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गलत व्याख्या करना भी है और वाणी का ऐसा प्रयोग भी है जो दूसरों में तीव्र कषायों को उत्पन्न करती है और दूसरों को कष्ट पहुँचाती है। इसके अनुसार सत्य का अर्थ केवल ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं है जो सत् को सत् कहता है किन्तु उसका अर्थ ऐसे शब्दों का प्रयोग है जो शान्तिदायक, कोमल और उदात्त हो । यह स्मरण रखना चाहिए कि हमारे सावधानीपूर्वक और कोमल बोलने से भी किसी तरह दूसरे पर दुखदायी प्रभाव हो जाए तो भी हम सत्यव्रत की अवहेलना करनेवाले नहीं माने जायेंगे। यदि तात्त्विक रूप से कहा जाय तो कोई भी शब्द अपने आप में न सुखद होता है और न दुखद होता है। इसके पीछे भावना का ही महत्त्व है। एक शब्द जो पुद्गल की पर्याय होता है उसमें अनन्त गुण होते हैं। इसलिए वह दूसरे को अनन्त तरीक़ों से प्रभावित करने की शक्ति रखता है और इन सबको सामान्य मनुष्यों के द्वारा जानना संभव नहीं है । एक शब्द को सुखद या दुखद कहने में परिस्थितियाँ, स्थान, समय, व्यक्ति का चारित्र, मानसिक और शारीरिक प्रभाव अपने पर और दूसरों पर हैं- इन सबको जानना चाहिए। अमृतचन्द्र के अनुसार प्रथम प्रकार का असत्यसत् को असत् कहना है; 7 दूसरे प्रकार का असत्य-असत् को सत्
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कहना है; तीसरे प्रकार का असत्य - वस्तुओं का स्वभाव जैसा है उससे भिन्न कहना है; 39 चतुर्थ प्रकार का असत्य - ऐसी वाणी को बताता है जो ( 1 ) निन्दनीय हो, (2) पापपूर्ण हो और ( 3 ) अप्रिय हो | चतुर्थ प्रकार के असत्य को यदि और अधिक समझा जाय तो (1) पीठ पीछे निन्दा करना, उपहासात्मक वाणी, कठोर भाषा और
37. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 92
38. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 93
39. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 94
40. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 95
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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