________________
समर्थ न होने के कारण उनका मिथ्या निरूपण करना, (20) पाखण्ड
और आलस्य के कारण आगम में वर्णित विधि की तरफ अनादर का भाव रखना, (21) हिंसात्मक क्रियाओं को करना और दूसरे मनुष्यों के अनुचित कार्यों की प्रशंसा करना, (22) स्वयं के सांसारिक परिग्रह के संरक्षण की क्रियाएँ करना, (23) ज्ञान, दर्शन आदि के विषय में छलपूर्ण क्रियाएँ करना, (24) मिथ्यादर्शन (मूर्छा) में लगे हुए व्यक्ति की क्रियाओं को प्रोत्साहित करना और (25) संन्यास के प्रति अरुचि। ये सभी सामान्यरूप से साम्परायिक आस्रव के कारण हैं। विशेष साम्परायिक आस्रव
तत्त्वार्थसूत्र में विभिन्न प्रकार के विशेष कर्मों के आस्रवों के कारणों का वर्णन किया गया है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव के कारण हैं-35 विमुक्त करनेवाला ज्ञान जब बताया जा रहा हो उस समय दुर्भावपूर्ण मौन रखना, अपने ज्ञान को छिपाना, जानते हुए भी जलन के कारण दूसरे को ज्ञान न देना, ज्ञानप्राप्ति में बाधा डालना, दूसरों के द्वारा बताये गये सत्य को अस्वीकार करना और अंत में आध्यात्मिक सत्य का खण्डन करना।असातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं-36 पीड़ारूप मानसिक अवस्था, सहानुभूति प्रकट करनेवाले व्यक्ति से संबंध विच्छेद होने पर उससे उत्पन्न शोक और व्याकुलता, बदनामी होने के कारण उद्विग्नता, आंतरिक असंतोष और अशान्ति के कारण रोना, किसी के भी इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास को नष्ट करना और दूसरों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए करुणाजनक विलाप करना। सातावेदनीय
35. तत्त्वार्थसूत्र, 6/10
सर्वार्थसिद्धि, 6/10 36. सर्वार्थसिद्धि, 6/11
Ethical Doctrines in Jainism
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org