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द्रव्यों के दृष्टिकोण से भेद उत्पन्न होते हैं। पद्मप्रभमलधारीदेव घोषणा करते हैं कि महासत्ता सभी वस्तुओं में पूर्णरूप से व्याप्त है, लेकिन वह सदैव अवान्तरसत्ता के साथ संबंधित रहती है जो केवल विशेष वस्तुओं में ही व्याप्त रहती है। उसीप्रकार अमृतचन्द्र दो प्रकार की सत्ता का उल्लेख करते हैं - स्वरूपसत्ता और सादृश्यसत्ता। सादृश्यसत्ता सामान्यसत्ता के समान है।” विमलदास ने 'सप्तभंगीतरंगिणी' में सत् की एकता व अनेकता की समस्या पर विस्तार से विचार किया है और वे इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि सत्तात्मक अभेद की अभिधारणा और भेदों का स्पष्ट कथन दोनों ही विभिन्न द्रव्यों के दृष्टिकोण से न्यायसंगत हैं। इस प्रकार जैनदर्शन सत्तात्मक एकत्व को स्वीकार करने में विश्वास करता है, किन्तु मात्र एकत्व ही नहीं है, क्योंकि यह सदैव अनेकत्व के साथ बंधा रहता है। इस प्रकार महासत्ता अपनी अवान्तरसत्ता के साथ संबंधित होगी। यह महासत्ता कोई स्वतंत्र वस्तु नहीं है, किन्तु सदैव विपरीत के साथ रहती है। कुन्दकुन्द उल्लेख करते हैं कि सत् का स्वभाव एक है; विश्व की रचना करनेवाले सब द्रव्यों में व्याप्त है; सम्पूर्ण विश्व को सम्मिलित और संक्षिप्त करता है; अनन्त पर्यायोंवाला होता है; उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के त्रयी गुणों को बताता है; अंत में उपर्युक्त बताये हुए विपरीत गुणों से संबंधित होता है। अतः द्रव्यों के वर्गीकरण में एकता, द्वैतता और अनेकता- ये सभी अनिवार्य रूप से सम्मिलित हैं। 35. आप्तमीमांसा, 34 36. नियमसार, पद्मप्रभमलधारीदेव की टीका, 34 37. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका 2/3/5 38. सप्तभंगीतरंगिणी,पृष्ठ 78 39. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 8 40. पञ्चाध्यायी, 1/15 41. पञ्चास्तिकाय, 8
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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