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राग, द्वेष, मोह और कषाय का उल्लेख करते हैं। प्रथम तीन अनंतानुबंधी कषाय के रूप में वर्णित हैं और अंतिम बताती है- अप्रत्याख्यानावरण कषाय, प्रत्याख्यानावरण कषाय और संज्वलन कषाय।” तत्त्वार्थसूत्र जब कषाय' शब्द का प्रयोग सातवें अध्याय में करता है, तो वह संज्वलन कषाय के अर्थ को बताता है।28 साम्परायिक आस्रव के कारण
कषायें विभिन्न रूपों में साम्परायिक आस्रव का कारण होती हैं। कुन्दकुन्द, संक्षेप में शुभ साम्परायिक आस्रव की परिस्थितियों का वर्णन करते हैं- (1) प्रशस्त राग, (2) अनुकम्पासहित परिणाम, और (3) पापरहित चित्त। दूसरे शब्दों में (1) देव, शास्त्र और गुरु की भक्ति, (2) उनकी सहायता करना जो दु:खी हैं, प्यासे और भूखे हैं, और (3) शान्त चित्त-ये सब क्रमशः उपर्युक्त वर्णित शुभ साम्परायिक आस्रव के विस्तार हैं। अशुभ साम्परायिक आस्रव उत्पन्न होता है- (1) अत्यधिक आलस्य सहित क्रिया से, (2) तीव्र कषायों से ग्रसित मानसिक अवस्थाओं से, (3) इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति से, (4) अन्य जीवों का अनादर करने से, (5) अन्य जीवों को परिताप (दुःख) देने से। इसके अतिरिक्त (1) चार संज्ञाएँ:- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह (मूलप्रवृत्तियाँ) (2) तीन अशुभ लेश्याएँ- कृष्ण, नील और कापोत (3) इन्द्रियों के प्रति आसक्ति (4) आर्तध्यान (5) रौद्रध्यान (6) व्यर्थ की बातों में ज्ञान
27. समयसार, 280 28. तत्त्वार्थसूत्र, 7/1 29. पञ्चास्तिकाय, 135 30. पञ्चास्तिकाय, 136-138 31. पञ्चास्तिकाय, 139
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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