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करते हैं उनके पण्डितमरण होता है। 139 पण्डित - पण्डित मरण के अतिरिक्त सभी प्रकार के मरण पुनर्जन्म की संभावना से युक्त होते हैं। अत: उनको संसारी मरण कहा जा सकता है। अतः उनका भेद उनसे किया जाना चाहिये (लोकोत्तर प्रकार के मरण से या पण्डित - पण्डित मरण से ) जिनका संसारी जीवन समाप्त हो चुका है। इस प्रकार यह परवर्ती मरण ( पण्डित - पण्डित मरण) अत्यधिक आनन्ददायक होता है और परिणामस्वरूप, इसमें हमारी सर्वोपरि निष्ठा अपेक्षित है। शारीरिक कारावास से आत्मा की मुक्ति का यह प्रकार मृत्यु के लिए चुनौती के रूप में हमारे सामने आता है। यहाँ मृत्यु की अनिवार्यता का उचित प्रकार से सामना किया गया है।
लक्ष्य के रूप में अहिंसा
नवाँ, नैतिक उच्चतम आदर्श की अभिव्यक्ति सम्पूर्ण अहिंसा की अनुभूति में होती है। अहिंसा जैनदर्शन में इतनी प्रमुख है कि इसे जैनधर्म का आदि और अंत कहा जा सकता है। समन्तभद्र का यह कथन कि सभी प्राणियों में अहिंसा परम बह्म की अनुभूति के समान है, अहिंसा की सर्वोपरि विशेषता पर प्रकाश डालती है। 140 सम्पूर्ण जैनाचार अहिंसा से उत्पन्न है। सभी पाप हिंसा के उदाहरण हैं । सूत्रकृतांग हमें उपदेश देता है कि अहिंसा प्रज्ञा का सारतत्त्व है, 141 क्योंकि निर्वाण अहिंसा से अन्य नहीं है। अतः सभी प्राणियों को हानि पहुँचाना समाप्त करना चाहिए | 142 आचारांग घोषणा करता है कि किसी भी प्राणी को जीवन से वंचित नहीं करना चाहिए, न उनके ऊपर शासन करना चाहिए, न ही उनको सताना
139. भगवती आराधना, 29
140. स्वयंभूस्तोत्र, 117
141. Sūtrakrtanga, 1.1.4.10, 1.11.10
142. Suūtrakrtānga, 1.11.11
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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