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एकत्रित मलिनता का निष्कासन (निर्जरा) और अंत में, (5) उनसे छुटकारा (मोक्ष)। आस्रव और बंध
सात तत्त्वों में जीव और अजीव तत्त्व के स्वभाव का विचारविमर्श करके अब हम आस्रव और बंध के बारे में विचार करेंगे। आस्रव (आत्मा में कर्मों का आना) वह है जो बंध (आत्मा में कर्मों को आत्मसात करना) के लिए आधार तैयार करता है। बंध अपना अर्थ और महत्त्व आस्रव से प्राप्त करता है। बंध स्वभाव से परजीवी होता है। यह जीवन और अस्तित्व के लिए आस्रव पर निर्भर होता है। यदि आस्रव अस्वीकार किया जाता है, तो बंध भी स्वत: ही अस्वीकार कर दिया जायेगा। अब हम कर्म के आस्रव के कारणों पर विचार करेंगे। आस्रव का आधारभूत कारण है आत्मा की परिस्पन्दन युक्त क्रिया जो मन-वचनकाय से उत्पन्न होती है जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'योग' कहा जाता है। 'योग' आस्रव का अत्यधिक व्यापक कारण है, क्योंकि यह सांसारिक जीवों और जीवनमुक्तों या अरहंतों दोनों को अपने में सम्मिलित कर लेता है। हम यहाँ कह सकते हैं कि योग भी बंध के कारणों में से एक कारण है। यहाँ यह कहना पर्याप्त है कि योग अकेला सांसारिक बंधन उत्पन्न नहीं करता है। ..सांसारिक आत्मा अनादिकाल से कषायों के विकृत प्रभाव में रहती है। परिणामस्वरूप योग कषायों के कारण भौतिक परमाणुओं को आकर्षित करता है जो स्वत: ही कर्मों में परिवर्तित हो जाते हैं और आत्मा का सांसारिक बंधन उत्पन्न करते हैं। ये आत्मा के चिपक जाते हैं, जैसे गर्म लोहे का पिंड पानी में रखने से सब तरफ से इसको सोख लेता है, या तेल युक्त या 2. तत्त्वार्थसूत्र, 6/1, 2
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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