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चाहिए और न ही उनको उत्तेजित करना चाहिए।143 इस प्रकार कहने का अर्थ है कि अहिंसा शुद्ध और शाश्वत धर्म है। 44 एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सभी प्राणी मूलरूप से हमारे स्वयं के समान होते हैं। 145. अत: उनको हानि पहुँचाना, उनके ऊपर शासन करना, उनको सताना न्यायसंगत नहीं है।146 यह सब व्यवहार दृष्टिकोण से कहा गया है। निश्चय दृष्टिकोण कहता है कि आत्मा जो अप्रमत्त है वह अहिंसा है और आत्मा जो प्रमत्त है वह हिंसा है।147 अमृतचन्द्र स्वीकार करते हैं कि किसी प्रकार की कषाय आत्मा में प्रकट होना हिंसा है और आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था में अहिंसा है।148 पूर्ण और परम अहिंसा केवल रहस्यात्मक अनुभव में संभव है, जिसको सभी नैतिक प्रयासों का लक्ष्य माना जाता है। आदर्श की क्रमिक अनुभूति
इस अध्याय को हम यह कहते हुए पूरा करते हैं कि आदर्श क्रमिक रूप से अनुभव किया जाता है। प्रथम सोपान- आत्मा और शरीर की भिन्नता में दृढ़ श्रद्धा का विकास। दूसरे शब्दों में, दृढ़ श्रद्धा साधक में विश्वास उत्पन्न करती है कि वह आवश्यक रूप से शुद्ध आत्मा है जिसका पूर्ण भेद शारीरिक या ऐन्द्रिक आवरण से और दोनों प्रकार के मनोभावों से है। द्वितीय सोपान- सच्ची श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) और सम्यग्ज्ञान के उत्पन्न होने के पश्चात् साधक उन दोषों को नष्ट करने के लिए अग्रसर होता है जो
143. Acaranga-Sutra, 1,4,1 P. 36 144. Acāranga-Sutra 1,4,1 P. 36 145. दशवैकालिक सूत्र, 10/5 146. Acāranga-Sutra 1.5.5. P. 50 147. Haribhadra, Astaka. 7 , vide. Ahimsa Tattva Darsana
by Muni Nathamal P.4 148. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 44
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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