचार्य जैसे-उमास्वामी,64 अमृतचन्द्र और 'द्रव्यसंग्रह' के रचनाकार सर्वसम्मति से सम्यग्दर्शन को सात तत्त्वों की श्रद्धा के रूप में चित्रित करते हैं। स्वामीकार्तिकेय के अनुसारजो सम्यग्दर्शन धारण करना चाहता है वह नौ पदार्थों में श्रद्धा रखे तथा उसको अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में भी श्रद्धा रखनी चाहिए। आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में जो व्यक्ति आप्त, आगम और गुरु में तीन प्रकार की मूढ़ताओं को छोड़कर, आठ प्रकार के मद से रहित होकर और सम्यग्दर्शन के आठ अंगों को ग्रहण करके श्रद्धा रखता है, वह सम्यग्दर्शन का धारक है। हम पहले ही छह द्रव्यों, पाँच अस्तिकायों, सात तत्त्वों, नौ पदार्थों, अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को समझा चुके हैं जो सम्यग्दर्शन के विभिन्न दृष्टिकोणों में उल्लिखित हैं। हम सम्यग्दर्शन के आठ अंगों को यहाँ समझायेंगे। प्रथम, हम आप्त, आगम और गुरु की विशेषताओं पर विचार करेंगे। 63. वसुनन्दि श्रावकाचार, 6 64. तत्त्वार्थसूत्र, 1/2 65. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 22 66. Dravya-Samgraha, 41 67. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 311, 312 68. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 4 *तीन मूढ़ताएँ- (1) देव मूढ़ता, (2) गुरु मूढ़ता और (3) आगम मूढ़ता। आठ मद- (1) ज्ञान, (2) प्रतिष्ठा, (3) कुल, (4) जाति, (5) बल, (6) ऋद्धि या विद्या, (7) तप और (8) शरीर। (84) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप्त, आगम और गुरु की विशेषताएँ 70 (1) आप्त की विशेषताएँ - केवलज्ञान सहित होना, वंदनीय होना, मानवीय दुर्बलताओं से अदूषित व अस्पर्शित रहना, वीतरागी होना, पूर्णतया विमल होना, किसी भी प्रकार की इच्छा से रहित होना, आदि, अन्त और मध्य से रहित होना, अद्वितीयरूप से कल्याणकारी होना । 69 इनके अतिरिक्त बिना किसी स्वार्थ के संसारी और दुःखी जीवों के हित के लिए उपदेश देना।7° (2) आगम की विशेषताएँ - वही सत्य आगम है जो आप्त से सहज रूप से प्रवाहित होता है, अखण्डनीय होता है, सभी प्राणियों के लिए हितकर होता है, मिथ्या मार्ग को नष्ट करनेवाला और वस्तुओं के वास्तविक स्वभाव को प्रकट करनेवाला होता है। 72 (3) गुरु की विशेषताएँ - जो इन्द्रिय आसक्ति की पराधीनता से अपने को दूर रखता है, और सांसारिक व्यस्तताओं और परिग्रह को त्यागता है, आध्यात्मिक अनुभव से अत्यधिक रूप से सम्पन्न होता है, तप और ध्यान में संलग्न रहता है वह सद्गुरु कहलाता है। 72 इस प्रकार हमने प्रसिद्ध जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित सम्यग्दर्शन के स्वरूप का सर्वेक्षण किया है। प्रारंभ में वे विभिन्न प्रतीत होते हैं, किन्तु हम यहाँ यह बताना चाहते हैं कि सम्यग्दर्शन की उपर्युक्त सभी विशेषताएँ व्यवहार दृष्टिकोण से न्यायोचित हैं। 69. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 7 70. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 8 71. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 9 Niyamsāra, 8 72. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 10 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (85) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात तत्त्वों की श्रद्धा उपर्युक्त सभी विशेषताओं में मुख्य . व्यवहार दृष्टिकोण से सम्यग्दर्शन की सभी विशेषताओं की वैधता होते हुए भी इन सबमें प्रमुख विशेषता सात तत्त्वों में श्रद्धा है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि इन सात तत्त्वों में दृढ़ श्रद्धा स्पष्टरूप से मोक्षप्राप्ति की सम्पूर्ण प्रक्रिया को व्यक्त करती है, जो सामान्य बुद्धिवाले के द्वारा भी समझी जा सकती है। जैन आचार्यों का मत है कि आप्त, आगम और गुरु में श्रद्धा वैध है, यदि यह तत्त्वों में श्रद्धा उत्पन्न करती है। इसका अर्थ यह है कि कभी-कभी आप्त आदि में श्रद्धा, तत्त्वों में श्रद्धा उत्पन्न नहीं करती है, अत: अधिक महत्त्व सात तत्त्वों में श्रद्धा को दिया गया है। यहाँ यह भी ध्यान दिया जा सकता है कि श्रद्धा को मात्र बौद्धिक ज्ञान से नहीं मिलाना चाहिए। यद्यपि बौद्धिक ज्ञान संभवतया, आवश्यकरूप से नहीं, सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की तरफ ले जा सकता है। यह (सम्यग्दर्शन) एक प्रकार की अंतरंग दृष्टि है, जो आध्यात्मिक सत्य में एक अविचल निष्ठा उत्पन्न करती है। यह मताग्रह नहीं है, किन्तु बौद्धिक निष्ठा है। परम्परावाद अबौद्धिकवाद के अर्थ में निन्दा किया जाना चाहिए, किन्तु बौद्धिक निष्ठा ग्रहण और स्वीकार की जानी चाहिए। यहाँ यह माना व विचारा जा सकता है कि केवल वे व्यक्ति जो मानसिकरूप से सुसज्जित (Well-equipped) हैं, सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के योग्य होते हैं। किन्तु हम यहाँ यह बताना चाहते हैं कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति मानसिक सुसज्जा से संबंध नहीं रखती है और न जैनकुल में जन्म लेने से ही इसका संबंध है। अध्यात्मवाद पर एकाधिपत्य नहीं हो सकता है। जहाँ कहीं भी यह (अध्यात्मवाद) दृष्टिगत होता है, वहाँ निःसन्देह उन तत्त्वों के नामों से परिचित हुए बिना भी सात तत्त्वों की श्रद्धा को (86) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने क्षेत्र में समाविष्ट करता है। उनका सार महत्त्वपूर्ण है, उनके नाम तो भिन्न भी हो सकते हैं। अतः कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन को धारण करता है, उसको स्वयं को आत्मा मानना चाहिए; दुःख के कारणों को जानना चाहिए; उनको मिटाने के साधनों को समझना चाहिए, उसको केवल कषायों को ही अपना शत्रु समझना चाहिए, यद्यपि वह उनके नाम न जाने फिर भी उसको यह बोध होना चाहिये कि असीम आनन्द उनके नष्ट होने से उत्पन्न होता है। लोकातीत ( निश्चय, शुद्ध) दृष्टि में सम्यग्दर्शन यदि हम गंभीररूप से चिंतन करें तो सात तत्त्वों या नौ पदार्थों में श्रद्धा भी सम्यग्दर्शन के स्वभाव को यथार्थ नहीं मानती है। सम्यग्दर्शन का वास्तविक स्वभाव लोकातीत (शुद्ध) आत्मा में दृढ़ श्रद्धा रखना है। सात तत्त्व में स्वयंप्रकाशमान तत्त्व आत्मा है और परिणामस्वरूप आत्मा की स्वाभाविक शुद्धता में दृढ़ श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन कहा जाता है। कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में बताते हैं कि शुद्धात्मा के प्रति श्रद्धा निश्चय सम्यग्दर्शन है और इसके विपरीत, सात तत्त्वों के प्रति श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है।74 अमृतचन्द्राचार्य समयसार की टीका में निश्चय या शुद्धनय को ही सम्यग्दर्शन के रूप में स्वीकार करते हैं।” यह इसलिए कहा गया है कि शुद्धनय आत्मा को कर्मों से असम्बद्ध और अस्पर्शित स्वीकार करता है और राग-द्वेष आदि मनोभावों को आत्मा से तादात्म्य रहित मानता है।" यह आत्मा को अविनाशी, ज्ञानादि गुणों के होते हुए भी अविभक्त और चार गतियों से उत्पन्न अशुद्ध पर्यायों से रहित मानता है।” इस 73. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 13 74. दर्शनपाहुड, 20 75. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 12 76. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 14 77. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 14 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (87) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार सम्यग्दर्शन जो आध्यात्मिक जाग्रति है, शुद्धनय में श्रद्धा के समान माना जाना चाहिए। अतः ये दोनों समानार्थक हैं। सम्यग्दर्शन का यह चित्रण सात तत्त्वों में श्रद्धा का निषेध नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन वह पारमार्थिक दृष्टिकोण से उच्चतम आत्मा में श्रद्धा का सूचक है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आत्मा के सम्यक् स्वभाव में श्रद्धा होनी चाहिए जो यह बताती है कि सम्यग्दर्शन और शुद्धात्मा एकरूप है। इस प्रकार व्यवहार सम्यग्दर्शन वैध और सफल है यदि वह निश्चय सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करता है। 78 सम्यग्दर्शन के प्रकार 79 जैन साहित्य में सम्यग्दर्शन के विभिन्न प्रकार विभिन्न दृष्टिकोणों से गिनाये गये हैं। कुछ सरागी आत्माएँ और कुछ वीतरागी आत्माएँ सम्यग्दर्शन से युक्त होती हैं, अतः हम कह सकते हैं सम्यग्दर्शन क्रमशः सराग और वीतराग होता है। फिर, सम्यग्दर्शन अन्य दो प्रकार का भी होता है। जब वह स्वयं उत्पन्न होता है अर्थात् जो बिना किसी उपदेश के प्रकट हो वह निसर्गज होता है और जब वह गुरु के उपदेश के कारण उत्पन्न होता है वह अधिगमज कहा जाता है। 80 सम्यग्दर्शन के आठ अंग व्यावहारिक दृष्टिकोण से अब हम सम्यग्दर्शन के आठ अवयवों पर विचार करेंगे। वे सम्यग्दर्शन के आठ अंग भी कहे जा सकते हैं। जैसे विभिन्न अंग शरीर की रचना करते हैं, उसी प्रकार ये आठ अंग सम्यग्दर्शन के अनिवार्य घटक हैं। उनमें से एक की भी छूट उस आदमी के पंखों को काट देगी जो अध्यात्मवाद 78. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 22 79. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ10 80. सर्वार्थसिद्धि, 1/3 (88) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की ऊँचाई पर उड़ना चाहता है जिससे अमिट आनन्द प्राप्त किया जा सके। समन्तभद्र घोषणा करते हैं कि सर्पविष से उत्पन्न दर्द अधूरे मन्त्र से समाप्त नहीं किया जा सकता है। उसी प्रकार वे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन खण्डित अंगों से उस अशान्ति को जो संसार में व्याप्त है, नष्ट करने में असमर्थ रहेगा।1 सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं- (1) निःशंकित, (2) नि:कांक्षित, (3) निर्विचिकित्सा, (4) अमूढदृष्टि, (5) उपगूहन, (6) स्थितीकरण, (7) वात्सल्य और (8) प्रभावना। (1) निःशंकित- जो निःशंकित अंग का धारक है वह केवली के द्वारा बताये गये द्रव्य के स्वभाव में शंका नहीं करता। इसके अतिरिक्त वह इस सिद्धान्त में दृढ़ रहता है कि सारे प्राणियों के प्रति दया धर्म है और उनको क्षति पहुँचाना अधर्म है। 4 इस अंग का स्वभाव मनुष्य की जिज्ञासा वृत्ति को नष्ट करना नहीं है। शंका निंदनीय नहीं है यदि इसका उद्देश्य वस्तुओं के स्वभाव का निर्णय करना हो। प्रारंभिक सन्देहवाद अंतिम निश्चितता की ओर ले जा सकता है। जहाँ हमारी अशक्त बुद्धि वस्तुओं में नहीं पैठ सकती वहाँ उनमें श्रद्धा सर्वोत्तम होती है, क्योंकि तीर्थंकर पक्षपात से उपदेश नहीं देते। जहाँ तर्कशास्त्र अपने पंखों को फैला सकता है वहाँ बौद्धिक चिन्तन से विश्वास किया जाना चाहिये जिससे मतान्धता प्रवेश न कर सके। - उचित मार्ग में दृढ़ विश्वास होने के कारण इस अंग का धारक 81. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 21 82. चारित्रपाहुड, 7 Uttarādhyayana, 28/31 83. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 23 84. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 414 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात प्रकार के भयों को हटा देता है जो मिथ्यादृष्टि आत्माओं में सामान्यतया उपस्थित होते हैं। वह भयभीत नहीं होता है- जब वे वस्तुएँ जो उसको शारीरिक और मानसिक सुख देती है, उससे अलग होती हैं, जब दुख और घोर व्यथा उससे संयुक्त होती हैं। वह पुनर्जन्म से सम्बन्धित भययुक्त विचार से व्याकुल नहीं होता है। इसके अतिरिक्त, उसने मृत्यु के भय को, रोग से उत्पन्न होने वाली अशान्ति को, संसार की आकस्मिक घटनाओं के भय को और अपनी सुरक्षा के भय को और अपनी संपत्ति या आत्मसंयम के खोने के भय को हटा दिया है। (2) निःकांक्षित-निःकांक्षित अंग का अर्थ है कि निष्ठावान व्यक्ति सांसारिक संपत्ति और स्वर्गीय सुखों के पीछे नहीं भागता है, क्योंकि उसको यह विश्वास हो चुका है कि ये . सांसारिक सुख अस्थायी हैं, दुःखों से भरे हुए हैं, पाप और अनिष्ट के उत्पादक हैं और कर्ममल से उत्पन्न होते हैं। वह एकान्तिक दृष्टियों को नहीं पकड़ता है। (3) निर्विचिकित्सा- निर्विचिकित्सा अंग का धारक विविध प्रकार की शारीरिक अवस्थायें जो व्याधि, भूख, प्यास, सर्दी और गर्मी आदि से उत्पन्न होती हैं उनसे घृणा नहीं करता है। शरीर तीन रत्न- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सम्माननीय बन जाता है। इसलिए निर्विचिकित्सा अंग ऐसे सम्माननीय शरीर की तरफ घृणित दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता है और इस अंग का धारक लोकातीत गुणों के प्रति भक्ति रखता है। 8 (4) अमूढदृष्टि- मिथ्यात्व के कारणों से बचकर रहना और अपने आपको कुमार्ग पर चलनेवाले व्यक्तियों से 85. मूलाचार, 53 भावना-विवेक, 41, 43-51 86. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 12 87. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 24 88. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 13 (90) Ethical Doctrines in Jainism fer # 3/Trulia hala For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंबंधित करना अमूढदृष्टि अंग कहलाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार भय, हीनता और लालच के वशीभूत होकर जो व्यक्ति हिंसा को धर्म नहीं मानता वह मूढ़ता से रहित होता है। अमूढदृष्टि व्यक्ति कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र, कुचारित्र और झूठी सामान्य धारणाओं को त्यागने पर जोर देता है।" (5) उपबृंहण- जो व्यक्ति पवित्र विचारों में ठहरकर अपने आपमें आध्यात्मिक गुण विकसित करता है और जो अपने गुणों को नहीं उघाड़ता है वह उपबृंहण का पालन करनेवाला होता है।(6) स्थितीकरण- क्रोध, मान, माया, लोभ या दूसरे कारणों तथा तीव्र कषायों से प्रभावित होकर सत्यमार्ग से भटकने के लिए कोई भी व्यक्ति बाध्य किया जा सकता है। ऐसे समय में उसको अपनी महानता की याद दिलाकर सुमार्ग में पुनःस्थापित करना स्थितीकरण अंग कहलाता हैं। दूसरे शब्दों में, उन व्यक्तियों को उठाना जो धर्म से गिर गये हों और अपने आपको दोषों से बचाना- ये दोनों स्थितीकरण अंग को बताते हैं। (7) वात्सल्य-94 जो आध्यात्मिकता के प्रति अनुराग और अहिंसा के प्रति प्रेम रखते हैं और जो आध्यात्मिक बंधु है उनके प्रति स्नेह रखते हैं ऐसे व्यक्ति वात्सल्य अंग का पालन करते हैं। वह जो गुणवानों के प्रति भक्ति रखता है उनका अत्यन्त आदर से अनुसरण करता है और उनके साथ भली प्रकार से व्यवहार करता है वह भी 89. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 14 90. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 417 91. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 26 92. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 27 93. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 16 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 28 94. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 419 95. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 29 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 17 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (91) For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वात्सल्य अंग का धारक है।% (8) प्रभावना- जो अपने आपको दस धर्मों और तीन रत्नों से सुसज्जित करता है, अध्यात्मधर्म का प्रचार करता है, दान, तप, भक्ति, ज्ञान और दूसरे समयोचित साधनों से उनका प्रसार करता है वह प्रभावना अंग को पालनेवाला होता है।” सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताएँ आठ अंग जो सम्यग्दर्शन के घटक हैं उनके अतिरिक्त दूसरी भी विशेषताएँ हैं जो सम्यग्दर्शन के साथ रहती हैं। प्रथम, चार विशेषताएँ(1) मन्द कषायों (शुभ भावों) का होना, (2) उन कारणों से हटना जो संसार को बढ़ाते हैं, (3) द्रव्यों के प्रति असंदेहवादी दृष्टि का होना और (4)विश्वजनीन करुणा की अभिव्यक्ति। इन्हें क्रमश: कहा गया है-(i) प्रशम,(i)संवेग, (iii)आस्तिक्य और (iv) अनुकम्पा। सोमदेव कहते . हैं कि सम्यग्दर्शन यद्यपि आत्मा की अवस्था होने के कारण बहुत सूक्ष्म है, परन्तु उसका अनुमान प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा के आधार से किया जा सकता है। द्वितीय, तीन दूसरी विशेषताएँ हैं जो सम्यग्दृष्टि के द्वारा धारण की जाती है- (1) अपने मन में अपने पापों की निन्दा करना, (2) अपने चरित्र की दुर्बलता गुरु के सामने प्रकट करना और (3) अरहन्तों की भक्ति। इनको क्रमशः निन्दा, गर्दा और भक्ति कहा जाता है। तृतीय, सम्यग्दृष्टि अत्यधिक सावधान होता है इसलिए मद रूपी मैल को अन्दर नहीं आने देता है। इस प्रकार वह आठ 96. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 420 97. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 30 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 18 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 421, 422 98. राजवार्तिक, भाग-1, 2/30 99. Yasastilaka and Indian Culture, P. 255 (92) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार के मद को मन और व्यवहार से मिटा देता है। आठ मद हैं- (1) ज्ञानमद, (2) प्रतिष्ठा या पूजामद, (3) कुलमद, (4) जातिमद, (5) बलमद, (6) ऋद्धिमद या धनमद, (7) तपमद और (8) शरीरमद।100 लोकातीत (निश्चय) दृष्टि से सम्यग्दर्शन के अंग __सम्यग्दर्शन के स्वरूप, इसके अनिवार्य घटक और इसके साथ रहनेवाली विशेषताओं को व्यावहारिक दृष्टिकोण से समझाने के पश्चात् अब हम उनके स्वभाव को लोकातीत (निश्चय) दृष्टि से समझायेंगे। प्रथम, नि:शंकित अंग का धारक स्वयं शुद्धात्मा के स्वभाव के विषय में संदेह रहित रहता है और अपनी आत्मा से सात प्रकार के भय का निष्कासन कर देता है। वह आत्मा में श्रद्धा को दृढ़ करता है। प्रज्ञावान (आत्म-श्रद्धावान) मनुष्य अपनी आत्मा को वास्तविक जगत मानता है। अत: वह विचारता है कि इस जीवनसम्बन्धी भय और भविष्यसम्बन्धी भय बचकाने और झूठे हैं। इसके अतिरिक्त शुद्धात्मा के दृष्टिकोण से वर्तमान जीवन और भविष्य के जीवन में भेद और उससे सम्बन्धित भय भी निराधार और अप्राकृतिक है।102 जो आत्मा को सांसारिक सुख और दुःख से परे समझता है, उसको शाश्वतरूप से अस्तित्ववान मानता है, दर्शन और ज्ञान की संपत्ति को धारण करता है और ज्ञानरूपी प्राणों से जीवित रहता है, दूसरे विभाव गुणों को स्थान नहीं देता है वह व्यक्ति वेदना का भय, सुरक्षा का भय, परिग्रह खोने का भय, मरण का भय और आकस्मिक घटना के भय को मिटा देता है।103 द्वितीय, जो कर्मफल 100. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 25 101. समयसार, 228 102. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 228 103. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 228 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (93) For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की इच्छा नहीं करता है वह नि:कांक्षित अंग का धारक होता है।104 तृतीय, निर्विचिकित्सा अंग का धारक वस्तु के स्वाभाविक गुणों के प्रति घृणा नहीं करता है। 05 चतुर्थ, अमूढदृष्टि अंग को पालनेवाला व्यक्ति ऐसी अन्तर्दृष्टि विकसित करता है कि वह शुभ और अशुभ मनोभावों के तादात्म्यकरण से अपने को रोक पाता है।106 पाँचवाँ, उपबृंहण अंग आध्यात्मिक शक्ति के विकास को बताता है। 107 छठा, आत्मा को ज्ञान और चारित्र में पुन:स्थापित करना स्थितीकरण अंग कहलाता है।108 सातवाँ, सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्नों के लिए या अपनी आत्मा के लिए गहरा अनुराग वात्सल्य कहलाता है।10% आठवाँ, प्रभावना अंग अज्ञानरूपी अंधकार को मिटाने के उद्देश्य से शाश्वत प्रकाश प्रकट करने के लिए आत्मा का पोषण करता है। 10 लोकातीत (निश्चय)दृष्टि से सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताएँ लोकातीत दृष्टिकोण से सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताओं के सम्बन्ध में हम कह सकते हैं कि प्रज्ञा के बीज के कारण प्रज्ञावान व्यक्ति शुद्धात्मा में दृढ़ श्रद्धा करता है। परिणामस्वरूप वह सभी शुभ और अशुभ क्रियाओं के साथ असम्बन्धित हो जाता है। वह अपने आपको उनका कर्ता नहीं मानता, इस प्रकार सम्पूर्ण अज्ञान का आधार नष्ट कर देता है। इसके अतिरिक्त अब वह अपने आपको उनका भोक्ता 104. समयसार, 230 105. समयसार, 231 106. समयसार,232 107. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 233 108. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 234 109. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 235 110. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 236 (94) Ethical Doctrines in Jainism sterf Å STERizie fogla त For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं मानता है। जो कुछ भी वह कर्ता है और भोक्ता है वह कर्मों की शक्ति और अपनी दुर्बलता के कारण होता है। किन्तु अंतरंग रूप से उसमें रुचि नहीं होती, क्योंकि उसने एक उच्चकोटि का रस प्राप्त कर लिया है। जैनाचार की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के रूप में सम्यग्दर्शन हमने सम्यग्दर्शन के स्वभाव को तत्त्वों में दृढ़ श्रद्धा के रूप में समझाने का बार-बार प्रयास किया है, जो अन्ततोगत्वा हमें शुद्धात्मा में दृढ़ श्रद्धा अपनाने के लिए प्रेरित करता है। सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र नैतिकता से परे होने में असमर्थ रहेगा। एक मुनि जो अपनी तपस्या मात्र नैतिक धारणाओं पर आधारित करता है वह उस गृहस्थ से श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है जिसका अंतरंग सम्यग्दर्शन के प्रकाश से प्रकाशित हो चुका है क्योंकि मुनि तो आनन्द की अवस्था से परे स्वर्गीय सुखों को प्राप्त करने के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहा है, जबकि गृहस्थ सही दिशा की ओर प्रवृत्त है जिसके कारण जो कुछ उसके मूलभूत स्वभाव के योग्य है वह फल उसको यथासमय प्राप्त होगा। शुभ भाव आध्यात्मिकरूप से जाग्रत व्यक्ति के लिए ठहरने के अस्थायी स्थान हैं जब वे आत्मानुभव के शिखर पर ठहरने में असमर्थ होते हैं। इस प्रकार ऐसे साधक शुभ कार्यों को सम्पन्न करने में अवचेतन अहंकार से भी अपने आप को मुक्त कर लेते हैं। इसके विपरीत जो केवल नैतिकरूप से रूपान्तरित हुए हैं वे शुभ भावों की प्राप्ति और शुभ क्रियाओं को सम्पन्न करने को ही अन्तिम उद्देश्य मानते हैं। अतः वे अन्तहीन सांसारिक जीवन के बंधन में पड़ जाते हैं, जिसके कारण वे आध्यात्मिक जाग्रति से पूर्व आध्यात्मिक आनन्द से सदैव वंचित रहेंगे। इसके अतिरिक्त उनका गूढ़ ज्ञान और 111. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 135,136 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (95) For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके द्वारा एक हजार वर्ष या उससे अधिक भी सम्पन्न की गयी कठोर तपस्या- ये दोनों ही सम्यग्दर्शन के अभाव में आध्यात्मिकरूप से निष्फल होंगे। 112 कुन्दकुन्द निर्भय होकर घोषणा करते हैं कि प्रज्ञावान (जाग्रत) मनुष्य चेतन और अचेतन वस्तुओं को भोगते समय कर्मों की निर्जरा करते हैं इस तरह से वे नये बन्धन को टालते हैं। प्रारंभ में यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, किन्तु यह न्यायसंगत हैं, क्योंकि वे अनासक्त दृष्टि अपनाते हैं और कर्मों की शक्ति को प्रभावहीन करने में असमर्थ होने के कारण उन्हें कुछ क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। यह बात अज्ञानी मनुष्य के लिए घटित नहीं होती है, जो वस्तुओं की आसक्ति के कारण कर्म-मैल से युक्त होता है और वह आसक्ति के कारण नये कर्म बाँधता है। यह बात जो कही गयी है वह सम्यग्दर्शन के महत्त्व को समझाने के लिए है। इसका उद्देश्य दुर्वासनाओं के प्रति आसक्ति को जीवन में बढ़ावा देना नहीं है । इस तरह हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण जैनाचार चाहे वह गृहस्थ का हो या मुनि का, पूर्णतया निष्फल है यदि उसकी पृष्ठभूमि में सम्यग्दर्शन नहीं है। दूसरे शब्दों में, सम्यग्दर्शन जो कि शुद्धात्मा की सच्ची श्रद्धा है, उसको आत्मसात् किए बिना सम्पूर्ण जैनाचार का पालन पूर्णतया परिश्रम को व्यर्थ करना है। इस प्रकार जैनाचार अध्यात्मवाद पर आधारित है। यहाँ हम यह उल्लेख करने से भी नहीं रुक सकते कि जैनधर्म केवल आचारशास्त्र और तत्त्वमीमांसा ही नहीं है किन्तु अध्यात्मवाद भी है जो इस बात से स्पष्ट होता है कि जैन दार्शनिकों ने सम्यग्दर्शन की वास्तविक 112. दर्शनपाहुड, 4, 5 (96) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्ति को मोक्षप्राप्ति के लिए बिना किसी अपवाद के आवश्यक माना है। इस तरह से अध्यात्मवाद सम्पूर्ण जैनाचार में व्याप्त है। अतः प्रथम, यह आरोप कि जैनाचार नैतिकता से परे जाने में असमर्थ है और द्वितीय, यह आरोप कि यह हमें अध्यात्म के अथाह समुद्र में नहीं उतारता है (ये दोनों आरोप) समाप्त हो जाते हैं। Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (97) For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्याय गृहस्थ का आचार पूर्व अध्याय का संक्षिप्त विवरण पूर्व अध्याय में हमने सम्यग्दर्शन के स्वभावसहित सात तत्त्वों पर विचार किया है। प्रथम, जीव और अजीव तत्त्व के स्वभाव का वर्णन करने के पश्चात् हमने 'योग' के स्वभाव (आत्मा की कम्पनात्मक क्रिया) तथा संसारी और सदेह अर्हन्त आत्माओं पर इसके (योग के) प्रभाव की व्याख्या की है। द्वितीय, कषायों के स्वभाव के साथ ही उनके बहुविध अस्तित्व और उनकी प्रक्रियाओं को समझाया गया है। तृतीय, हमने शुभ और अशुभ साम्परायिक आस्रव के कुछ कारणों का वर्णन किया है। आस्रव और बंध के सम्बन्ध में कुन्दकुन्द की दृष्टि से भी विचार किया गया है। चतुर्थ, संवर, निर्जरा और मोक्ष के स्वभाव को संक्षेप में दर्शाया गया है, क्योंकि वे आत्मा के नैतिक-आध्यात्मिक विकास के उदाहरण हैं। पाँचवाँ, हमने व्यवहार और निश्चय दृष्टिकोण से सम्यग्दर्शन के स्वरूप पर विचार किया है तथा ज्ञान और चारित्र की प्रामाणिकता के लिए इसके (सम्यग्दर्शन) महत्त्व पर बल दिया है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि कोई भी आचरण जो उच्चतम आध्यात्मिक अनुभव की प्राप्ति में सहायक होता है वह आध्यात्मिक जाग्रति की अपेक्षा रखता है और यह जैन आचार को आध्यात्मिक मानने में अपने आप एक सबूत है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में सभी बौद्धिक ज्ञान और नैतिक आचरण साधक को उस उच्चकोटि की प्राप्ति से वंचित कर देगा जिसकी उसमें अन्तर्निहित योग्यता है। (98) Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक् चारित्र आध्यात्मिकरूप से सम्यग्दृष्टि (जाग्रत व्यक्ति) की आन्तरिक आवश्यकता अब हम सम्यक्चारित्र के स्वरूप का वर्णन करेंगे जो आत्मा की संभाव्य उत्कृष्टताओं को यथार्थता में बदल देता है। सम्यक्चारित्र का पालन उन बातों का उन्मूलन कर देता है जो अनवरत आनन्द और अनन्तज्ञान को रोकते हैं। सम्यग्ज्ञान का प्रकाश साधक को अपने अवगुणों को देखने के योग्य बनाता है। सम्यग्ज्ञान मोक्षमार्ग को प्रकाशित करता है और सम्यक्चारित्र मोक्षप्राप्ति के लक्ष्य की ओर ले जाता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त सम्यक्चारित्र भी मोक्ष के लिए आवश्यक है। वास्तव में सम्यक्चारित्र सम्यग्दृष्टि की आन्तरिक आवश्यकता से उत्पन्न होता है। उसके द्वारा वह वर्तमान और भविष्य की अवस्थाओं के मध्य और संभाव्य श्रद्धा और वास्तविक जीवन के मध्य स्थित असामञ्जस्य को मिटा देता है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि आचरण का पालन करता हुआ आत्मा की स्वाभाविक पर्याय के लिए उत्कट रूप से इच्छुक होता है। वीतराग चारित्र और सराग चारित्र आत्मा के स्वरूप के अनुभव के लिए सम्यक्चारित्र का पालन इतना महत्त्वपूर्ण है कि कुन्दकुन्द उसे धर्म कहते हैं।' ऐसा चारित्र जो व्यापक अर्थ में सभी प्रकार की कषायों की समाप्ति का कारण होता है वह . वीतराग चारित्र कहलाता है। इसका सराग चारित्र से भेद किया जाना चाहिये, जो शुभ क्रियाओं में शुभ मनोभावों के कारण फलित होता है और यह चारित्र स्वाभाविकता ( आत्मानुभव) के शिखर से नीचे उतरना 1. प्रवचनसार, 1/7 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (99) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है।2 वीतराग चारित्र का परिणाम मोक्ष होता है फलस्वरूप उसी का पालन किया जाना चाहिये और सराग चारित्र शुभ कर्मों का बंधन उत्पन्न करा है, अतः आध्यात्मिक शिखर पर पहुँचने की रुचिवालों को उसे भी छोड़ देना चाहिये। इस कर्म बंधन के होते हुए भी शुभ क्रियाएँ कुछ सीमा तक चारित्र का हिस्सा समझी जा सकती हैं, लेकिन अशुभ क्रियाएँ जो अशुभ मनोभावों से उत्पन्न होती हैं वे किसी भी प्रकार चारित्र का हिस्सा नहीं हो सकती हैं, अतः वे पूर्णतया छोड़ दी जानी चाहिये । इस प्रकार अशुभ मनोभावों को आत्मा से मिटाने के उद्देश्य से साधक को हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से अपने आपको मुक्त रखना चाहिये। ऐसे पापमय कार्यों में आत्मा की तल्लीनता अत्यधिक तीव्र कषायों की अभिव्यक्ति का सूचक है। उनको पापमय कार्यों के न करने से समाप्त किया जा सकता है। आत्मा की शुद्धि की इस निषेधात्मक प्रक्रिया के लिए विधेयात्मक प्रक्रिया का पालन अनिवार्यरूप से अपेक्षित है। अत: इन अशुभ क्रियाओं को समाप्त करने के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पालना आवश्यक है। इस प्रकार दोनों प्रकार की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती हैं। नैतिक (शुभ) और अनैतिक (अशुभ) क्रियाओं को करने के सम्बन्ध में सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) और मिथ्यादृष्टि ( मूर्च्छित) में भेद हम सरसरी तौर पर यह उल्लेख करना आवश्यक मानते हैं कि सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) भी उपर्युक्त अशुभ क्रियाओं को करने में व्यस्त हो सकता है। ऐसा समझना प्रथम दृष्टि में ज्ञानी और अज्ञानी या सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) और मिथ्यादृष्टि (मूर्च्छित) में भेद मिटा देगा। लेकिन यह मान्यता किसी मिथ्याबोध (गलतफहमी ) पर आश्रित है। उनमें बाहरी समानता होते 2. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/6 (100) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हए भी वे आन्तरिक भिन्नता दर्शाते हैं अर्थात् ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) किसी अप्रकट दबाव में अनिच्छापूर्वक ऐसी अशुभ क्रियाओं को करते हैं, जब कि अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) प्रसन्नतापूर्वक उनको करता है। इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि का अशुभ क्रियाएँ करना असंगत नहीं है। यह सच है कि दोनों ज्ञानी और अज्ञानी अशुभ मनोभावों को उन्मूलन करने में समर्थ होते हैं। लेकिन भिन्नता यह है कि सम्यग्दृष्टि में आध्यात्मिक नैतिकता होती है, मिथ्यादृष्टि में केवल शुष्क नैतिकता होती है जो आध्यात्मिकता के बिना संभव है। शुष्क नैतिकता सामाजिक दृष्टि से उपयोगी है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से निष्फल है जब कि आध्यात्मिक नैतिकता सामाजिक दृष्टि और आध्यात्मिक दृष्टि दोनों से हितकर है। सूक्ष्म और दूरगामी होने के कारण इन दोनों प्रकार की नैतिकता में अंतरंग भेद हमारे सीमित ज्ञान के बाहर रह जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) के लिए नैतिकता साधन है जब कि मिथ्यादृष्टि (मूर्च्छित) के लिए अपने आप में लक्ष्य है। यह स्मरण रखना चाहिये कि किसी भी प्रकार की नैतिकता व्यर्थ नहीं हो सकती है अत: जहाँ कहीं भी यह देखी जाती है हमारे सम्मान के योग्य होती है। आंशिक चारित्र (विकल चारित्र) की आवश्यकता यह आश्चर्यजनक है कि उपर्युक्त अशुभ क्रियाएँ किसी भी प्रकार चारित्र का हिस्सा न होते हुए भी मनुष्य के मन में गहराई से स्थित होने के कारण ये प्रारंभ से ही पूर्णतया नहीं छोड़ी जा सकती है। अत: इससे सीमित नैतिकता की धारणा उत्पन्न होती है उसे विकल चारित्र कहा जाता है। इसके विपरीत पूर्ण नैतिकता सकल चारित्र कहा जाता है। जिसमें अशुभ क्रियाएँ पूर्णतया छोड़ी जाती है। जो विकल चारित्र का पालन करता है वह अशुभ क्रियाओं को पूर्णतया छोड़ने में असमर्थ होता 3. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 50 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (101) For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है अत: उसे गृहस्थ कहा जाता है। जो सकल चारित्र का पालन करता है वह शुभ क्रियाओं को पूर्णतया पालन करने में समर्थ होता है अतः उसे मुनि कहा जाता है। इस अध्याय में हम विकल चारित्र का वर्णन करेंगे और सकल चारित्र को अगले (खण्ड-2) में समझायेंगे। मनुष्य की विशिष्ट स्थिति जैन तत्त्वज्ञान अनन्त आत्माओं और पुद्गल के अनन्त परमाणुओं का अन्य द्रव्यों सहित उल्लेख करता है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक अनन्तं चेतन द्रव्यों में से मनुष्य अकेला विकास की अंतिम सीमा जाना जाता है। दूसरे शब्दों में, केवल मनुष्य अपने संभाव्य गुणों को पूर्णतया प्रकट करने में समर्थ है। यद्यपि प्रत्येक आत्मा अन्तःशक्ति की अपेक्षा दिव्य है फिर भी आत्म-स्वतन्त्रता की प्राप्ति उसी समय संभव होती है जब आत्मा मनुष्य के रूप में जन्म लेती है, अत: यह मनुष्य जन्म का महत्त्व है। त्याग का दार्शनिक दृष्टिकोण सजीव और निर्जीव वस्तुएँ अपने आप में शुभ और अशुभ नहीं होती हैं। उन्हें शुभ और अशुभ कहा जाता है जब वे संसारी आत्माओं के सम्बन्ध में विचारी जाती हैं। वे प्राय: संसारी आत्माओं पर इस हद तक प्रभाव डालती हैं कि मन्द कषाय या तीव्र कषाय आत्मा में उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, मन्द कषाय या तीव्र कषाय किसी विशेष वस्तु के लिये लालायित होने में अपने आप को सन्तुष्ट करती है। तीव्र कषाय अशुभ (अवगुण) और मन्द कषाय शुभ (सद्गुण) होती है। उदाहरणार्थ-भक्ति मन्द कषाय है, किन्तु कामुक विचार और विलासिता तीव्र कषाय है। बाह्य वस्तु और अन्तरंग मनोभावों में समानान्तरता के कारण बाह्य वस्तुओं को छोड़ना उसके अनुरूप तीव्र कषाय को नष्ट करने में सहयोग करता है। 4. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 90 (102) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि बाह्य वस्तुओं का त्याग अंतरंग तीव्र कषाय के नाश में और भक्ति, स्वाध्याय और ध्यान के विकास में फलित नहीं होता है तो ऐसा अनुशासन पूर्णतया व्यर्थ होगा। अतः तीव्र कषाय को छोड़ना बड़ा महत्त्वपूर्ण है यद्यपि बोलचाल में वैराग्य का मतलब होता है बाह्य संबंधों और वस्तुओं के जगत से अपने आपको दूर हटाना, फिर भी जो अंतरंग अर्थ है वह तो तीव्र कषायरूपी मैल को दूर हटाना है जो अवश्य ही आत्मा को संबंधों और वस्तुओं से दूर ले जायेगा। तीव्र कषायें हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह पाप रूप में चित्रित की गयी हैं। इन पापों (अवगुणों) के निष्कासन के लिए सद्गुण अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आवश्यक हैं। इनमें से अहिंसा आधारभूत सद्गुण है । अहिंसा को उचित प्रकार से संपोषित करने के लिए शेष सभी सद्गुण साधन के रूप में माने गए हैं, जिस प्रकार अनाज के खेत की रक्षा के लिए पर्याप्त घेराबन्दी आवश्यक होती है।' गृहस्थ आंशिक रूप से इन सद्गुणों का पालन करते हैं, जो अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत कहलाते हैं। अब हम एक-एक करके पापों का वर्णन करेंगे और उनसे गृहस्थ के आंशिक व्रतों के विषय क्षेत्र को जानने का प्रयास करेंगे। - हिंसा का व्यापक अर्थ · लोकातीत (निश्चय) दृष्टिकोण से हम यह कह सकते हैं कि पूर्ण आत्मानुभव से थोड़ा-सा भी पतन हिंसा समझी जानी चाहिए। दूसरे शब्दों में, आत्मा में मन्द कषाय या तीव्र कषाय की उत्पत्ति से हिंसा प्रारंभ 5. सर्वार्थसिद्धि, 7/1 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (103) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है। इस दृष्टि से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि हिंसा की धारणा में सद्गुण और अवगुण दोनों सम्मिलित होते हैं, लेकिन हम यहाँ केवल तीव्र कषाय (अवगुण) के रूप में हिंसा के अर्थ का विवेचन करेंगे। इसलिए इस दृष्टि से असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह हिंसा के उदाहरण हैं। इस प्रकार हिंसा सभी पापों का संक्षिप्तीकरण है। लोक प्रचलित अर्थ में (जिस पर अभी विचार किया जायेगा) हिंसा का असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से भेद है। हिंसा में द्रव्यप्राण और भावप्राण प्रत्यक्ष रूप से पीड़ित किये जाते हैं, जब कि शेष- असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य . और परिग्रह में वे प्राण अप्रत्यक्ष रूप से पीड़ित किये जाते हैं। हिंसा का लोकप्रचलित अर्थ तीव्र-कषाय-ग्रसित योग' (मन, वचन और काय की प्रक्रिया) से द्रव्यप्राणों और भावप्राणों को पीड़ित करने के रूप में हिंसा परिभाषित की जा सकती है। आत्महत्या, मानवहत्या और अन्य प्राणियों का वध हिंसा के स्वभाव को उपयुक्त ढंग से प्रस्तुत करता है, क्योंकि ये पापकार्य उसी समय संभव होते हैं जब अपने स्वयं के और दूसरे के द्रव्यप्राण और भावप्राण पीड़ित किए जाते हैं। द्रव्यप्राण कम से कम चार और अधिक से अधिक दस होते हैं और भावप्राण जीव के गुण ही है। पीड़ा की मात्रा प्राणों को किसी भी समय और अवसर पर पीड़ित करने के अनुपात में होगी। सावधानीपूर्वक की गई शारीरिक क्रियाओं से यदि कोई भी प्राणी पीड़ित हो जाता है तो यह हिंसा नहीं कही जा सकती है, क्योंकि तीव्र कषाय का अभाव है। इसके विपरीत, यदि असावधानीपूर्वक की 6. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 44 7. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 43 तत्त्वार्थसूत्र,7/13 8. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 45 (104) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई शारीरिक क्रियाओं से कोई भी प्राणी पीड़ित नहीं होता है तो भी क्रियाएँ हिंसा से मुक्त नहीं है। यहाँ यद्यपि आत्मा ने दूसरों को पीड़ा नहीं पहुँचाई है, फिर भी इसने अपने स्वाभाविक स्वभाव को मलिन करके स्वयं को पीड़ित किया है। अतः हम कह सकते हैं कि हिंसा में प्रवृत्ति और हिंसा के त्याग का न होना दोनों हिंसा कही जाती है। दूसरे शब्दों में, वह व्यक्ति जिसने हिंसा का त्याग नहीं किया है यद्यपि वह वास्तव में हिंसा में प्रवृत्त नहीं हो रहा है, फिर भी अवचेतन मन में इसको करने का भाव होने से हिंसा करता है। वह व्यक्ति, जो मन-वचन-काय को दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में लगाता है, वास्तव में वह तो हिंसा करता ही है। इस प्रकार जहाँ कहीं भी मन-वचन-काय की असावधानी होगी वहाँ हिंसा अनिवार्य है। बाह्य आचरण की शुचिता भी आवश्यक है यदि कोई व्यक्ति तर्क करता है कि किन्हीं बाह्य क्रियाओं को छोड़ना उपयोगी नहीं है केवल आन्तरिक मन अदूषित होना चाहिए, लेकिन निम्नस्तर पर, जहाँ आत्मानुभव नहीं होता है वहाँ अंतरंगरूप से झुके बिना बाह्य क्रियाएँ संभव नहीं होती हैं। अत: बाह्य और अंतरंग एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और अत्यधिक उदाहरणों में अंतरंग बाह्य से पहले होता है। इस प्रकार अंतरंग विकृति की उपस्थिति के बिना बाह्य हिंसा संभव नहीं है। जो केवल अंतरंग पर जोर देता है बाह्य की कीमत . पर, वह बाह्य आचरण के महत्त्व को भूल जाता है। वह इस बात को 9. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 46, 47 10. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 48 11. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 48 - 12. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 50 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (105) For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूल जाता है कि बाह्य क्रियाओं की अपवित्रता आवश्यकरूप से अंतरंग मन को विकृत कर देती है। इस तरह से अंतरंग और बाह्य दोनों पक्ष बिगड़ जाते हैं। परिणामस्वरूप, दोनों निश्चय और व्यवहारनय अर्थात् अंतरंग और बाह्य दोनों पक्षों को उचित स्थान दिया जाना चाहिए। हिंसा और अहिंसा के कृत्यों का निर्णय हम यहाँ बताना चाहते हैं कि जैन दार्शनिक बाह्य व्यवहार और अंतरंग मन:स्थिति के बीच विषमता की संभावना को अनदेखी नहीं करते और परिणामस्वरूप वे हिंसा और अहिंसा के कृत्यों के निर्णय में व्याकुल नहीं होते हैं अर्थात् कौन-सा कृत्य हिंसा के फल को उत्पन्न करेगा और कौन-सा कृत्य अहिंसा के रूप में निर्णीत होगा? ख्यातिप्राप्त जैन दार्शनिक अमृतचन्द्र अपनी प्रख्यात पुस्तक पुरुषार्थसिद्धयुपाय में उपर्युक्त तथ्यों पर स्पष्टता से विचार करते हैं। प्रथम, वे प्रतिपादन करते हैं कि वह जो स्पष्टरूप से बाह्य हिंसा नहीं करता तो भी हिंसा करने में मानसिक झुकाव होने के कारण हिंसा के फल को प्राप्त करता है और वह जो हिंसा के कार्यों में स्पष्ट रूप से अपने को नियोजित करता है, वह हिंसा के फल के लिए (मानसिक झुकाव न होने के कारण) उत्तरदायी न माना जाए। द्वितीय, कोई व्यक्ति तीव्र कषाय के कारण तुच्छ हिंसा करने पर भी गंभीर परिणामों को प्राप्त करता है जब कि दूसरा व्यक्ति हिंसा के भारी कार्य करते हुए भी मन्द कषाय के कारण गंभीर परिणामों से छुटकारा पा जाता है। तृतीय, यह आश्चर्यजनक है कि दो व्यक्ति एकसी हिंसा के कार्यों में लगे हुए होने के बावजूद भी मानसिक स्थिति और कषायों की प्रबलता में भेद होने के कारण फल भोगते समय उनमें अन्तर 13. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 51 14. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 52 (106) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखा जा सकता है। चतुर्थ, यद्यपि हिंसा एक के द्वारा की जा सकती है, तो भी परिणाम अनेक के द्वारा भोगे जा सकते हैं; उसी प्रकार हिंसा अनेक के द्वारा की जा सकती है, किन्तु फल एक के द्वारा भोगा जा सकता है। इन सबसे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हिंसा और अहिंसा के कृत्यों का निर्णय करने में अंतरंग मानसिक स्थिति को महत्त्वपूर्ण बताया गया है। हिंसा के प्रकार हिंसा दो प्रकार की होती है- संकल्पात्मक और असंकल्पात्मक।” संकल्पात्मक हिंसा करनेवाला व्यक्ति मन, वचन और क्रिया से हिंसा करने में स्वयं को लगाता है; दूसरों को हिंसा करने में उकसाता है और दूसरों की ऐसी क्रियाओं का अनुमोदन करता है। असंकल्पात्मक हिंसा करनेवाला व्यक्ति उद्यमी, आरंभी और विरोधी हिंसा करता है। जो हिंसा अनिवार्यरूप से की जाती है अर्थात् अपने व्यवसाय के कारण, घरेलू क्रियाओं के करने के कारण और स्वयं की, पड़ौसी की, देश की, अपनी वस्तुओं की शत्रुओं से रक्षा करने के कारण, वह क्रमश: असंकल्पात्मक उद्यमी, आरंभी और विरोधी हिंसा कही जाती है। अहिंसाणुव्रत गृहस्थ अशक्त होने के कारण अपने आपको हिंसा से पूर्णतया हटाने में असमर्थ होता है। अत: उसको दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के - 15. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 53 16. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 55 17. जैनदर्शनसार, पृष्ठ 63 18. जैनदर्शनसार, पृष्ठ 63 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (107) For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों की संकल्पात्मक हिंसा से अपने आपको दूर रखना चाहिए।" किसी व्यवसाय में व्यस्त होने के कारण, घरेलू कार्यों के करने में और आत्मरक्षा की योजनाओं में हिंसा करना उसके द्वारा व्यर्थ नहीं माना जा सकता है। वह एकेन्द्रिय जीवों की अर्थात् वनस्पतिकायिक, वायुकायिक और अग्निकायिक आदि की संकल्पात्मक हिंसा करता है और आरंभ में (घरेलू क्रिया में), उद्योग में (व्यवसाय में) और विरोध में (सुरक्षा के लिए) असंकल्पात्मक हिंसा करता है। इसलिए वह अहिंसा का स्थूलरूप से पालन करता है जो अहिंसाणुव्रत कहा जाता है। यद्यपि वह एकेन्द्रिय जीवों के क्षेत्र में और असंकल्पात्मक हिंसा के क्षेत्रों में अपनी. क्रियाओं को इस तरह व्यवस्थित करता है जिससे बहुत सीमित संख्या में जीवों के अस्तित्व पर प्रभाव पड़े। इन दो क्षेत्रों में (एकेन्द्रिय जीव का क्षेत्र और असंकल्पात्मक हिंसा का क्षेत्र) हिंसा की मात्रा को कम करने का उद्देश्य होता है, पूर्णतया छोड़ने का नहीं, जो मनुष्य के जीवन को जोखिम में डाले बिना संभव नहीं है। फिर भी, हिंसा एकेन्द्रिय जीव के क्षेत्र में और असंकल्पात्मक हिंसा के क्षेत्र में न्यायसंगत नहीं है। अगर हम थोड़ा विचार करें तो हमको ज्ञात होगा कि मनुष्य अपने जन्म से ही हिंसा के अधीन रहता है। फिर भी हिंसा के स्वाभाविक भार को एक दूसरे पर 19. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 75 चारित्रपाहुड, 24 रत्नकरण्ड श्रावकाचार,53 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 332 सागारधर्मामृत, 4/7 अमितगति श्रावकाचार, 6/4 20. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 77 वसुनन्दी श्रावकाचार, 209 योगशास्त्र, 2/21 (108) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा करके बढ़ाने की बजाय और पशु-जगत और वनस्पति-जगत के साथ निर्दयतापूर्वक बर्ताव करने के बजाय हमको आध्यात्मिक गुरुओं के पवित्र आदेश के अनुसार चलकर जहाँ तक हम कर सके इस अभिशाप को कम करने का प्रयत्न करना चाहिए। ____ अहिंसाणुव्रत का पालन करने के लिए गृहस्थ को मद्य, मांस, मधु और *ऊमर, कठूमर, पाकर, बड़ और पीपल- इन पाँच प्रकार के उदुम्बर फलों के प्रयोग से दूर रहना चाहिए।1 (1) मद्यपान- प्रथम, अहंकार, क्रोध, काम-वासना आदि तीव्र कषायों को उत्पन्न करता है।2 द्वितीय, वह बुद्धि को संवेदनशून्य कर देता है जिससे सद्गुण नष्ट होते हैं और नैतिकरूप से भ्रष्ट हिंसा के कृत्य किए जाते हैं। तृतीय, प्रचुर जीवों की खान होने के कारण मद्यपान आवश्यकरूप से उनके लिए पीड़ादायक 21. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 61,72 सागारधर्मामृत, 2/2 अमितगति श्रावकाचार, 5/1 22. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 64 23. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 62 वसुनन्दी श्रावकाचार, 70,77 अमितगति श्रावकाचार, 5/2 *ऊमर (गूलर) - इसके फल पकने पर नारंगी रंग के जैसे होते हैं। इसमें सदा फल लगे रहते हैं। कठूमर - इसमें अंजीर की तरह बहुत बीज होते हैं। . पाकर - इसके फल छोटे-छोटे पीपल के फल के समान लगते हैं। बड़- इसके फल छोटे-छोटे झरबेर के समान होते हैं। पीपल - यह लता जाति की वनौषधि का फल है। इसकी बेल अन्य लताओं की भाँति विस्तार में नहीं बढ़ती किन्तु थोड़ी ही दूरी में फैलती है। Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (109) For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है।24 (2) मांसभक्षण- प्रथम, मांस की प्राप्ति प्राणियों का वध किए बिना नहीं हो सकती और प्राणियों की स्वाभाविक मृत्यु से इसे प्राप्त कर भी लिया जाय तो भी उसमें जीवों की स्वाभाविक उत्पत्ति और उनके विनाश के कारण हिंसा अनिवार्य है। द्वितीय, मांस के टुकड़े जो कच्चे हैं या पके हुए हैं या पकाये जाने की प्रक्रिया में हैं उनमें अनवरत जीवों की उत्पत्ति पायी जाती है, परिणामस्वरूप, जो मांसभक्षण की ओर प्रवृत्त है वह जीवों की हिंसा से बच नहीं सकता है।6 (3) मधु- इसका प्रयोग इस आधार पर आपत्तिजनक है कि मधुमक्खियों के जीवन का और मधुमक्खियों के गर्भ में अंडों को घात करके यह प्राप्त किया जाता है और यदि मधु स्वाभाविकरूप से टपकने पर इकट्ठा किया जाय, तो भी उनमें जीवों की स्वत: उत्पत्ति होने से उनकी हिंसा होती है।” (4) पाँच प्रकार के उदुम्बर फल- ये विभिन्न प्रकार के जीवों की उत्पत्ति के आधार हैं और उनका प्रयोग भोजन के लिए और दूसरे उद्देश्यों के लिए जीवहिंसा होने के कारण त्याज्य कहा गया है। उनके सूख जाने पर भी उनके प्रयोग करने से हमारी अत्यधिक आसक्ति के कारण हिंसा होती है। 24. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 63 अमितगति श्रावकाचार, 5/6 सागारधर्मामृत, 2/4,5 Yasastilaka and Indian Culture, p.262 25. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 65, 66 अमितगति श्रावकाचार, 5/14 सागारधर्मामृत, 2/78 26. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 67, 68 27. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 69, 70 28. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 72 29. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 73 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाणुव्रत का पालन करने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए। प्रथम, देवताओं से आशीर्वाद प्राप्त करने की धारणा से प्रभावित होकर किसी भी व्यक्ति को पशुओं की बलि नहीं देनी चाहिए।३० द्वितीय, मेहमानों के स्वागत के लिए पशुओं को मारना आवश्यक नहीं होना चाहिए।" तृतीय, मन में यह धारणा रखना कि एक जीव को मारने की तुलना में शाकाहारी भोजन असंख्य जीवों के मारने की अपेक्षा रखता है प्रारंभ में चित्ताकर्षक लग सकता है, किन्तु यह इस दृष्टि से मूढ़तापूर्ण है कि एक पशु के शरीर में असंख्य सूक्ष्म जीव होते हैं जो अनिवार्य रूप से मारे जाएंगे और साथ ही पंचेन्द्रिय जीव के घात से अधिक अशुभ आस्रव उत्पन्न होगा अर्थात् वनस्पति-जगत के एकेन्द्रिय जीवों के प्राणों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीव के द्रव्य और भाव प्राणों के अधिक घात के कारण पाप अधिक होगा। चतुर्थ, साँप, बिच्छु, शेर आदि को इस आधार पर नहीं मारना चाहिए कि ऐसा करने से बड़ी संख्या में अन्य जीव बच जायेंगे और वे (साँप, बिच्छु आदि) भी अनवरत हिंसा के पाप से बच जाएंगे। पंचम, ऐसी गलत धारणा के प्रभाव से कि वे लोग जो दुःखी और विपत्तिग्रस्त हैं मार दिये जाने पर शांति प्राप्त कर लेंगे, जीवित प्राणी नहीं मारे जाने चाहिए। अंतिम, दूसरे प्राणियों की भूख से प्रभावित होकर किसी भी व्यक्ति को उसकी भूख शांत करने के लिए अपने शरीर का मांस नहीं देना चाहिए। 30. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 79, 80 31. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 81 32. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 82, 83 33. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 84 34. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 85 35. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 89 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (111) For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्य का स्वरूप अब हम असत्य और सत्याणुव्रत के स्वरूप की व्याख्या करेंगे। असत्य, वाणी के माध्यम से तीव्र कषाय की अभिव्यक्ति है जो अपने आपको भाषा और संकेतों में अभिव्यक्त करती है। वीतराग वाणी रहस्यात्मक अनुभव से उद्भूत होती है जो सत्य की चरम सीमा है जिसको मनुष्य प्राप्त कर सकता है। तीव्र - कषाय- प्रसित वचन पूर्णतया असत्य होता है। मन्द- कषाय-ग्रसित वचन अर्ध- सत्य होता है अर्थात् यह वह सत्य है जो सांसारिक और अलंकृत रूप में प्रकट होता है उदाहरणार्थउदात्त, हितकारी और परोपकारी वचन बोलना । यह निश्चितरूप से रहस्यात्मक सत्य की पराकाष्ठा से नीचे की ओर खिसकना है। पूर्णता प्राप्त तीर्थंकर जो मनुष्यों और दूसरे प्राणियों के उत्थान के लिए उपदेश देते हैं उनको करुणा और उपकार की मन्द कषाय से प्रेरित नहीं माना जाना चाहिए, क्योंकि वे सब प्राणियों के लिए स्वार्थरहित होकर बिना मन्द कषाय के दबाव के बोलते हैं। इससे यह परिणाम निकलता है कि असत्य वचन तीव्र कषाय की अभिव्यक्ति होने के कारण सत्य की ऊँचाइयों से दुगना नीचे आना है। यह हमारी अंतरंग आत्मा और बाह्य व्यवहार तथा सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक उत्थान दोनों को बिगाड़ देता है। अतः विकास के दृष्टिकोण से इसको पूर्णतया त्याग दिया जाना चाहिए। अब हम असत्य को परिभाषित करते हैं। इसका अर्थ है उस व्यक्ति के द्वारा मिथ्या कथन किया जाना जो तीव्र कषायों जैसे-क्रोध. लोभ, अहंकार और छल-कपट आदि से ग्रसित है । 36 हम यहाँ बता सकते हैं कि इसका अर्थ केवल सत् को असत् कहना ही नहीं है और न ही असत् को सत् कहना है किन्तु इसके अन्तर्गत सत्य के स्वरूप की 36. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 91 (112) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलत व्याख्या करना भी है और वाणी का ऐसा प्रयोग भी है जो दूसरों में तीव्र कषायों को उत्पन्न करती है और दूसरों को कष्ट पहुँचाती है। इसके अनुसार सत्य का अर्थ केवल ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं है जो सत् को सत् कहता है किन्तु उसका अर्थ ऐसे शब्दों का प्रयोग है जो शान्तिदायक, कोमल और उदात्त हो । यह स्मरण रखना चाहिए कि हमारे सावधानीपूर्वक और कोमल बोलने से भी किसी तरह दूसरे पर दुखदायी प्रभाव हो जाए तो भी हम सत्यव्रत की अवहेलना करनेवाले नहीं माने जायेंगे। यदि तात्त्विक रूप से कहा जाय तो कोई भी शब्द अपने आप में न सुखद होता है और न दुखद होता है। इसके पीछे भावना का ही महत्त्व है। एक शब्द जो पुद्गल की पर्याय होता है उसमें अनन्त गुण होते हैं। इसलिए वह दूसरे को अनन्त तरीक़ों से प्रभावित करने की शक्ति रखता है और इन सबको सामान्य मनुष्यों के द्वारा जानना संभव नहीं है । एक शब्द को सुखद या दुखद कहने में परिस्थितियाँ, स्थान, समय, व्यक्ति का चारित्र, मानसिक और शारीरिक प्रभाव अपने पर और दूसरों पर हैं- इन सबको जानना चाहिए। अमृतचन्द्र के अनुसार प्रथम प्रकार का असत्यसत् को असत् कहना है; 7 दूसरे प्रकार का असत्य-असत् को सत् 38 कहना है; तीसरे प्रकार का असत्य - वस्तुओं का स्वभाव जैसा है उससे भिन्न कहना है; 39 चतुर्थ प्रकार का असत्य - ऐसी वाणी को बताता है जो ( 1 ) निन्दनीय हो, (2) पापपूर्ण हो और ( 3 ) अप्रिय हो | चतुर्थ प्रकार के असत्य को यदि और अधिक समझा जाय तो (1) पीठ पीछे निन्दा करना, उपहासात्मक वाणी, कठोर भाषा और 37. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 92 38. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 93 39. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 94 40. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 95 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (113) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसक शब्द निन्दनीय वाणी के अन्तर्गत सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त व्यर्थ की गपशप करना, ऐसी भाषा का प्रयोग जो निराधार विश्वासों और अंधविश्वासों को बढ़ानेवाली हो इसके अन्तर्गत समाविष्ट है।42 (2) आत्मरक्षा के लिए, गृहस्थी चलाने के लिए और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए भाषा का प्रयोग करना पापपूर्ण भाषा के अन्तर्गत सम्मिलित है।43 (3) अप्रिय शब्द वे हैं जो अशान्ति उत्पन्न करते हैं, भय उत्पन्न करते हैं, घृणा प्रज्वलित करते हैं, जो शोक को उत्तेजित करते हैं. और कलह को भड़काते हैं। सत्याणुव्रत असत्य के इन प्रकारों में से गृहस्थ उन शब्दों के प्रयोग को पूर्णतया नहीं हटा सकता जो उसके कार्यों से संबंधित है जो उसके व्यवसाय और सुरक्षा से संबंधित है। इस तरह पापपूर्ण भाषा को हटाना अपने और अपने आश्रितों के जीवन को जोखिम में डाले बिना संभव नहीं है, जैसे एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा को त्यागना गृहस्थ के लिए संभव नहीं है। इस प्रकार गृहस्थ को दूसरे प्रकार के असत्यों को त्याग देना चाहिए सिवाय सावध (पापपूर्ण) भाषा के। यह सत्याणुव्रत यां सत्य के व्रत का स्थूल रूप है। यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि सत्याणुव्रत में आचार्य समन्तभद्र ने सत्य न बोलने की अनुमति दी है यदि किसी का जीवन सत्य बोलने से संकट में पड़ता हो। सत्यवादी व्यक्ति को 41. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 96 42. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 96 43. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 97 44. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 98 45. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 101 46. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 55 वसुनन्दी श्रावकाचार, 210 (114) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशयोक्ति, छिद्रान्वेषण और अशोभनीय भाषा के प्रयोग को त्याग देना चाहिए और ऐसे शब्द बोलने चाहिए जो उच्चकोटि के हों, हितकारी हों और संतुलित हों।'' उसको गंभीर, धीर, उच्च चारित्रवाला, लोकोपकारक, दयावान और मृदुभाषी होना चाहिए। उसे आत्म-प्रशंसा और दूसरे की निंदा नहीं करनी चाहिए।48 न ही उसको दूसरे के विद्यमान गुणों को छिपाना चाहिए और न अपने अविद्यमान गुणों का वर्णन करना चाहिए। उसे जालसाजी से बचना चाहिए, गिरवी रखी वस्तुओं की वास्तविक संख्या व्यक्ति द्वारा भूल जाने पर भी वस्तुएँ उसे पूरी लौटा दी जानी चाहिए। चोरी (स्तेय) का स्वरूप अब हम अचौर्य और अचौर्याणुव्रत के स्वरूप का वर्णन करेंगे। चोरी का अर्थ है-स्वामी के बिना दिये किसी वस्तु को लेना चोरी है। यह अनिवार्य रूप से अपने मन में तीव्र कषाय की अंतरंग उपस्थिति को बताता है।" इस संसार में अस्थायी वस्तुएँ एक व्यक्ति के बाहरी प्राणों की रचना करती है और वह व्यक्ति जो उनको लूटता है या चुराता है वह चोरी करनेवाला कहा जाता है, क्योंकि यह किसी व्यक्ति को प्राणों से रहित करने के समान होता है। यह हिंसा से अन्य नहीं है।53 47. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 334 Yasastilaka and Indian Culture, p.266 • 48. Yasastilaka and Indian Culture, p.266 49. Yasastilaka and Indian Culture, p.266 50. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 102 51. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 102 52. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 103 53. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 104 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (115) For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचौर्याणुव्रत (अस्तेयाणुव्रत) दूसरों की अनुमति के बिना किसी की वस्तु को न लेना सर्वोत्तम . अनुशासन है, लेकिन यह गृहस्थ की शक्ति के बाहर है, इसलिए वह बिना दिए ऐसी वस्तुओं को स्वतन्त्रतापूर्वक काम में ले सकता है जो सामान्य प्रयोग की होती है जैसे- कूएँ का पानी व मिट्टी आदि। यह अचौर्याणुव्रत है या स्थूल रूप से अचौर्य का व्रत है। समन्तभद्र के अनुसार जो गृहस्थ अचौर्याणुव्रत का पालन करता है वह न तो बिना दी हुई वस्तुओं को, .. रखी हुई वस्तुओं को, पड़ी हुई वस्तुओं को और दूसरों के द्वारा भूली हुई वस्तुओं को न तो स्वयं लेता है और न दूसरों को देता है। कार्तिकेय कीमती वस्तुओं को कम कीमत में खरीदना चोरी में सम्मिलित करते हैं जिसका कारण यह प्रतीत होता है कि कोई भी व्यक्ति गलत तरीके से प्राप्त वस्तु को कम कीमत में बेच सकता है। सोमदेव के अनुसार भूमिगत : सम्पत्ति राजा या राज्य की होती है इसी प्रकार अज्ञात मालिक की सम्पत्ति भी।” अपने किसी सम्बन्धी की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति को लेना न्यायसंगत है किन्तु जब वह जीवित हो तो उसकी अनुमति आवश्यक है जिससे गृहस्थावस्था में अचौर्य के व्रत का पालन हो सके। जो गृहस्थ इस व्रत को पालते हैं वे मिलावट से, चोरी के लिए उकसाने से, चोरी की 54. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 106 55. योगशास्त्र, 2/66 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 57 वसुनन्दी श्रावकाचार, 211 अमितगति श्रावकाचार, 6/59 56. कार्तिकेयानुप्रेक्षा,335 57. Yaśastilaka and Indian Culture p.265 सागारधर्मामृत, 4/48 58. Yasastilaka and Indian Culture p.265 (116) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पत्ति प्राप्त करने से, (स्वतंत्र) राज्य के नियमों की अवहेलना करने से और माप-तौल के झूठे बाँट रखने से दूर रहते हैं। 19 59 अब्रह्म का स्वरूप अब हम अब्रह्म और ब्रह्मचर्याणुव्रत के स्वरूप का वर्णन करेंगे। काम कषाय से सहवास का घटित होना अब्रह्म है। इसमें जीवों की हिंसा के साथ मानसिक जीवन प्रभावित होता है और इसी के साथ द्रव्यप्राण भी प्रभावित होते हैं, क्योंकि सहवास के पश्चात् अकर्मण्यता व तन्द्रालुता उत्पन्न हो जाती है।° ब्रह्मचर्याणुव्रत गृहस्थ कामुक संबंध को पूर्णतया नहीं छोड़ सकता है इसलिए उसको अपनी (स्वतंत्रतापूर्वक) विवाहिता स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों से कामुक संबंध त्याग देना चाहिए ।" यह ब्रह्मचर्याणुव्रत है या ब्रह्मचर्य का स्थूल रूप है। सोमदेव के अनुसार इस व्रत का स्थूल रूप से पालन करनेवाला अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों को माता, बहिन या 59. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 185 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 58 तत्त्वार्थसूत्र, 7/27 सागारधर्मामृत, 4/50 अमितगति श्रावकाचार, 7/5 Uvāsagadasão I/ 47 चारित्रसार, पृष्ठ 10,11 60. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 109 61. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 110 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (117) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्री के समान मानता है। 2 काम कषाय के सहगामी मद्य, मांस, जूआ, कामुक नाच-गान, व्यक्तिगत शृंगार, नशा, व्यभिचारियों का साथ, निरर्थक फिरना इनको त्याग देना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी व्यक्ति को अपने आप में कामुक क्रियाओं को उत्तेजित नहीं करना चाहिए, कामोत्तेजक भोजन और कामोद्दीपक साहित्य से दूर रहना चाहिए।64 परिग्रह का स्वरूप __ अब हम परिग्रह और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत के स्वरूप पर विचार .. करेंगे। परिग्रह का अत्यधिक व्यापक लक्षण मूर्छा (आसक्ति, राग) है। प्रथम, यह कहा जाता है कि वे लोग जिनमें थोड़ा-सा भी मूर्छा का भाव विद्यमान है वे बाह्य संसारी परिग्रह का त्याग करते हुए भी अपरिग्रह से बहुत दूर है। द्वितीय, परिग्रह बताता है कि बाहरी वस्तुओं का रखना अंतरंग मूर्छा के बिना संभव नहीं है। इस प्रकार अंतरंग मूर्छा और बाह्य वस्तुओं का रखना- ये दोनों परिग्रह के अन्तर्गत आते हैं। हम यह कह सकते हैं कि यदि कोई अंतरंग मूर्छा को दूर हटाता है तो उसे उसी के अनुरूप बाह्य वस्तुओं को भी हटाना चाहिए। बाह्य वस्तुओं की उपस्थिति में यदि अमूर्छा (अनासक्ति) का दावा किया जाता है तो यह आत्म प्रवंचना होगी क्योंकि बिना मानसिक झुकाव के बाह्य वस्तुएँ जबरदस्ती 62. Yasastilaka and Indian Culture p.267 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 338 अमितगति श्रावकाचार, 6/64, 65 63. Yasastilaka and Indian Culture p.267 64. Yasastilaka and Indian Culture p.267 65. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 111 66. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 112 67. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 113 (118) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे पास नहीं रह सकती है। बाह्य वस्तुओं के प्रकार के अनुरूप अंतरंग मूर्छा में भेद होता है। दूसरे शब्दों में, मूर्छा में जो आन्तरिक भेद होता है वह बाह्य वस्तुओं के प्रकार से भेद के कारण है। उदाहरणार्थएक हिरण में जो हरी घास पर जीता है उस बिल्ली की तुलना में मूर्छा मन्द होगी जो भोजन के लिए चूहों को मारती है। इस प्रकार बाह्य परिग्रह और अंतरंग मूर्छा एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। परिग्रह और हिंसा परिग्रह कभी भी हिंसा से मुक्त नहीं हो सकता और जो अहिंसा का पालन करना चाहते हैं उनको अंतरंग मूर्छा और बाह्य वस्तुओं को हटाना चाहिए। इसलिए अहिंसा अंतरंग और बाह्य परिग्रह को हटाने की मात्रा के अनुपात में होगी। पूर्ण अनासक्ति के परिणामस्वरूप पूर्ण अहिंसा केवल अर्हन्त के जीवन में ही संभव हो सकती है और इससे नीचे केवल अपरिग्रह की मात्रा ही संभव है। परिग्रहपरिमाणाणुव्रत - गृहस्थ सभी परिग्रह को त्यागने में असमर्थ होता है, अत: उसे मूर्छा से यथासंभव दूर रहना चाहिए और उसी के अनुसार धन-धान्य, दासी-दास और घर आदि के परिग्रह को सीमित करना चाहिए। यह 68. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 121 69. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 124-128 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 61 वसुनन्दी श्रावकाचार, 213 अमितगति श्रावकाचार, 6/73 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 340 सागारधर्मामृत, 4/61 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (119) For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत या अपरिग्रह का स्थूल रूप है। हम सरसरी तौर पर कह सकते हैं कि गृहस्थ का अपरिग्रह व्रत आर्थिक विषमता जो समाज में प्रचलित है उसको नष्ट कर सकता है और इसके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति कम से कम प्रतिदिन की आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कर सकेगा। आज मनुष्य और राष्ट्र दूसरों की कीमत पर अपनी राज्यसीमा और धन को बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति और राष्ट्र के तनाव बढ़ रहे हैं। परिग्रह हानिकारक है जब वह असामान्य आसक्ति को उत्पन्न करता है। एक लोकोपकारी दृष्टिकोण परिग्रहपरिमाणाणुव्रत को पालने के लिए आवश्यक है। इस व्रत की शुद्धता को बनाए रखने के लिए घर और भूमि, सोना और चाँदी, पशुधन और धान्य, दासी और दास तथा वस्त्र और बरतन आदि में सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त आवश्यकता से अधिक संख्या में वाहन रखना, आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह करना, दूसरों की जायदाद के प्रति ईर्ष्या करना, अत्यधिक लोभ और जानवरों पर अधिक भार लादना इनको भी टालना चाहिए। 70. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 187 तत्त्वार्थसूत्र, 7/29 Uvāsagadasão 1/49 सागारधर्मामृत, 4/64 अमितगति श्रावकाचार, 7/7 71. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 62 (120) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य (गुण) और पाप (दोष) के मिश्रण के रूप में गृहस्थ का जीवन अब तक हम पाँच पापों और पाँच अणुव्रतों के स्वरूप के बारे में वर्णन कर चुके हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और अपरिग्रह पाँच प्रकार के पाप हैं। यह याद रखना चाहिए कि तीन प्रकार की असंकल्पात्मक हिंसा, एकेन्द्रिय जीवों की संकल्पात्मक हिंसा, सावद्य या पापपूर्ण भाषा का प्रयोग, अपनी पत्नी के साथ कामुक संबंध, बिना आज्ञा के सामान्य वस्तुओं का प्रयोग और सीमित परिग्रह रखना- ये सभी गृहस्थ के पाप हैं। दूसरे शब्दों में, सामाजिक दृष्टि से देखने पर वे पापरूप नहीं हैं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से वे पापरूप माने जाते हैं। सामाजिक दृष्टिकोण से वे न्यायसंगत कहे जा सकते हैं किन्तु इनको आध्यात्मिक रूप से न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। इस प्रकार गृहस्थ के जीवन में पूर्ण मन्द कषाय असंभव है। उसका जीवन सदैव गुण और दोषों के मिश्रण से युक्त होता है। गृहस्थ जो अणुव्रतों का कठोरता से पालन नहीं करता उसकी हालत शोचनीय होती है। उसके जीवन में गुण केवल आकस्मिक घटना है और कभी-कभी सामाजिक विवशता है। यह एक प्रकार से मिथ्या गुण होगा। वास्तविक गुण तो अंतरंग पाप की चेतना से उत्पन्न होता है। पाप की चेतना के कारण ही व्रत नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए हितकारक और प्रेरक होते हैं। व्रतों के उचित पालन के लिए किन्हीं विचारों की पुनरावृत्ति और उनका चिन्तन व्रत मन में दृढ़ हो जाएँ और उत्साह से पालन किये जाएँ- इसके लिए तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकार ने निम्नलिखित विचारों पर चिन्तन और उनको मन में दोहराने का परामर्श दिया है। प्रथम, व्यक्ति को इन पाँच Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (121) For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार के पापों में आसक्ति रखने से जो दुःख पैदा होते हैं उन पर विचार करना चाहिए। उदाहरणार्थ- यह सोचा जाना चाहिए कि असत्यवादी मनुष्य पर किसी के द्वारा कभी विश्वास नहीं किया जाता। कारावास, अनादर और दूसरे प्रकार के मानसिक व शारीरिक दुःख उसको इस जीवन में दण्ड के रूप में भोगने होते हैं। इसी प्रकार दूसरे पापों के बारे में भी सोचा जा सकता है। द्वितीय, व्यक्ति को प्राणियों के साथ मैत्री, गुणवानों की प्रशंसा, दुःखी प्राणियों के लिए क्रियाशील करुणा और अक्खड़ तथा विपरीत स्वभाव वालों के लिए उदासीनता का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से व्रतों का पालन सुविधाजनक हो जाता है। तृतीय, व्यक्ति को सांसारिक वस्तुओं और इन्द्रिय-भोगों की क्षणिकता और शरीर के अस्थायित्व के बारे में चिन्तन करना चाहिए।74 मूलगुणों की धारणा ___ आचार्य समन्तभद्र ने मूलगुणों की धारणा को विकसित किया और पाँच अणुव्रतों का पालन तथा मद्य, मांस और मधु के त्याग को मूलगुण (प्राथमिक नैतिक गुण) स्वीकार किया। मूलगुणों की धारणा गतिशील है जिसका यह सबूत है कि परवर्ती आचार्यों ने समय, स्थान और अनुयायियों के स्वभाव के अनुसार मूलगुणों में परिवर्तन किया। इस परिवर्तनशील संसार में सदैव नयी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं और उसके परिणामस्वरूप नयी औषधियाँ आवश्यक हो जाती हैं। विभिन्न युगों वाले व्यक्तियों के लिए कोई भी सर्वोच्च औषधि नहीं हो सकती। मूलगुण जो उच्च विकास के लिए सोपान हैं, उन्हें व्यक्तियों के अनुसार बदला जाना 72. तत्त्वार्थसूत्र, 7/9 73. तत्त्वार्थसूत्र, 7/11 74. तत्त्वार्थसूत्र, 7/12 75. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 66 (122) Ethical Doctrines in Jainism Erf # 34TaKu fale For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। इस प्रकार मूलगुण बदल सकते हैं किन्तु अहिंसा का मापदण्ड नहीं बदल सकता। सोमदेव ने पाँच अणुव्रतों के स्थान पर पाँच उदम्बर फल बताये और तीन- मद्य, मांस और मधु का त्याग उसी प्रकार रखा। अमितगति ने रात्रिभोजन के त्याग को मूलगुणों में जोड़ दिया और बाकी तीन - मद्य, मांस और मधु तथा पंच उदम्बर फलों के त्याग को उसी प्रकार रखा।” अमृतचन्द्र के अनुसार आठ प्रकार की वस्तुओं का त्याग अर्थात् मद्य, मांस और मधु तथा पंच उदम्बर फलों का त्याग- ये आठ मूलगुण कहे जा सकते हैं। आशाधर ने मद्य, मांस और मधु का त्याग, पंच उदम्बर फल का त्याग, रात्रिभोजन का त्याग, पंच परमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) की भक्ति, पानी छानकर पीना और प्राणियों के प्रति करुणा का भाव रखना ये मूलगुण बताये। रात्रिभोजन की समस्या सभी आचार्य इस बात से एकमत हैं कि किसी प्रकार का भोजन रात्रि में करना सूर्य के प्रकाश में किये गये भोजन की अपेक्षा अधिक हिंसा पैदा करता है। विवाद इस बात का है कि गृहस्थ को किस स्तर पर रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए। कुन्दकुन्द,80 कार्तिकेय और समन्तभद्र का मत है कि ग्यारह प्रतिमाओं में से छठी प्रतिमा में रात्रिभोजन 76. Yasastilaka and Indian Culture p.262 77: अमितगति श्रावकाचार, 5/1 78. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 74 79. सागारधर्मामृत, 2/18 80. चारित्रपाहुड, 22 81. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 382 82. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 142 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (123) For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का त्याग होना चाहिए। सोमदेव और आशाधर 4 इसे अहिंसाणुव्रत में सम्मिलित करते हैं और आशाधर पाक्षिक स्तर पर इसका आंशिक त्याग बताते हैं। अमितगति इसको मूलगुणों में सम्मिलित करते हैं। वसुनन्दी प्रथम प्रतिमा के पूर्व ही इसका पूर्ण त्याग बताते हैं। हेमचन्द्र इसका त्याग भोगोपभोगपरिमाणव्रत में बताते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत माना है। अमृतचन्द्र ने पाँच अणुव्रतों के पश्चात् इसका वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि वे भी इसको छठा अणुव्रत मानने के पक्ष में थे। गुणव्रत और शिक्षाव्रत की विभिन्न धारणाएँ ____ पाँच पापों, पाँच अणुव्रतों, मूलगुणों की विभिन्न धारणाओं और रात्रिभोजन त्याग का वर्णन करने के पश्चात् हम गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के स्वरूप पर विचार करेंगे जो कि सात शीलव्रत के रूप में जाने जाते हैं। ये शीलव्रत अणुव्रतों की रक्षा का काम करते हैं और अधिक स्पष्ट 83. Yasastilaka and Indian Culture p.264 84. सागारधर्मामृत, 4/24 85. सागारधर्मामृत, 2/76 86. अमितगति श्रावकाचार, 5/1 87. वसुनन्दी श्रावकाचार, 314 88. योगशास्त्र, 3/48 89. सर्वार्थसिद्धि, 7/1 90. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 129 91. धर्मबिन्दु, 155 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 136 चारित्रसार, पृष्ठ 13 92. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 136 (124) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप से कहें तो ये अणुव्रतों के पालन में सकारात्मक सुधार उत्पन्न करते हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति के अनुसार गुणव्रत और शिक्षाव्रत में यह भेद है कि गुणव्रत पूरे जीवन के लिए पालन किए जाते हैं, लेकिन शिक्षाव्रत सीमित समय के लिए पालन किए जाते हैं। आशाधर के अनुसार गुणव्रतों के पालन से अणुव्रत अधिक अच्छे तरीके से पाले जाते हैं और शिक्षाव्रतों का पालन करने से व्यक्ति त्यागमय जीवन के लिए प्रेरणा और प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। ये दो भिन्न प्रतीत होनेवाले दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं किन्तु वे एक दूसरे में समाविष्ट हो जाते हैं। पूर्ववर्ती दृष्टिकोण समय पर जोर देता है, जब कि परवर्ती दृष्टिकोण गुणव्रत और शिक्षाव्रत के द्वारा किये जानेवाले कार्य पर जोर देता है। शीलव्रतों की संख्या के बारे में जैनाचार्य पूर्णरूप से एकमत हैं। वे सभी इस बात से सहमत हैं कि गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार होते हैं। तीन गुणव्रतों में से दिव्रत और अनर्थदण्डव्रत सभी आचार्यों के द्वारा गुणव्रत के रूप में स्वीकार किये गये हैं और चार शिक्षाव्रतों में से अतिथिसंविभागवत को सभी आचार्य शिक्षाव्रत मानते हैं। सभी आचार्य सिवाय वसुनन्दी के सामायिकव्रत और प्रोषधोपवासव्रत को शिक्षाव्रत के अन्तर्गत रखते हैं। वसुनन्दी ने इनको व्रत के रूप में स्वीकार नहीं किया। देशव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत और सल्लेखना के विवादात्मक स्वभाव के कारण व्रतों में विभिन्न मत उत्पन्न हो गये हैं । कुन्दकुन्द भोगोपभोगपरिमाणव्रत को गुणव्रत के रूप में और सल्लेखना को शिक्षाव्रत के रूप में मानते हैं और शीलव्रतों की रूपरेखा में देशव्रत का उल्लेख नहीं करते 93. श्रावकप्रज्ञप्ति, 328 94. सागारधर्मामृत, 6/24 95. चारित्रपाहुड, 25, 26 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त - (125) For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। कार्तिकेय देशव्रत को शिक्षाव्रत में गिनते हैं और भोगोपभोगपरिमाणव्रत को गुणव्रत के रूप में मानते हैं। उमास्वामी” देशव्रत को गुणव्रत मानते हैं और भोगोपभोगपरिमाणव्रत को शिक्षाव्रत स्वीकार करते हैं। समन्तभद्र और कार्तिकेय व्रतों के नाम के बारे में एकमत हैं लेकिन पूर्ववर्ती (समन्तभद्र) देशव्रत को शिक्षाव्रत के रूप में प्रथम रखकर क्रम बदल देते हैं। कार्तिकेय, उमास्वाति और समन्तभद्र शीलव्रतों के पश्चात् सल्लेखना के स्वरूप पर विचार करते हैं। वसुनन्दी देशव्रत को गुणव्रत के रूप में स्वीकार करते हैं और भोगोपभोगपरिमाणव्रत को भोगविरति और परिभोगनिवृत्ति में विभाजित करते हैं और उनको सल्लेखना के साथ शिक्षाव्रतों में सम्मिलित कर लेते हैं। इस प्रकार जैनधर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय में शीलव्रतों के सम्बन्ध में पाँच परम्पराएँ देखी जाती हैं- कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, उमास्वामी, समन्तभद्र और वसुनन्दी की परम्परा। जैनधर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दो प्रकार की परम्पराएँ देखी जाती है- प्रथम, उमास्वाति की परम्परा और द्वितीय उपासकदशा और श्रावकप्रज्ञप्ति की परम्परा जो हरिभद्र, हेमचन्द्र और यशोविजय आदि के द्वारा अनुसरण की गई है। द्वितीय परम्परा समन्तभद्र और कार्तिकेय से व्रतों के क्रम में कुछ परिवर्तन के साथ एकमत है । विभिन्न परम्पराएँ व्याख्या के भेद के कारण हैं। यह भेद जैनधर्म के आधारभूत सिद्धान्तों में असंगति के कारण नहीं है किन्तु यह भेद समय, स्थान और विचार के झुकाव के कारण उत्पन्न होता है। 96. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 367 97. तत्त्वार्थसूत्र, 7/21 98. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 67, 91 99. वसुनन्दी श्रावकाचार, 217, 218, 271, 272 (126) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब हम प्रत्येक शीलव्रत के स्वरूप पर विचार करेंगे। कुन्दकुन्द ने चारित्रपाहुड'00 में केवल उनके नाम गिनाये हैं। केवल नामों से उनके विचारों को समझना कठिन है। यद्यपि उमास्वामी ने गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के नामों का उल्लेख नहीं किया है लेकिन महान व्याख्याता पूज्यपाद101 और विद्यानन्दि102 पहले तीन को गुणव्रत मानते हैं और अंतिम चार को शिक्षाव्रत। दिग्व्रत का स्वरूप अब हम दिग्व्रत के स्वरूप के बारे में विचार करेंगे। सभी परम्पराएँ इसे गुणव्रत के रूप में स्वीकार करती हैं। इसके अनुसार दसों दिशाओं में अपनी गतिविधि की सीमा निर्धारित करना अपेक्षित है।103 सीमा के लिए हमारे द्वारा प्रसिद्ध संकेतों का प्रयोग किया जाता है; जैसे- समुद्र, नदी, वन, पर्वत, देश, योजन का पत्थर आदि।104 समन्तभद्र05 और 100. चारित्रपाहुड, 25,26 101. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 102. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पृष्ठ 467 103. श्रावकप्रज्ञप्ति, 280 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 342 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 68 तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, 7/21 योगशास्त्र, 3/1 104. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 69 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 137 वसुनन्दी श्रावकाचार, 214 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 सागारधर्मामृत, 5/2 राजवार्तिक, 2/7/21 105. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 68 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (127) For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 अकलंक'' ने समय की सीमा के दृष्टिकोण से स्पष्ट रूप से जीवनपर्यन्त इसको पालन करने को प्रस्तावित किया है जब कि अन्य आचार्यों ने अस्पष्ट रूप से ऐसा कहा है। श्रावकप्रज्ञप्ति 7 हमको बताती है कि चूँकि गृहस्थ गर्म लोहे के पिंड के समान होता है उसकी गतिविधि जहाँ कहीं भी होती है हिंसा उत्पन्न करती है। यदि उसकी गतिविधि का क्षेत्र सीमित होगा तो वह अपने आपको उस क्षेत्र के बाहर हिंसा करने से बचा सकेगा। इस प्रकार निर्धारित सीमा के बाहर सूक्ष्म पापों को हटाने के कारण अणुव्रती (गृहस्थ ) महाव्रती ( मुनि) की तरह हो जाता है । 108 इसके अतिरिक्त कार्तिकेयानुप्रेक्षा 109 हमको बताती है कि दसों दिशाओं में सीमा का निर्धारण करने से लोभ कषाय नियंत्रित की जाती है। यह इस.. तरह समझाया जा सकता है कि यद्यपि दिव्रती के द्वारा आसानी से सीमा के बाहर के क्षेत्र से धन प्राप्त किया जा सकता है तो भी वह धन की प्राप्ति को त्याग देता है। 10 यहाँ यह बताना निरर्थक नहीं होगा कि बाह्य संसार में गतिविधि की सीमा अंतरंग कषायों को कम कर सकती है जिसके फलस्वरूप दिग्व्रत का उद्देश्य पूरा हो जाता है। 106.राजवार्तिक, 2/7/21, 20 107. श्रावकप्रज्ञप्ति, 281 योगशास्त्र, 3 / 2 108. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 70 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 138 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 अमितगति श्रावकाचार, 6/77 सागारधर्मामृत, 5/3 राजवार्तिक, 2/7/21, 19 109.कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 341 110.सर्वार्थसिद्धि, 7/21 राजवार्तिक, 2/7/21, 18 योगशास्त्र, 3/3 (128) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर परम्परा गुणव्रत 2 शिक्षाव्रत 2 प्रोषधोपवास 1. कुन्दकुन्द दिग्व्रत अनर्थदण्डव्रत सामायिक- अतिथिसंविभाग- सल्लेखना .व्रत व्रत व्रत भोगोपभोगपरिमाणाणुव्रत अनर्थदण्डव्रत दिग्वत देशव्रत सामायिक- । प्रोषधोपवासव्रत व्रत भोगोपभोगपरिमाणाणुव्रत अतिथिसंविभागव्रत 2. उमास्वामी चामुण्डराय अमृतचन्द्र सोमदेव अमितगति 3. समन्तभद्र आशाधर 4. कार्तिकेय Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त दिव्रत अनर्थदण्डव्रत देशव्रत सामायिकव्रत प्रोषधोपवास दिव्रत अनर्थदण्डव्रत For Personal & Private Use Only भोगोपभोगपरिमाणाणुव्रत भोगोपभोगपरिमाणाणुव्रत अनर्थदण्डव्रत सामायिक- व्रत भोगविरति प्रोषधोपवास- वैयावृत्य व्रत अतिथिसंविभाग- देशव्रत व्रत अतिथिसंविभाग- सल्लेखना व्रत व्रत 5. वसुनन्दी दिव्रत देशव्रत परिभोगनिवृत्ति श्वेताम्बर परम्परा गुणव्रत शिक्षाव्रत 2 3 1. उमास्वाति दिग्वत देशव्रत अनर्थदण्ड प्रोषधोपवास व्रत व्रत सामायिक- व्रत सामायिकव्रत भोगोपभोग- अतिथिसंविभागपरिमाणाणुव्रत व्रत प्रोषधोपवास- अतिथिसंविभाग व्रत दिव्रत अनर्थदण्डव्रत देशव्रत भोगोपभोगपरिमाणाणुव्रत व्रत 2. श्रावक प्रज्ञप्ति उपासकदशा हरिभद्र हेमचन्द्र यशोविजय (129) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशव्रत का स्वरूप अब हम देशव्रत के स्वरूप पर उन आचार्यों के अनुसार वर्णन करेंगे जिन्होंने इसे शिक्षाव्रत के रूप में स्वीकार किया है । कुन्दकुन्द देशव्रत को स्वीकार नहीं करते, किन्तु उसके स्थान पर सल्लेखना का उल्लेख करते हैं। कार्तिकेय और समन्तभद्र देशव्रत को शिक्षाव्रत के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं, लेकिन समन्तभद्र देशव्रत को प्रथम और कार्तिकेय चौथा शिक्षाव्रत स्वीकार करते हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति,111 हरिभद्र112 और हेमचन्द्र आदि के द्वारा देशव्रत दूसरे शिक्षाव्रत के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ यह बताया जा सकता है कि कार्तिकेय, समन्तभद्र और हेमचन्द्र ने सल्लेखना को अनावश्यक नहीं माना है किन्तु वे शीलव्रतों के पश्चात् उसका वर्णन करते हैं। अन्य विचारक!14 भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं कि सल्लेखना का वर्णन शीलव्रतों के वर्णन के पश्चात् किया जाना चाहिए। दिग्व्रत में व्यापक रूप से निर्धारित किये गये क्षेत्र में से जब घर, उद्यान, गाँव, नदी और वन आदि को आधार बनाकर क्षेत्र को प्रतिदिन कम करते जाते हैं तो यह देशव्रत कहा जाता है। 15 समन्तभद्र कहते हैं कि एक वर्ष, आधा वर्ष, चार महीने, दो महीने, एक महीना 111. श्रावकप्रज्ञप्ति, 318 112. धर्मबिन्दु, 151 113. योगशास्त्र, 3/84 114. तत्त्वार्थसूत्र, 7/22 अमितगति श्रावकाचार, 6/98 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 175-179 115. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 92, 93 सागारधर्मामृत, 5/25, 26 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 368 श्रावकप्रज्ञप्ति, 318 (130) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पन्द्रह दिन समय की सीमा मानी जा सकती है । 116 लेकिन हेमचन्द्र के अनुसार एक दिन या एक रात की समय- सीमा भी हो सकती है । 117 यह याद रखना चाहिए कि स्थान की निश्चित सीमा से परे निश्चित समय के लिए स्थूल और सूक्ष्म पाप इस हद तक पूर्णतया त्याग दिये जाते हैं कि देशव्रत का पालन करनेवाला देशव्रत के सीमित समय के लिए महाव्रती कहा जा सकता है। 18 देशव्रत के उपर्युक्त विचार के अतिरिक्त कार्तिकेय समझाते हैं कि दिव्रत के द्वारा जो व्यापक क्षेत्र प्रस्तावित किया गया है उसमें इन्द्रिय-विषयों को भी सीमित किया जाना चाहिए। 119 संभवतया यह बात भोगोपभोगपरिमाणव्रत जिसे उनके द्वारा गुणव्रत माना गया है उसको और भी सीमित करने की ओर अग्रसर होना है। दूसरे शब्दों में, देशव्रत कार्तिकेय के अनुसार दिव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत के क्षेत्र को सीमित करता है जबकि समन्तभद्र और श्रावकप्रज्ञप्ति केवल दिग्व्रत की सीमा को सीमित करने का समर्थन करते हैं। यह देशव्रत की व्याख्या उन लोगों के अनुरूप की गयी है जो उसको शिक्षाव्रत स्वीकार करते हैं। अब हम देशव्रत के स्वरूप का उन आचार्यों के अनुसार वर्णन करेंगे जो देशव्रत को गुणव्रत के रूप में स्वीकार करते हैं। उमास्वामी 20 और वसुनन्दी के अनुसार देशव्रत एक गुणव्रत है । तत्त्वार्थसूत्रभाष्य 21 116. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 34 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 368 117. योगशास्त्र, 3/84 118. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 95 119. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 367 120. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 121. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, 7 / 21 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (131) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सर्वार्थसिद्धि 22 देशव्रत के स्वरूप को समझाते हुए कहते हैं कि देशव्रती अपनी गतिविधि को गाँव की सीमा तक निर्धारित करते हैं, शेष स्थानों को छोड़ देते हैं। अमितगति इस व्याख्या का समर्थन करते हैं। 123 यदि देशव्रत की यह व्याख्या जो इसको जीवनपर्यन्त पालने का समर्थन करती है तो दिग्वत से इसका भेद नहीं किया जा सकता। संभवतः इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए अकलंक और चामुण्डराय ने विशेषतया उल्लेख किया है कि दिग्वत जीवनपर्यन्त पालन किया जाता है लेकिन. देशव्रत सीमित समय के लिए पाला जाता है। अमृतचन्द्र के अनुसार भी देशव्रत सीमित समय के लिए पालन किया जाता है। यदि अकलंक और अमृतचन्द्र के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हैं तो गुणव्रत के रूप में देशव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में देशव्रत के बीच भेद नहीं हो सकेगा। इस प्रकार एक व्याख्या के अनुसार देशव्रत दिग्वत में समाविष्ट हो जाता है जब कि अन्य व्याख्याओं के अनुसार इसे शिक्षाव्रत माना जाना चाहिए, क्योंकि इसका पालन सीमित समय के लिए प्रस्तावित है। यह सत्य है कि अकलंक और अमृतचन्द्र गुणव्रत और शिक्षाव्रत के विवाद को टालते हैं क्योंकि वे सात व्रतों को गुणव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में विभक्त नहीं करते हैं जैसे पूज्यपाद ने किया। लेकिन फिर भी शिक्षाव्रत के रूप में देशव्रत की परम्परा अकलंक और अमृतचन्द्र की व्याख्या की उपेक्षा नहीं कर सकती। यह संभावित है कि देशव्रत के इस विवादात्मक स्वरूप के कारण वसुनन्दी ने इसे यह कहकर समझाया कि इसका अर्थ है उन स्थानों या देशों के निवास को छोड़ना जहाँ व्रतों का पालन कठिनाई से हो या जोखिम भरा हो।124 देशव्रत की इस व्याख्या के अनुसार इसको गुणव्रत 122. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 123. अमितगति श्रावकाचार, 6/78 124. वसुनन्दी श्रावकाचार, 215 (132) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानना न्यायसंगत है। तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याता श्रुतसागर सर्वार्थसिद्धि में दी गयी दिव्रत की व्याख्या को स्वीकार करने के अतिरिक्त वसुनन्दी के दृष्टिकोण का समर्थन यह कहते हुए करते हैं कि देशव्रत उन स्थानों को टाल देता है जो व्रतों को पालने में बाधा डालते हैं और अपने मन में अशांति उत्पन्न करते हैं।125 अनर्थदण्डव्रत का स्वरूप __ अब हम अनर्थदण्डव्रत के स्वरूप का विचार करेंगे। सभी आचार्य इसको गुणव्रत के रूप में स्वीकार करते हैं। कार्तिकेय के अनुसार अनर्थदण्डव्रत ऐसे तुच्छ कार्यों के करने का त्याग करना है जो किसी लाभदायक उद्देश्य के लिए उपयोगी नहीं है।126 वे मन की अस्वस्थता को उत्पन्न करते हैं जिसका परिणाम नैतिक पतन होता है। समन्तभद्र के अनुसार अनर्थदण्डव्रत में निरर्थक क्रियाओं से दूर रहना जो अशुभ शारीरिक, मानसिक और वाचिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न होती हैं।127 अकलंक तत्त्वार्थसूत्र की टीका में स्पष्टतया कहते हैं कि अनर्थदण्डव्रत को दिव्रत, देशव्रत और उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के बीच रखने का उद्देश्य दिव्रत, देशव्रत और उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत द्वारा निर्धारित सीमाओं में न तो उद्देश्यरहित गतिविधि करना चाहिए, और न ही ऐसे ऐन्द्रिक सुखों को भोगना चाहिए जो तुच्छ हों।128 श्रावकप्रज्ञप्ति दृढ़तापूर्वक कहती है कि जो क्रियाएँ बिना किसी उद्देश्य के की जाती हैं और जो क्रियाएँ किसी उद्देश्य से की जाती है उनमें पूर्ववर्ती अत्यधिक कर्मों का बंधन उत्पन्न 125. तत्त्वार्थवृत्ति, 7/21/10-14 126. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 343 127. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 74 128. राजवार्तिक, 2/7/21, 22 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (133) For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती है, क्योंकि पूर्ववर्ती क्रियाएँ किसी भी समय बिना किसी आवश्यकता के की जा सकती है जब कि परवर्ती क्रियाएँ आवश्यकता पड़ने पर किसी विशेष उद्देश्य से सम्पन्न की जाती है।129 इस प्रकार अनर्थदण्डव्रत के स्वरूप के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों के विचारों में स्पष्ट संगति है। अनर्थदण्ड के प्रकार अब हम अनर्थदण्ड के प्रकारों पर विचार करेंगे। अनर्थदण्ड में अनेक प्रकार की निरर्थक और निष्फल क्रियाएँ स्वीकार की गई हैं, लेकिन समझने के दृष्टिकोण से ये चार या पाँच प्रकार की मानी गयी हैं। उपासकदशा130 और श्रावकप्रज्ञप्ति131 अनर्थदण्ड के चार प्रकार मानती हैं जब कि कार्तिकेय, समन्तभद्र, तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याता पूज्यपाद और अकलंक अनर्थदण्ड के पाँच प्रकार मानते हैं। चार प्रकार हैं- (1) अपध्यान, (2) पापोपदेश, (3) प्रमादचरित और (4) हिंसादान। यदि दुःश्रुति को सूची में जोड़ दिया जाता है तो अनर्थदण्ड के पाँच प्रकार प्राप्त होते हैं। यद्यपि कार्तिकेय और अमृतचन्द्र ने अनर्थदण्ड के पाँच प्रकारों के नामों का उल्लेख नहीं किया है, तो भी उन दोनों आचार्यों द्वारा जो वर्णन किया गया है वह उपर्युक्त पाँच प्रकारों में सम्मिलित किया जा सकता है। यद्यपि गृहस्थ का जीवन गुण-दोषों का मिश्रण होता है क्योंकि वह अणुव्रतों का पालन करता है, तो भी ये अनर्थदण्डकर्ता को इस तरह से अनावश्यक रूप से फंसाते हैं कि ये अशुभ कर्मों के आस्रव के उत्पादक 129. श्रावकप्रज्ञप्ति, 290 130. Uvasagadasao, 43 131. श्रावकप्रज्ञप्ति, 289 (134) Ethical Doctrines in Jainism steref # 3 Termesite for free For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाते हैं, जो कि अकल्पनीय दुःखों को इस जीवन में और आगामी जीवन में उत्पन्न करते हैं। अब हम अनर्थदण्ड के पाँच प्रकारों पर विचार करेंगे। प्रथम, अपध्यान- अशुभ चिन्तन- दूसरे मनुष्यों के दोषों और अवगुणों में झाँकना, दूसरों के धन का लालच करना,132 व्यक्तियों की कलह में रस लेना और शिकार, हार-जीत, चोरी व लॅआ आदि में दिलचस्पी रखना।133 हेमचन्द्र'34 और आशाधर!35 आर्तध्यान और रौद्रध्यान को अपध्यान में सम्मिलित करते हैं। द्वितीय, पापोपदेश- उन लोगों को बुरे निर्देश देना जो नौकरी से, व्यापार से, दस्तावेज लिखने से और कला के क्षेत्र में काम करने से आजीविका उपार्जन करते हैं।136 समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और चामुण्डराय पापोपदेश में निम्नलिखित बातों को सम्मिलित करते हैंलाभ के लिए दासों और पशुओं के बेचने की चर्चा करना, शिकारियों को निर्देश देना। 37 पापोपदेश का संक्षिप्त अर्थ है- इस तरह से पाप प्रवृत्तियों को उकसाना जिनके कारण व्यक्ति दुष्ट, कषाययुक्त और जीवहिंसक तरीकों में आसक्त हो जाता है। तीसरा, प्रमादचरित- निरुद्देश्य क्रियाएँ करना जैसे-जमीन खोदना, पेड़ उखाड़ना, पानी फैलाना, फल-फूलों 132. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 344 133. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 141, 146 134. योगशास्त्र, 3/75 135. सागारधर्मामृत, 5/9 136. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 142 137. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 4/76 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 राजवार्तिक, 2/7/20 चारित्रसार, पृष्ठ 16, 17 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (135) For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तियों को तोड़ना और निरर्थक फिरना।138 चौथा हिंसादान- हिंसा के उपकरणों को दान देना जैसे- तलवार, धनुष, जहर आदि। 39 कार्तिकेय के अनुसार हिंसक पशुओं का पालना जैसे- बिल्ली आदि और हथियारों का व्यापार करना हिंसादान में सम्मिलित हैं। 140 पाँचवाँ, दुःश्रुति- ऐसी कहानियों को पढ़ना और सुनना जो कषायोत्तेजक होती हैं।41 इसके अतिरिक्त ऐसे साहित्य का अध्ययन करना जो आसक्ति को बढ़ाएँ, कामोत्तेजक वस्तुओं का वर्णन करे और तीव्र कषाय उत्पन्न करनेवाली. वस्तुओं से संबंध रखें- ये सब दुःश्रुति में सम्मिलित हैं।142 वसुनन्दी पाँच 138. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 346 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 80 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 143 सागारधर्मामृत, 6/11 चारित्रसार, पृष्ठ 17 139. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 77 श्रावकप्रज्ञप्ति, 289 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 144 सागारधर्मामृत, 5/8 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 चारित्रसार, पृष्ठ 17 140. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 347 141. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 145 चारित्रसार, पृष्ठ17 142. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 79 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 348 सागारधर्मामृत, 5/9 Ethical Doctrines in Jainism For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार के अनर्थदण्ड का वर्णन नहीं करते हैं किन्तु वे यह घोषणा करते हैं कि जो अनर्थदण्डव्रत का पालन कर रहा हो उसे लोहे तथा जाल आदि का व्यापार नहीं करना चाहिए और कुत्ते तथा बिल्ली आदि भी नहीं पालने चाहिए।143 भोगोपभोगपरिमाणव्रत का स्वरूप ____ अब हम भोगोपभोगपरिमाणव्रत के स्वरूप पर विचार करेंगे।144 'भोग' शब्द उन वस्तुओं से सम्बन्धित है जो केवल एक बार ही प्रयोग में लायी जाती हैं उदाहरणार्थ- पान-पत्ती, माला आदि और 'उपभोग' शब्द का सम्बन्ध उन वस्तुओं से है जो बार-बार प्रयोग में लायी जा सकती हैं उदाहरणार्थ- कपड़े, आभूषण, पलंग45 आदि। इस प्रकार भोगोपभोगपरिमाणव्रत का अर्थ हुआ भोग और उपभोग की वस्तुओं के प्रयोग को सीमित करना और उन वस्तुओं से आसक्ति कम करना।146 143. वसुनन्दी श्रावकाचार, 216 144. उपासकदशा, तत्त्वार्थसूत्र तथा श्रावक प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथों में इस व्रत का उपभोग-परिभोग-परिमाणवत नाम दिया गया है। यहाँ उपभोग भोग के समान है तथा परिभोग उपभोग के समान है। 145. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 83 अमितगति श्रावकाचार, 6/93 योगशास्त्र, 3/5 .. ... सागारधर्मामृत, 5/14 Yasastilaka and Indian Culture, p.283 146. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 350 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 82 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 सागारधर्मामृत, 5/13 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (137) For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग और उपभोग के उपर्युक्त स्वरूप को ध्यान में रखते हुए केवल वसुनन्दी इसको भोगविरति और परिभोगनिवृत्ति में विभाजित करते हैं।147 यह व्रत भोग और उपभोग की सीमा की स्वीकारात्मक प्रक्रिया को ही सम्मिलित नहीं करता, किन्तु उनके त्याग की निषेधात्मक प्रक्रिया को भी सम्मिलित करता है। कार्तिकेय कहते हैं कि वे वस्तुएँ जो हमारी पहुँच के अन्तर्गत हैं उन वस्तुओं का त्याग उनसे अधिक प्रशंसनीय है जो न तो हमारे पास है और न भविष्य में होंगी। समन्तभद्र कहते हैं कि उन वस्तुओं को छोड़ना जो हमारे लिए अनुपयोगी हैं और जो उच्च व्यक्तियों के द्वारा प्रयोग के अयोग्य हैं वे व्रत के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं मानी जा सकती हैं। इसके अन्तर्गत विचारपूर्वक अनुकूल वस्तुओं को त्यागना है, क्योंकि उपर्युक्त दोनों प्रकार की वस्तुएँ साधारण आदमियों के द्वारा प्रयोग में कभी नहीं ली जाती हैं।148 अमृतचन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ को अपनी शक्ति के अनुसार उन वस्तुओं का त्याग करना चाहिए जिनका प्रयोग,अस्वीकृत नहीं है।149 भोगोपभोगपरिमाणव्रत में दो प्रकार से त्याग भोगोपभोगपरिमाणव्रत में त्याग दो प्रकार से होता है- यमरूप और नियमरूप। यमरूप त्याग जीवनपर्यन्त होता है जब कि नियमरूप त्याग सीमित समय के लिए होता है। 50 निम्न प्रकार की वस्तुएँ- (1) वे वस्तुएँ जो एकेन्द्रिय जीवों से अधिक प्राणवालों की हिंसा से प्राप्त होती हैं जैसे- मांस और मधु। (2) वे वस्तुएँ जो आध्यात्मिक अकर्मण्यता 147. वसुनन्दी श्रावकाचार, 217, 218 148. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 86 149. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 164 150. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 87 सागारधर्मामृत, 5/14 (138) Ethical Doctrines in Jainism teref # 341efcuite AGRA For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न करती हैं जैसे- मद्य, अफीम, धतूरे के बीज, गांजा आदि को जीवनपर्यन्त त्याग देनी चाहिए। इसके अतिरिक्त आभूषण, वाहन आदि का प्रयोग जो आवश्यक नहीं है, 151 ऐसी वस्तुओं का प्रयोग जो कि महापुरुषों के द्वारा अस्वीकृत की गयी हैं वह भी जीवन भर के लिए या सीमित समय के लिए छोड़ देनी चाहिए। 152 सीमित समय के लिए भोजन, वस्त्र, वाहन, पान - पत्ती, आभूषण आदि का त्याग करना चाहिए, क्योंकि गृहस्थ इनको हमेशा के लिए नहीं छोड़ सकता है। 153 ऐसा अनुशासन पालन करने से अहिंसा का पालन किया जाता है क्योंकि भोग और उपभोग की वस्तुएँ छोड़ने से इन संबंधी हिंसा छूट जाती है। 154 भोगोपभोगपरिमाणव्रत गुणव्रत और शिक्षाव्रत के रूप में वसुनन्दी और तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद इसको शिक्षाव्रत में गिनते हैं जबकि समन्तभद्र और कार्तिकेय इसको गुणव्रत मानते हैं। यह अन्तर व्रत के द्वयात्मक स्वरूप के कारण है। इसमें यम जो लक्षण है और नियम जो शिक्षाव्रत का लक्षण है- ये दोनों सम्मिलित हैं। दिव्रत, अनर्थदण्डव्रत, देशव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत के स्वरूप का वर्णन करने के पश्चात् हम शेष तीन व्रतों सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग का जो एकमत से शिक्षाव्रत के रूप में सुनिश्चित हैं, वर्णन करेंगे। 151. सर्वार्थसिद्धि, 7/21 152. राजवार्तिक, 2/7/21, 27 चारित्रसार, पृष्ठ 25 153. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 88, 89 154. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 166 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (139) For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक का स्वरूप __ सामायिक मन, वचन और काय की क्रियाओं का आत्मा में तल्लीन होना है।155 अमृतचन्द्र कहते हैं कि सामायिक का उद्देश्य जगत : की वस्तुओं से राग-द्वेष त्यागना और मन की साम्यावस्था अपनाने के पश्चात् आत्मा को प्राप्त करना है। समन्तभद्र सामायिक की प्रक्रिया के लिए पाँच प्रकार के पापों को छोड़ना प्रस्तावित करते हैं।57 श्रावकप्रज्ञप्ति के अनुसार सामायिक निषेधात्मक रूप से पाप क्रियाओं को त्यागना है और स्वीकारात्मक रूप से निष्पाप क्रियाओं को करना है।158 मन की समतारूप स्थिति गृहस्थ के जीवन में शुभ चिन्तन के समान होती है, जो शुभोपयोग कही जाती है जिसका शुद्धोपयोग से भेद किया जाना चाहिए। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन मोक्ष के मूल में है उसी प्रकार सामायिक भी मोक्ष के लिए आचरण के मूल में है। अशुभ, अस्थायी और दुःखपूर्ण जगत के स्वभाव पर चिन्तन और शुभ, स्थायी और आनन्ददायक मोक्ष के स्वभाव पर चिन्तन- ये दोनों पक्ष शुभ चिन्तन की सामग्री की रचना करते हैं।159 सामायिक को सफलतापूर्वक करने के लिए सात आवश्यकताओं पर विचार अपेक्षित है अर्थात्- स्थान, समय, आसन, ध्यान और तीन प्रकार की शुद्धताएँ- मानसिक, शारीरिक और वाचिक।160 (1) जो 155. राजवार्तिक, 2/7/21, 7 चारित्रसार, पृष्ठ19 156. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 148 157. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 97 158. श्रावकप्रज्ञप्ति, 292 159. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 104 160. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 352 (140) Ethical Doctrines in Jainism sterf Å Brakusite RAGIRI For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 स्थान शान्तिभंग करनेवाले कोलाहल से, व्यक्तियों की भीड़ से, मक्खी, मच्छर आदि कीड़ों से मुक्त हो वह सामायिक के लिए उचित स्थान है । " दूसरे शब्दों में, शब्दरहित और एकान्त स्थान चाहे वह जंगल, घर, मंदिर हो या और कोई दूसरा ऐसा ही स्थान सामायिक करने के लिए चुनना चाहिए। 162 (2) सामायिक दिन में तीन बार की जानी चाहिए अर्थात्- सुबह, दोपहर और शाम | 13 आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ को सामायिक की क्रिया को आवश्यक समझना चाहिए और कम से कम एक दिन में दो बार इसे करनी चाहिए अर्थात् - सुबह और शाम। 164 वे आगे कहते हैं कि सामायिक का करना दूसरे समय में भी यदि होता है तो वह आध्यात्मिक और नैतिक गुणों को बढ़ाने में सहायक होगा, इसलिए यह अनुचित नहीं है बल्कि हितकारी है । " समन्तभद्र कहते हैं कि व्यक्ति को उतने समय तक सामायिक करनी चाहिए जो समय उसने अपनी सामर्थ्य के अनुसार निश्चित किया है। 166 अपने आपको सभी प्रकार की सांसारिक क्रियाओं से अलग करके और सभी मानसिक व्याकुलताओं को जीतकर सामायिक की अवधि को उपवास और एकासन के दिनों में बढ़ाना चाहिए। 167 इसको प्रतिदिन शनैः-शनैः बढ़ाना चाहिए, क्योंकि सामायिक पाँच व्रतों को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में काम की है। 168 (3) सामान्यतया 165 161. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 353 162. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 99 163. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 354 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 149 164. 165. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 149 166. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 98 167. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 100 168. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 101 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (141) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड़गासन और पद्मासन सामायिक करने के लिए उपयुक्त आसन बताये गये हैं।169 (4-7) साधक अपने मन को जिनेन्द्र के उपदेशों पर एकाग्र करके ऐन्द्रिक सुखों से अपने को मुक्त करे और विनम्र और समर्पित भाव ग्रहण करें या भक्ति करे या अपने आपको आत्मध्यान में लीन करे।170 उसको बिना मौन भंग किए और बिना शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं की शुद्धताओं में बाधा डाले परीषहों को सहना चाहिए।171 सामायिक करने में जो उपर्युक्त आवश्यकताओं को ध्यान में रखता है वह स्वाभाविक रूप से सारे सूक्ष्म पापों को भी छोड़ देता है।172 सामायिक की क्रिया के लिए निर्धारित समय में व्यक्ति संन्यास को धारण करने की ओर अग्रसर होता है।173 प्रोषधोपवासव्रत का स्वरूप समन्तभद्र'74 और दूसरे 75 आचार्य प्रतिपादित करते हैं कि 169. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 355 170. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 355, 356 171. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 103 चारित्रसार, पृष्ठ 19 172. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 102 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 357 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 150 173. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 102 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 357 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 150 174. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 106 175. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 151 सागारधर्मामृत, 5/34 अमितगति श्रावकाचार, 6/88 तत्त्वार्थवृत्ति, 7/21 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 359 Yasastilaka and Indian Culture p.282 (142) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोषधोपवासव्रत में अष्टमी और चतुर्दशी के दिन चार प्रकार के भोजन का त्याग किया जाना चाहिए। संभवतया व्यक्तियों की अशक्तता को ध्यान में रखते हुए कार्तिकेय 176 प्रोषधोपवासव्रत में दिन में एक बार सादा भोजन करने को भी सम्मिलित करते हैं। अमितगति" और आशाधर 178 भी इस व्रत में केवल पानी लेना सम्मिलित करते हैं। इस व्रत के पालन में ध्यान करना, आध्यात्मिक साहित्य को पढ़ना, सादा और कषायमुक्त जीवन जीना और गृहस्थी के कार्यों में व्यस्तता न होना अपेक्षित है। 179 श्रावकप्रज्ञप्ति निरूपित करती है कि प्रोषधोपवासव्रत में भोजन और गृहस्थी के कार्य आंशिक या पूर्णरूप से त्यागे जाने चाहिए, सादा और कषायमुक्त जीवन अंगीकार किया जाना चाहिए। इस व्रत के पालन के लिए मंदिर, साधुओं का निवास, प्रोषधशाला या कोई पवित्र स्थान अपने ठहरने के लिए चुनना चाहिए | 180 प्रोषधोपवासव्रत की प्रक्रिया विशेषरूप से अमृतचन्द्र 181 प्रोषधोपवासव्रत को पालने की प्रक्रिया को निर्धारित करते हैं। गृहस्थी के सभी कार्यों व संसार के प्रति 176. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 359 177. अमितगति श्रावकाचार, 6/90 178. सागार धर्मामृत, 5/35 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 358 179. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 107, 108 अमितगति श्रावकाचार, 6/89 Yaśastilaka and Indian Culture, p. 282 180. श्रावकप्रज्ञप्ति, 322 सर्वार्थसिद्धि, 7/21 चारित्रसार, पृष्ठ 22 181. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 152-157 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (143) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्ति को छोड़ने के पश्चात् प्रोषध दिन के पहले दिन मध्याह्न में व्रत धारण करना चाहिए। इसके पश्चात् एकान्त स्थान में जाना चाहिए, पापपूर्ण सभी क्रियाओं को छोड़ना चाहिए, सभी ऐन्द्रिक सुखों को त्यागना चाहिए, शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं को उचित रूप से नियंत्रित करना चाहिए। शुभ चिन्तन में शेष दिन बिताने के पश्चात् शाम को सामायिक की क्रिया करनी चाहिए। आध्यात्मिक साहित्य के अध्ययन में तल्लीन होने के द्वारा निद्रा जीतकर शुद्ध चटाई . पर रात्रि को बिताना चाहिए। अगली सुबह सामायिक की क्रिया करने के पश्चात् प्रासुक द्रव्यों के साथ जिनेन्द्र-पूजन करनी चाहिए। उसी तरह दिन, दूसरी रात और तीसरे दिन के मध्याह्न तक सतर्कता से बिताना चाहिए। इस प्रकार प्रोषधोपवासव्रत का समय 16 यम (48 घंटे) नियत प्रोषधोपवासव्रत और पाँच पाप सभी प्रकार की पापपूर्ण क्रियाओं से मुक्त होने के कारण प्रोषधोपवासव्रत को पालन करनेवाला पूर्ण रूप से साधुओं के महाव्रत पालने के सदृश हो जाता है। भोग और उपभोग की वस्तुओं के त्याग के कारण वह सभी प्रकार की जीवों की हिंसा से दूर रहता है। वह असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और आसक्ति का त्याग कर देता है।182 अतिथिसंविभागवत का स्वरूप अब हम अतिथिसंविभागवत के स्वरूप का वर्णन करेंगे। कार्तिकेय के अनुसार वह व्यक्ति जो सुपात्र को चार प्रकार का दान देता है वह अतिथिसंविभागवत का उचित प्रकार से पालन करनेवाला होता है।183 182. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 158, 159 183. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 360, 361 (144) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह दान देना, बिना किसी अपेक्षा के होना चाहिए। 184 यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि संभवतया इस व्रत के क्षेत्र को बढ़ाने के लिए समन्तभद्र इसे वैयावृत्त्य नाम देते हैं। इसके अन्तर्गत सम्मिलित हैं- उन लोगों के रोगों को दूर करना जो त्याग का मार्ग अपना रहे हैं और अन्य भी कई प्रकार से उनकी सेवा करना । 185 समन्तभद्र इस व्रत का पालन करनेवालों के लिए अर्हन्तों की भक्ति को आवश्यक मानते हैं । 186 अतिथिसंविभागव्रत का पालन करने के लिए सुपात्रों व अन्य पात्रों तथा दान देने योग्य वस्तुओं का ज्ञान अतिआवश्यक है। सम्यग्दर्शन ( आत्मजाग्रति) युक्त आचरण से गुण-श्रेणी विकसित होती है। अतः तीन प्रकार के सुपात्र माने गए हैं। (क) वह साधु जिसने मोक्ष की प्राप्ति के लिए अपना जीवन समर्पित किया है वह गुणों की श्रेणी पर सबसे ऊँचा होता है।187 (ख) गृहस्थ जो बारह व्रतों का पालन करता है या ग्यारह प्रतिमाओं द्वारा प्रस्तावित आचरण का पालन करता है वह गुणों की श्रेणी के मध्य में होता है । 188 (ग) वह व्यक्ति जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर 184. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 167 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 111 185. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 112 186. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 118 187. वसुनन्दी श्रावकाचार, 221 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 171 अमितगति श्रावकाचार, 10/4 सागारधर्मामृत, 5/44 188. वसुनन्दी श्रावकाचार, 222 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 171 अमितगति श्रावकाचार, 10/ 27-30 सागारधर्मामृत, 5/44 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (145) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया है किन्तु नैतिक आचरण का पालन नहीं कर पाता है वह गुणों की श्रेणी के अन्त में होता है।189 इन सुपात्रों को भक्तिपूर्वक दान दिया जाता है इनसे भेद करने के लिए हम (I) कुपात्र, (II) अपात्र और (II) करुणा पात्र के स्वरूप का वर्णन करेंगे। (I) सम्यग्दर्शन के अभाव में वह जो व्रतों का पालन करता है तथा तपस्या करता है उसको कुपात्र!90 माना जाता है अर्थात् उसको भक्तिपूर्वक दान नहीं दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिकता के अभाव में केवल नैतिक शुद्धता भक्तिपूर्वक दान का . विषय नहीं हो सकती। सरसरी तौर पर हम कह सकते हैं कि दान का यह पक्ष जैन आचारशास्त्र की आध्यात्मिकता पर प्रकाश डालता है। (II) वह जो न तो नैतिक आचरण युक्त है, न ही सम्यग्दृष्टि है उसे अपात्र'91 माना जाना चाहिए अर्थात् वह दान के योग्य ही नहीं होता है। अपात्र समाज के लिए अभिशाप है। (III) बच्चे और दूसरे लोग जो वृद्ध, गूंगे, बहरे, अंधे, विदेशी और रोगी हैं उनको करुणावश उचित वस्तुएँ दी जानी चाहिए।192 यह उल्लेखनीय है कि भक्ति दान का सामाजिक दान और करुणा दान से भेद किया जाना चाहिए। तीन सुपात्र भक्ति से दान प्राप्त करते हैं, किन्तु कुपात्र और करुणापात्रों को भी नैतिक या सामाजिक दृष्टिकोण से दान देना चाहिए। इसका श्रेय जैन चिन्तकों को जाता है कि 189. वसुनन्दी श्रावकाचार, 222 अमितगति श्रावकाचार, 10/32 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 171 सागारधर्मामृत, 5/44 190. अमितगति श्रावकाचार, 10/ 34, 35 वसुनन्दी श्रावकाचार, 223 191. अमितगति श्रावकाचार, 10/36, 37, 38 वसुनन्दी श्रावकाचार, 223 192. वसुनन्दी श्रावकाचार, 235 (146) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने भक्तिदान या पात्रदान पर जोर देने के कारण दान के सामाजिक पक्ष की उपेक्षा नहीं की। दान देने योग्य वस्तुएँ चार प्रकार की मानी गयी हैं- अर्थात् आहार, औषधि, शास्त्र और अभय।193 ये सभी वस्तुएँ पात्रों के योग्य होनी चाहिए। केवल ऐसी वस्तुएँ दी जानी चाहिए जो स्वाध्याय के लिए, उच्चकोटि के तप के लिए लाभदायक हों और जो राग, द्वेष, असंयम आदि को उत्पन्न नहीं करती हों। गृहस्थ के नैतिक आचरण का दो प्रकार से निरूपण- व्रत और प्रतिमा के रूप में हम अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों के स्वरूप की व्याख्या कर चुके हैं। गुणव्रत और शिक्षाव्रत जो शीलव्रत कहे गये हैं वे व्यक्ति को त्यागमय जीवन के विकास के लिए शिक्षा देने में समर्थ हैं। वे उसमें पाप की चेतना को गहरा करते हैं। परिणाम स्वरूप सूक्ष्म हिंसा जो शुभ ध्यान (धर्मध्यान और शुक्लध्यान) करने के लिए बाधा है उसके कारणों को पूर्णतया हटाने के लिए शीलव्रत उत्साहित करते हैं। यह स्पष्ट है कि गृहस्थ जो अणुव्रतों का पालन करता है उसके जीवन में जो हिंसा शेष रहती है वह भोग और उपभोग की वस्तुओं के प्रयोग के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती है। अब जिसका हृदय प्रकाशित हो चुका है जिसने त्यागमय जीवन के कर्तव्यों को पालने की शक्ति प्राप्त कर ली है, वह शनै:-शनैः भोग और उपभोग की वस्तुओं को त्यागने की ओर चलता है, जब तक वह साधु जीवन तक नहीं पहुँच जाता। दूसरे शब्दों में, जीवन का उन्नत दृष्टिकोण निषेधात्मकरूप से भोग और उपभोग की वस्तुओं को अन्तिम 193. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 362 अमितगति श्रावकाचार, 9/83, 106, 107 वसुनन्दी श्रावकाचार, 223 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (147) For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमा तक कम करते जाना है और स्वीकारात्मक रूप से अपने जीवन के ध्यानात्मक पक्ष को गहरा करना है। निषेधात्मक पक्ष उसी समय . प्रशंसित होना चाहिए जब वह ध्यानात्मक विकास या शुभ प्रवृत्तियों के . स्वीकारात्मक पक्ष के साथ हो। जैन आचार सम्बन्धी रचनाओं के अध्ययन से हम गृहस्थ के .. आचार की व्याख्या अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत के आधार से पाते हैं जो व्याख्या का एक प्रकार है। यह पद्धति भोग और उपभोग की. . वस्तुओं को क्रमिक रूप से त्याग के द्वारा गृहस्थ के चारित्र के नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए समर्थ है। इस व्याख्या के प्रभावशाली समर्थक हैं- समन्तभद्र, सोमदेव, अमितगति, अमृतचन्द्र और हेमचन्द्र। उन धार्मिक-नैतिक आचार्यों में से उमास्वाति, अमृतचन्द्र और हेमचन्द्र ने पूर्णतया इस दृष्टिकोण का समर्थन किया है जब कि शेष ने उल्लिखित पद्धति से गृहस्थ के आचरण की व्याख्या करते हुए भी इसकी दूसरे प्रकार से भी व्याख्या की है। दूसरे प्रकार के प्रभावशाली समर्थक अर्थात् जो गृहस्थ के आचार को ग्यारह प्रकार की प्रतिमाओं के आधार से व्याख्या करते हैं वे हैं- कुन्दकुन्द,19 कार्तिकेय,195 चामुण्डराय% और वसुनन्दी।” दोनों प्रकारों में समन्वय ये दोनों प्रकार प्रथम दृष्टि में जैन नैतिक आचरण के दो भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए प्रतीत होते हैं, किन्तु ये दोनों इतने घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं कि यदि व्रत की व्याख्या को हम आध्यात्मिक विकास 194. चारित्रपाहुड, 22 195. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 305, 306 196. चारित्रसार, पृष्ठ 3 197. वसुनन्दी श्रावकाचार, 4 (148) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए आगे बढ़ाएँ तो हम विकास के व्यवस्थित सोपान प्राप्त कर सकेंगे।यदि स्पष्ट करें तो सामायिक, प्रोषधोपवास और भोगोपभोगपरिमाणव्रत हमको मुनि जीवन की तरफ विकास के नौ सोपान दे सकते हैं। इस प्रकार दो प्रकारों के बीच न पाटनेवाली खाई नहीं है। उनमें निरन्तरता है और उनके बीच कोई विरोध नहीं है। इसके अतिरिक्त ग्यारह प्रतिमाओं के आधार से व्याख्या अधिक पुरानी और पारम्परिक है, क्योंकि इनके बारे में पुराने आगम-ग्रंथों में संदर्भ प्राप्त होते हैं।198 यद्यपि प्रतिमाओं के आधार से वर्णन कालानुक्रम की दृष्टि से पूर्व है फिर भी तार्किक प्राथमिकता का श्रेय व्रतों के प्रकार को दिया जा सकता है। ग्यारह प्रतिमाएँ __ग्यारह प्रतिमाएँ जो कुन्दकुन्द,199 समन्तभद्र,200 चामुण्डराय और वसुनन्दी201 द्वारा उल्लिखित हैं इस प्रकार हैं- (1) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रोषध, (5) सचित्तत्याग, (6) रात्रिभुक्तित्याग, (7) ब्रह्मचर्य, (8) आरंभत्याग, (9) परिग्रहत्याग, (10) अनुमतित्याग और (11) उद्दिष्टत्याग। कार्तिकेय बारह प्रतिमाओं के नाम गिनाते हैं,202 किन्तु इसे परम्परा की संख्या जो ग्यारह है उसका उल्लंघन नहीं समझना चाहिए, क्योंकि प्रथम प्रतिमा जो कार्तिकेय ने गिनायी है वह सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) को निर्देशित करती है अर्थात् जो दूसरे आचार्यों द्वारा अलग नहीं गिनाई गई है, किन्तु इसको उन्होंने प्रथम प्रतिमा में ही 198. षटखण्डागम, भाग-1, पृष्ठ102 . कषायपाहुड, भाग-1, पृष्ठ130 199. चारित्रपाहुड, 22 200. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 137-147 201. वसुनन्दी श्रावकाचार, 4 202. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 305, 306 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (149) For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलित कर लिया है और शेष ग्यारह प्रतिमाओं के नाम वही हैं। अतः यहाँ कोई पारम्परिक गणना से भिन्नता नहीं है। प्रायः सभी आचार्यों ने ग्यारह प्रतिमाएँ स्वीकार की हैं और हम यह बताने का प्रयास करेंगे कि उल्लिखित तीन व्रत ( सामायिक, प्रोषधोपवास और भोगोपभोगपरिमाण) नौ प्रतिमाओं के आचार सम्बन्धी विकास को समझाने में समर्थ हैं। दर्शन प्रतिमा (1) प्रथम प्रतिमा दर्शन प्रतिमा है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पश्चात् साधक दृढ़तापूर्वक घृणित वस्तुओं के प्रयोग जैसे- मद्य, मांस आदि 203 को त्याग देता है और सांसारिक और स्वर्गीय सुखों से उदास हो जाता है और अनासक्ति की भावना का पोषण करता है। 204 वसुनन्दी के दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है और पंच उदम्बर फलों के प्रयोग को त्याग दिया है और जूआ, मद्य, मांस, मधु, शिकार और चोरी आदि को छोड़ दिया है वह दार्शनिक श्रावक कहा जाना चाहिए। 205 उपर्युक्त आसक्तियों को त्यागने के अतिरिक्त वसुनन्दी स्पष्ट रूप से रात्रिभोजन करने की निन्दा करते हैं और तर्क देते हैं कि जो रात्रि में भोजन करता है वह प्रथम प्रतिमा के पालन करने का दावा नहीं कर सकता है। 206 यदि हम प्रथम प्रतिमा के आचरण का पालन करने पर थोड़ा-सा भी चिन्तन करें तो हम यह कह सकते हैं कि 203. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 328, 329 204. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 137 चारित्रसार, पृष्ठ 3 205. वसुनन्दी श्रावकाचार, 57-59 206. वसुनन्दी श्रावकाचार, 314 (150) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह प्रतिमा सम्यग्दर्शन के साथ मूलगुणों को सम्मिलित करती है। अतः मूलगुणों की विभिन्न धारणायें प्रथम प्रतिमा के विभिन्न रूप चित्रित करती हैं। यह संभव है कि इस तथ्य को जानने के कारण सोमदेव प्रथम प्रतिमा को 'मूलव्रत' कहते हैं।207 यह कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि प्रथम प्रतिमा का चित्रण इतना व्यापक है कि यह प्रतिमा वसुनन्दी के अनुसार प्रतिपादित सब मूलगुणों को अपने अन्तर्गत सम्मिलित कर लेती है। यह समन्तभद्र और जिनसेन की धारणाओं के अनुसार कठोर नहीं है जिसमें पाँच अणुव्रत सम्मिलित किये गये हैं और सोमदेव के दृष्टिकोण से अत्यधिक सरल भी नहीं है। सात प्रकार के व्यसनों (जूआ, मांस, मद्य, शिकार, वेश्यावृत्ति, परस्त्रीगमन, चोरी) में चार प्रकार के व्रत आ जाते हैं अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी और अब्रह्मचर्य। अत: इसमें कुछ हद तक समन्तभद्र और जिनसेन का दृष्टिकोण सम्मिलित हो जाता है। इस प्रकार मूलगुण और सम्यग्दर्शन प्रथम प्रतिमा का चित्रण कर सकते हैं। जैसे मूलगुणों की धारणा गतिशील है उसी प्रकार प्रथम प्रतिमा का निरूपण भी गतिशील होगा। दूसरे शब्दों में यह प्रतिमा उन नयी विकसित कुप्रवृत्तियों के त्याग को सम्मिलित करने में समर्थ है जो व्यक्ति के नैतिक और आध्यात्मिक विकास को अवरुद्ध कर सकती हैं। यदि हम इस प्रतिमा में से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को घटा दें तो हमें नैतिक विकास की ग्यारह प्रतिमाएँ प्राप्त होंगी। जब कि सम्यग्दर्शन के कारण ये प्रतिमाएँ आध्यात्मिक विकास की ग्यारह प्रतिमाएँ कही जायेंगी। यह जानना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि प्रथम प्रतिमा नैतिक आचरण के प्रारंभिक 207. वसुनन्दी श्रावकाचार, 59 वसुनन्दी श्रावकाचार, भूमिका, पृष्ठ 50 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (151) For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशिक्षण के समान है। हम मूलगुणों के पृथक् रूप से उल्लेख को सम्यग्दर्शन के साथ की अपेक्षा अधिक उचित मानते हैं क्योंकि वे मूलगुण अधिसंख्यक साधारण व्यक्तियों के द्वारा पालन किये जा सकते हैं, जिसके कारण सामाजिक ढाँचा नैतिक रूप से सुरक्षित रह सकता है। व्रत प्रतिमा (2) द्वितीय प्रतिमा व्रत प्रतिमा कही गयी है। यह गृहस्थ के विकास की द्वितीय श्रेणी है जिसमें अतिसावधानीपूर्वक अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का पालन सम्मिलित है। इन व्रतों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। 208 सामायिक और प्रोषध प्रतिमा ( 3 ) तीसरी सामायिक और (4) चौथी प्रोषध प्रतिमा कही जाती है। एक प्रश्न पूछा जा सकता है जब सामायिक और प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के रूप में माने गये हैं तो वे यहाँ तीसरी और चौथी प्रतिमा के रूप में क्यों माने जा रहे हैं ? वास्तव में यह प्रश्न और अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है कि जब हम देखते हैं कि समन्तभद्र और कार्तिकेय सामायिक और प्रोषध दोनों को व्रतों और प्रतिमाओं के रूप में स्वीकार करते हैं। और उन्होंने दोनों के लिए एक-सा ही आचरण प्रस्तावित किया है। सामायिक प्रतिमा में कार्तिकेय अपने जीवन में जोखिम उपस्थित होने के बावजूद भी मन, वचन और काय से दृढ़ संकल्प धारण करना प्रस्तावित करते हैं 209 जब कि समन्तभद्र इस बात को सामायिक व्रत में बताते हैं। 210 समन्तभद्र सामायिक प्रतिमा में यह कहकर भेद करते हैं कि 208. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 318 वसुनन्दी श्रावकाचार, 207 209. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 371, 372 210. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 103 (152) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन में तीन बार सामायिक का पालन करना चाहिए 211 जब कि कार्तिकेय ने इस बात को व्रतों में बता दिया है। 212 इस तरह प्रोषध प्रतिमा और प्रोषध व्रत में कार्तिकेय और समन्तभद्र द्वारा विशिष्ट भेद नहीं किया गया है। हम यह कह सकते हैं कि जो यह भेद बताये गये हैं वे इतने उपेक्षणीय हैं कि उन व्रतों को स्वतन्त्र प्रतिमा के रूप में स्वीकार करने के लिए हमारे पास कोई यथेष्ट प्रमाण नहीं है। आशाधर 213 का तर्क है कि ये शील जो अणुव्रत की रक्षा का कार्य करते हैं वे प्रतिमाओं में स्वतन्त्र व्रत बन जाते हैं अकाट्य नहीं है, क्योंकि ये शीलव्रत जो रक्षा का काम करते थे वे व्रत क्यों नहीं कहे जा सकते हैं? 'शील' शब्द जो व्रतों के पहले लगता है वह केवल विशिष्टता दर्शाता है और उनके व्रत होने का विलोपन नहीं करता है। संभवतया पुनरावृत्ति के कारण वसुनन्दी ने शीलव्रतों में से इन व्रतों को हटा दिया और उनका दो प्रतिमाओं के रूप में उल्लेख किया। यदि कुन्दकुन्द और कार्तिकेय इस प्रकार के वर्णन का समर्थन करते हैं अर्थात् सामायिक और प्रोषध को व्रत और प्रतिमा दोनों रूप में स्वीकार करते हैं तो संभवतया यह बताने का प्रयास है कि गहन आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ने के लिए इनका परम महत्त्व है। वास्तव में ये गृहस्थ के पूर्ण आध्यात्मिक जीवन का सार प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त सामायिक और प्रोषधोपवास अंतरंग रूप से संबंधित होते हैं, इसलिए एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रोषधोपवास सामायिक के उचित पालन में सहायक है और कभी-कभी सामायिक प्रोषधोपवास के 211. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 139 212. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 354 213. सागारधर्मामृत, 7/6 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (153) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालन को प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार यदि वसुनन्दी सैद्धान्तिक रूप से न्यायसंगत हैं तो कुन्दकुन्द और कार्तिकेय व्यवहारिक रूप से है। आध्यात्मिकता के विज्ञान में सिद्धान्त व्यवहार की बराबरी नहीं कर सकता है। इसलिए यदि ये व्रत प्रतिमा की श्रेणी में उन्नत किये जाते हैं तो यह आध्यात्मिक चेतना की गहराई का समर्थन करना है, इसलिए यह तर्कसंगत है। शेष प्रतिमाएँ सामायिक और प्रोषधोपवास की व्रतों के रूप में स्वीकृति होते हए भी प्रतिमा के रूप में भी स्वीकार को न्यायसंगत मानने के पश्चात् अब हम शेष प्रतिमाओं के स्वरूप के बारे में विचार करेंगे। शेष सभी प्रतिमाएँ भोग और उपभोग के त्याग पर निर्भर करती हैं। (5) पाँचवीं प्रतिमा सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है। इसमें उन वस्तुओं के प्रयोग का । त्याग करना है जिनमें जीवन होता है अर्थात् जड़, फल, पत्ती, छाल, बीज आदि।214 इस प्रतिमा के द्वारा समर्थित आचरण का पालन करनेवाला व्यक्ति उन वस्तुओं को जो उसके द्वारा त्यागी गई है स्वयं नहीं खाता और दूसरों को भी नहीं खिलाता है।15 यह प्रतिमा भोग की वस्तुओं के त्याग की ओर संकेत करती है मुख्यतया सचित्त भोजन। (6) छठी प्रतिमा रात्रिभुक्ति कही जाती है। कुन्दकुन्द,216 कार्तिकेय217 214. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 380 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 141 सागार धर्मामृत, 6/8 वसुनन्दी श्रावकाचार, 295 215. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 380 216. चारित्रपाहुड, 22 217. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 382 Ethical Doctrines in Jainis For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और समन्तभद्र ने इसका समर्थन किया है। कार्तिकेय के अनुसार जो इस प्रतिमा पर बढ़ गया है वह स्वयं रात्रि को भोजन नहीं खाता और न ही दूसरों को खिलाता है। (7) सातवीं प्रतिमा ब्रह्मचर्य प्रतिमा कहलाती है जो पूर्ण ब्रह्मचर्य को प्रस्तावित करती है।19 (8) आठवीं220 प्रतिमा आरंभत्याग प्रतिमा कही जाती है जिसमें साधक नौकरी, व्यापार और जीविकोपार्जन के साधनों को छोड़ देता है। इसके अतिरिक्त वह दूसरों को व्यापार आदि का सुझाव नहीं देता है और जो कोई भी व्यापार आदि करते हैं उनकी प्रशंसा नहीं करता।21 (9) नवी प्रतिमा परिग्रहत्याग प्रतिमा कहलाती है जो सब प्रकार के परिग्रह के त्याग को प्रस्तावित करती है सिवाय वस्त्रों के और उन वस्त्रों में भी साधक आसक्त नहीं होता है।22 समन्तभद्र और कार्तिकेय के अनुसार इस प्रतिमा को पालनेवाले को सिवाय वस्त्रों के सभी प्रकार के परिग्रह को त्याग देना चाहिए।23(10) दसवीं प्रतिमा अनुमतित्याग प्रतिमा कहलाती है जिसमें 218. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 142 219. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 384 वसुनन्दी श्रावकाचार, 297 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 143 सागारधर्मामृत, 7/16 220. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 144 वसुनन्दी श्रावकाचार, 298 221. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 385 222. वसुनन्दी श्रावकाचार, 299 223. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 386 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 145 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (155) For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक घर-संबंधी मामलों में सलाह नहीं देता है।224 वह अपने लिए बनाये गये भोजन व वस्त्रों के त्याग के अतिरिक्त और सभी त्याग देता है। (11) ग्यारहवीं प्रतिमा उद्दिष्टत्याग प्रतिमा कही जाती है। यह उस समय प्राप्त होती है जब साधक घर छोड़ देता है और जंगल में चला जाता है जहाँ मुनि रहते हैं और गुरु की उपस्थिति में वह व्रत धारण करता है। वह तप करता है, भिक्षा से भोजन प्राप्त करता है और एक लंगोटी पहनता है। इस तरह से वह उत्तम श्रावक कहलाता है।25 ... गृहस्थ के नैतिक आचरण की व्याख्या का सुव्यवस्थित तीसरा प्रकार गृहस्थ के नैतिक आचरण की तीसरे प्रकार से भी व्याख्या की गई है। यह प्रकार व्याख्या की व्यापक प्रवृत्ति के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ है। सल्लेखना जो कुन्दकुन्द ने व्रतों में सम्मिलित की है वह दूसरे आचार्यों द्वारा व्रतों में से बाहर निकाल दी गयी और उसको अलग स्थान दिया गया। इसके अतिरिक्त, मूलगुण, व्रत और प्रतिमा एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं। यद्यपि प्रतिमा की धारणा मूलगुणों और व्रतों को सम्मिलित करने में समर्थ है फिर भी ये मूलगुणों का सम्यग्दर्शन के साथ मिश्रण कर देती है। इस प्रकार यह मूलगुणों को उनके मौलिक प्रयोजन से दूर कर देती है अर्थात् साधारण आदमी को नैतिकता के अल्पतमरूप से दूर कर देती है। यद्यपि मूलगुण और सम्यग्दर्शनसहित व्रत प्रतिमा को उत्पन्न करते हैं फिर भी सल्लेखना अलग रह जाती है। इस प्रकार प्रतिमाओं की धारणा दो दोषों से ग्रसित है। प्रथम, मूलगुणों के व्यापक क्षेत्र को अंगीकार न करना 224. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 388 रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 146 वसुनन्दी श्रावकाचार, 300 225. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 147 (156) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और द्वितीय सल्लेखना को इनमें सम्मिलित नहीं करना है। मूलगुणों और सम्यग्दर्शनसहित व्रतों की धारणा का एक दोष है और वह यह है कि यह सल्लेखना को अपने अन्तर्गत सम्मिलित नहीं करता है। संभवतया इन दोषों को दृष्टि में रखते हुए जिनसेन226 ने गृहस्थ के आचार का वर्णन करने के लिए व्यापक पद्धति निकाली। उन्होंने सम्पूर्ण आचार को पक्ष, चर्या और साधन में विभक्त कर दिया। इनके आचरण के पालनेवाले को (1) पाक्षिक, (2) नैष्ठिक और (3) साधक श्रावक कहा जाता है। आशाधर ने सागारधर्मामृत में इस पद्धति को आधार रूप में स्वीकार किया। (1) वह व्यक्ति जो त्रस (दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक) जीवों की संकल्पात्मक हिंसा का त्याग करता है और मूलगुणों27 का पालन करता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। पाक्षिक श्रावक अपने आपको मद्य, मांस, मधु, पाँच प्रकार के उदुम्बर फल और सात प्रकार के व्यसनों और रात्रिभोजन से अलग रखता है।28 इसके अतिरिक्त वह अरहन्तों की पूजा करता है, गुरुओं के प्रति श्रद्धा रखता है और पात्रों को दान देता है।229 वह सबके प्रति मैत्री का अभ्यास करे, गुणवानों की प्रशंसा करे, दुखियों के प्रति करुणावान हो और जो विरोधी हैं उनके प्रति उदासीन रहे।30 (2) वह व्यक्ति जो अपने आप को व्रत और प्रतिमाओं के पालन में लगाता है वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और (3) अंत . 226. आदिपुराण, 145 227. सागारधर्मामृत, 1/19, 2/2 228. सागारधर्मामृत, 2/17, 76 229. सागारधर्मामृत, 2/23, 86 230. सागारधर्मामृत, 1/19 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (157) For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जो सल्लेखना का आचरण करता है वह साधक श्रावक कहलाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थ धर्म के आचरण का वर्णन करने में इस पद्धति में पूर्व सभी पद्धतियाँ उचित प्रकार से समन्वित कर ली गई. सल्लेखना का स्वरूप और इसका आत्मघात से भेद गृहस्थ के नैतिक आचरण की तीनों प्रकार की पद्धतियों में सामञ्जस्य स्थापित करने के पश्चात् अब हम जैनधर्म में मान्य सल्लेखना की धारणा को समझायेंगे। इसका अर्थ है बाह्य शरीर और आन्तरिक कषायों को (उनके पोषण के कारणों को शनैः-शनैः हटाने के द्वारा) उचित प्रकार से दुर्बल करना, जिससे व्यक्ति वर्तमानं शरीर को त्याग सके।31 यदि और अधिक स्पष्टीकरण किया जाय तो कहा जा सकता है कि संकट, अकाल, बुढ़ापा और रोग के अपरिहार्यरूप से सम्मुख होने पर आध्यात्मिक क्रियाओं के पालने में कठिनाई होने के कारण वर्तमान शारीरिक ढाँचे के त्याग की प्रक्रिया को सल्लेखना कहा जाता है।232 यह समझना चाहिए कि सल्लेखना की प्रक्रिया या तो उस समय स्वीकार की जानी चाहिए जब धार्मिक क्रियाएँ शारीरिक अशक्तताओं के कारण खतरे में पड़ गई हों या उस समय जब स्वाभाविक मृत्यु का समय पूर्ण संभावना से जान लिया गया है।233 निःसन्देह शरीर जो आत्मा के उत्थान का माध्यम है उसे उचित प्रकार से पोषित किया जाना चाहिए, उसकी सम्हाल की जानी चाहिए और बीमारियों का बिना पीछे हटे 231. सर्वार्थसिद्धि, 7/22 232. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 122 233. सागारधर्मामृत, 8/20 अमितगति श्रावकाचार, 6/98 योगशास्त्र, 3/148 (158) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंभीरतापूर्वक मुकाबला किया जाना चाहिए। किन्तु यदि शरीर हमारे गंभीर प्रयत्नों को सफल न होने दे तो हमें अपनी मानसिक शांति को बचाने के उद्देश्य से इसे दुर्जन की तरह छोड़ने में नहीं हिचकिचाना चाहिए | 234 इस प्रकार यदि व्यक्ति वर्तमान जीवन के समाप्त होने के कारणों के सम्मुख होता है तो उसको सल्लेखना की प्रक्रिया का सहारा लेना चाहिए। यह प्रक्रिया मृत्यु का आध्यात्मिक स्वागत है । यह मृत्यु के सामने झुकना नहीं है बल्कि निर्भयतापूर्वक और यथेष्ट प्रकार से मृत्यु की चुनौती को स्वीकार करना है । मृत्यु का यह आनन्ददायक आलिंगन हमारी आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को पुनर्जन्म में ले जायेगा, 235 लेकिन इस प्रक्रिया को अपनाना बिलकुल ही आसान नहीं है। वे व्यक्ति जिन्होंने जीवनभर पापकार्य किये हैं सल्लेखना की प्रक्रिया को धारण करने की सोच भी नहीं सकते हैं इसके लिए तो प्रारंभ से ही गंभीर प्रयास की आवश्यकता है। समन्तभद्र 236 कहते हैं कि तपस्याएँ यदि ईमानदारी और गहराई से सफलतापूर्वक पालन की जाती हैं तो उदात्त मृत्यु का फल उत्पन्न होता है। आत्मसंयम, स्वाध्याय, तप, पूजा और दान- ये सभी व्यर्थ हो जाते हैं यदि मन जीवन के आखिरी समय में शुद्ध नहीं है। जिस प्रकार राजा का प्रशिक्षण, जिसने हथियारों का प्रयोग बारह वर्षों तक सीखा व्यर्थ हो जाता है यदि वह युद्ध के मैदान में मूर्च्छित हो जाय | 237 इसलिए केवल शरीर की शक्तियों को घटाना लाभदायक नहीं है, यदि इसका परिणाम कषायों को जीतना न हो। शरीर को कृश करने की 234. सागारधर्मामृत, 8 / 5, 6, 7 235. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 175 236. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 123 237. Yaśastilaka and Indian Culture, p. 287 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only (159) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणति कषायों का त्याग करने में है।238 शरीर का मृत्यु के प्रति समर्पण इतना कठिन नहीं माना गया है जितना आत्मसंयम का पालन और अपने मन को आत्मा में लगाना है उस समय जब कि प्राण शरीर से अलग हो रहे हैं।239 यहाँ कषायों के निराकरण पर जोर है, परिणामस्वरूप यह उदात्त मृत्यु अहिंसा की परिपालना का काम करती है।240 चूँकि यहाँ कषायों के त्याग पर जोर है, अत: सल्लेखना की प्रक्रिया का आत्मघात से अनिवार्यतः भेद किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि आत्मघात कषायों के कारण पानी, आग, जहर और श्वास रोकना आदि कुसाधनों से किया जाता है।241 उचित प्रकार से की गई सल्लेखना की तुलना में आत्मघात सरल है। सल्लेखना उस समय ग्रहण की जाती है जब कि शरीर व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असफल हो जाता है और जब मृत्यु का आगमन निर्विवाद रूप से निश्चित हो जाता है, किन्तु आत्मघात भावात्मक अशान्ति के कारण जीवन में किसी भी समय किया जा सकता है। सल्लेखना की प्रक्रिया यदि सल्लेखना242 की प्रक्रिया का वर्णन करें तो कहा जा सकता है कि साधक को राग, द्वेष और मोह को त्यागकर मन की पवित्रता को प्राप्त करना चाहिए। इसके पश्चात् विनम्र और मधुर शब्दों से अपने परिवार के सदस्यों से और दूसरों से भी प्रार्थना करनी चाहिए कि वे उसको क्षमा करे दें, उन बुरे कार्यों के लिए जो उनके प्रति किये गये हैं जानबूझकर 238. सागारधर्मामृत, 8/22 239. सागारधर्मामृत, 8/24 240. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 179 241. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 178 242. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 124-128 (160) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या अनजाने में चोट पहुँचाने के लिए। उसको स्वयं को भी उनको हृदय से क्षमा कर देना चाहिए उन बातों के लिए जो किन्हीं अवसरों पर उनके द्वारा उसको कष्ट पहुँचाया गया है। उसे पाँच महाव्रतों का पालन करना चाहिए और अपने आपको बिना उदासी, गर्व और घृणा के उत्साहपूर्वक स्वाध्याय में लगाना चाहिए। पोषण (भोजन) शनैः-शनैः छोड़ना चाहिए, जिससे मानसिक अशान्ति टाली जा सके। मानसिक समता का लगातार रहना मुख्य आवश्यकता है। भोजन का त्याग शरीर को दुर्बल करने के लिए आवश्यक रूप से आत्मा की शक्ति को बढ़ाने में संतुलन के लिए होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिक ऊर्जा का क्रमिक विकास भौतिक पोषण के कारणों के त्याग में फलित होना चाहिए। प्रथम, भोजन को त्यागकर केवल दूध और छेना लेना चाहिए और उसको भी त्यागकर गरम पानी लेना चाहिए। तत्पश्चात् उपवास करना चाहिए और फिर अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के पवित्र नामों पर ध्यान करना चाहिए। ध्यान करने के पश्चात् साधक को अपने शरीर को अंतिम विदाई दे देनी चाहिए। Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (161) For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची 1. अमितगति श्रावकाचार, अनन्तकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई 2. अहिंसा तत्त्व दर्शन, मुनि नथमल, आदर्श साहित्य संघ, चूरु (राज.) 3. 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Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. षट्खण्डागम, भाग - 1, 2, 13, वीरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि की धवला टीका सहित, जैन साहित्य उद्धारक फण्ड कार्यालय, अमरावती 44. सप्तभंगितरंगिणी, विमलदास, रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई 45. समयसार, कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र और जयसेन की टीका सहित, रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई 46. समाधिशतक, पूज्यपाद, वीरसेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली 47. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी 48. सागारधर्मामृत, आशाधर, मूलचन्द किशनदास कापडिया, सूरत 49. सिद्धभक्ति पूज्यपाद, अखिल विश्व जैन मिशन, दशभक्तिसंग्रह के अन्तर्गत 50. सुभाषितरत्नसंदोह, अमितगति, हिन्दी ग्रन्थमाला कार्यालय, बम्बई , मारोठ 'अष्टपाहुड' के. 51. सूत्रपाहुड, कुन्दकुन्द, पाटनी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, अन्तर्गत 52. स्याद्वादमञ्जरी, मल्लिसेण, रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बम्बई 53. स्वयंभूस्तोत्र, समन्तभद्र, वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, देहली 54. 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