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योग की अधिकतम संख्या तीन है अर्थात् एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीवों के विकास के साथ यह परिवर्तनशील होता है। योग का सामान्य स्वभाव ऐसा है कि वह कर्म पुद्गलों को आत्मा की तरफ आकर्षित करता है। इस प्रकार योग अन्य कारणों की उपस्थिति में सांसारिक बंधन के लिए आधार बनाता है। दूसरे शब्दों में, कर्मों को आत्मा की तरफ आकर्षित करने का उत्तरदायित्व योग पर होता है यद्यपि उनका आत्मसात्करण कषायों की उपस्थिति में होता है जिससे वह दिव्य गुणों के आच्छादन का कारण बनता है। अब हम योग और कषाय के द्वारा बंध का विवेचन करेंगे। योग से उत्पन्न बंध के प्रकार
हम बता चुके हैं कि बंध आस्रव पर निर्भर होता है, जो प्राथमिकरूप से योग द्वारा उत्पन्न होता है। कर्मों द्वारा आत्मा का बंध चार प्रकार का है(1) प्रकृतिबन्ध, (2) प्रदेशबन्ध, (3) स्थितिबन्ध, और (4) अनुभागबन्ध। (1) जब आत्मा परिस्पन्दन क्रिया के कारण पुद्गल का कर्मों में परिवर्तन करता है उससे जो बन्ध होता है उस बंध को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। यह प्रकृतिबन्ध भोजन का विभिन्न शारीरिक तत्त्वों में परिवर्तन के अनुरूप कहा जा सकता है। यह पारम्परिक रूप से संख्या में आठ माना गया है। उनका नामकरण आत्मा के मूलभूत दिव्य गुण के आच्छादन
6. तत्त्वार्थसूत्र, 8/3
गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 89
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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