SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की खान है।100 यह आन्तरिक द्रव्य है। इसका दूसरे द्रव्यों से भेद किया जाता है, जो केवल बाह्य है, क्योंकि वे वस्तुओं को त्यागने और ग्रहण करने के ज्ञान से रहित होते हैं।101 कुन्दकुन्द प्रवचनसार में इसको महार्थ (महान वास्तविकता) कहते हैं।102 न तो यह अपरिवर्तनीय तत्त्व है जो वेदान्त, सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक द्वारा समर्थित है, न ही यह मनोभावों की परिवर्तनशील शृंखला है जैसा कि बौद्धों द्वारा स्वीकार किया गया है, किन्तु जैनदर्शन के अनुसार यह नित्यता और परिवर्तन का संश्लेषण है। उसके अनुसार चेतना इसका स्वरूपगत और भेदमूलक गुण है। इसलिए जैनदर्शन का न्याय-वैशेषिक और पूर्वमीमांसा से भेद है, जो चेतना को आगन्तुक गुण मानते हैं और चार्वाक दर्शन से भी भेद है, जो चेतना को भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न मानता है, जैसे, कुछ संघटकों के मिलने से मदोन्मत्त करनेवाली शक्ति उत्पन्न हो जाती है। सांख्य-योग और शंकर तथा रामानुज का वेदान्त दर्शन जैनदर्शन से इस बात में समानता रखता है कि चेतना स्वरूपगत रूप से आत्मा से संबंधित है। ___ जैनदर्शन के ग्रंथों में आत्मा की धारणा विभिन्न प्रकार से प्रतिपादित है। इनको हम दो दृष्टियों में व्यक्त कर सकते हैं। प्रथम, मुक्तात्मा (निश्चय) का दृष्टिकोण है जो आत्मा की शुद्ध अवस्था को बताता है और द्वितीय, संसारी आत्मा (व्यवहार) का दृष्टिकोण है जो आत्मा की अशुद्ध अवस्था का वर्णन करता है। यहाँ हम आत्मा का संसारी दृष्टिकोण से विचार करेंगे और मुक्तात्मा के दृष्टिकोण से विचार इसके पश्चात् करेंगे। 100. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 204 101. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 205 102. प्रवचनसार, 2/100 Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy