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इन्द्रियों से जो ज्ञान होता है वह कषायों से प्रभावित होता है। वे इस हद तक काम कर सकती है कि जब प्रिय वस्तुएँ अलग होती है, और अप्रिय वस्तुएँ अपने समीप आती है, तो उससे तीव्र चिन्ता उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप मन की शांति नष्ट हो जाती है। फिर, एक प्रकार का सुख जो निर्दयता में, चोरी में, झूठ में और इन्द्रिय सुखों को बनाए रखने के लिए उपाय ढूँढ़ने में अनुभव किया जाता है, वह कषायों का ही एक मायावी प्रदर्शन है। बात यहाँ ही समाप्त नहीं होती है, बल्कि आगमों का स्वाध्याय, गुरु के प्रति भक्ति और इसी प्रकार अन्य भी कषायों की ही अभिव्यक्तियाँ है।
इस प्रकार कषाय भिन्न-भिन्न कार्यों के कारण भिन्न-भिन्न नाम ग्रहण कर लेती है। कषायों का अभिनेता अपने आप को विभिन्न रूपों में दिखा सकता है और संसारी रंगमंच पर विभिन्न नामों और क्रियाओं के साथ अभिनय कर सकता है। लेकिन समझना यह है कि किसी को इस अभिनय से मोहित नहीं होना चाहिए और मात्र नाम और रूपों से धोखा नहीं खाना चाहिए। इसके विपरीत मूल में जो कषाय नाम और रूप धारण करती है, व्यक्ति को उनमें पैठते हुए कषायों को देखना चाहिए, कोई बात नहीं चाहे वे दयालुता, लोकोपकारिता, ईश्वर, गुरु और आगम की भक्ति, मायाचारी और अहंकार के रूप में हों। दूसरे शब्दों में, वे सद्गुण
और अवगुण के रूप में विद्यमान हो। ऐसे दृष्टिकोण के रहते हुए कोई भी व्यक्ति आत्मानुभव से कम संतुष्ट नहीं होगा। . यह बताना अनुपयुक्त नहीं होगा कि 'कषाय' शब्द का प्रयोग जैन आगमों में सभी जगह इतने विस्तार से नहीं किया गया है जैसा ऊपर प्रस्तुत किया गया है, लेकिन कभी-कभी विशेष सन्दर्भ में सीमित अर्थ ही उपयुक्त होता है। उदाहरणार्थ समयसार के बंध अध्याय में कुन्दकुन्द
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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