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को लगाना (7) मोह (मूर्छा) - ये सभी अशुभ साम्परायिक आस्रव के स्रोत हैं। तत्त्वार्थसूत्र में साम्परायिक आस्रव के उनतालिस (39) कारण गिनाये गये हैं- कषायसहित पाँच इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण) पाँच प्रकार के अव्रत (हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म (कुशील) और परिग्रह), चार कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) और पच्चीस क्रियाएँ। ___ पच्चीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं-34 (1) सम्यक्त्व (आध्यात्मिक जागरण) को बढ़ानेवाली क्रियाएँ उदाहरणार्थ- देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति, (2) मिथ्यात्वयुक्त (मूर्छायुक्त) क्रियाएँ, (3) एक स्थान से दूसरे स्थान पर शरीर का गमन, (4) व्रत लेने के पश्चात् उनकी अवहेलना की प्रवृत्ति, (5) विरक्ति की ओर प्रवृत्त क्रियाएँ, (6) क्रोध के वशीभूत क्रियाएँ करना, (7) दुष्ट भाव से कार्य करना, (8) हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना, (9) दूसरों को दुःख देनेवाली क्रियाएँ, (10) आत्मघाती
और मानवघाती क्रियाएँ, (11-12) इन्द्रिय सुख के कारण रमणीय और मोहक वस्तुओं को देखना और छूना, (13) इन्द्रिय सुख के नये प्रकारों को प्रकाश में लाना, (14) ऐसे स्थान पर मल-मूत्र का त्याग करना जहाँ पुरुष, स्त्री और पशुओं का आवागमन हो, (15) अपरीक्षित (बिना देखे), अप्रमार्जित (बिना झाड़े) भूमि पर वस्तुओं को रखना, (16) दूसरों के द्वारा की जानेवाली क्रियाओं को स्वयं करना, (17) अनुचित वस्तुओं के लिए सलाह देना, (18) दूसरे व्यक्तियों की पापपूर्ण क्रियाओं की घोषणा करना, (19) आगम में कहे गये आदेश के अनुपालन में
32. पञ्चास्तिकाय, 140 33. तत्त्वार्थसूत्र, 6/5 34. सर्वार्थसिद्धि, 6/5
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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