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गांध।
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और उसकी विकृति के आधार से होता है।' वे कर्म आठ प्रकार* के हैं- (i) ज्ञानावरणीय (ज्ञान का आच्छादन करनेवाले), (ii) दर्शनावरणीय (दर्शन का आच्छादन करनेवाले), (iii) वेदनीय (सुख-दुःख का उत्पादक), (iv) मोहनीय (मूर्छा का उत्पादक), (v) आयु (जीवनकाल
का निर्धारक), (vi) नाम (शरीर-निर्माता), (vii) गोत्र (जीवन-स्तर का निर्धारक) और (viii) अन्तराय (बाधा-उत्पादक)। (2) आत्मा के . प्रदेशों में योग के माध्यम से जो कर्म-पुद्गलों का मात्रासहित आपसी .. संबंध होता है वह प्रदेशबन्ध कहलाता है। यह बन्ध बताता है कि आत्मा का कोई भी प्रदेश कर्म के बिना नहीं रहता है, जो बहुत सूक्ष्म है। इस प्रकार योग के दो कार्य है, प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध ।' 7. सर्वार्थसिद्धि, 8/4
राजवार्तिक, 8/4/3 8. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, 8
तत्त्वार्थसूत्र, 8/4 9. सर्वार्थसिद्धि, 8/3 पृष्ठ 379 *(i) जैसे परदा कमरे के भीतर की वस्तु का ज्ञान नहीं होने देता वैसे ही ज्ञानावरण कर्म ज्ञान को रोकने या अल्पाधिक करने में निमित्त हैं। इसके उदय की हीनाधिकता के कारण कोई विशिष्टज्ञानी और कोई अल्पज्ञानी होता है। (ii) जैसे द्वारपाल दर्शनार्थियों को राजदर्शन आदि से रोकता है, वैसे ही दर्शन का आवरण करनेवाला दर्शनावरण कर्म हैं। (ii) जैसे तलवार की धार पर लगा मधु चाटने से मधुर स्वाद अवश्य आता है, फिर भी जीभ के कट जाने का असह्य दुःख भी होता है, वैसे ही वेदनीय कर्म सुखदुःख का निमित्त है। (iv) जैसे मद्यपान से मनुष्य मदहोश हो जाता है और सुध-बुध खो बैठता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से विवश जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है। (v) जैसे हलि (काठ) में पाँव फंसा देने पर मनुष्य रुका रह जाता है, वैसे ही आयु कर्म के उदय से जीव शरीर में निश्चित समय तक रुका रहता है। (vi) जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है, वैसे ही नाम कर्म के उदय से जीवों के नानाविध देहों की रचना होती है। (vii) जैसे कुम्भकार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है, वैसे ही गोत्र कर्म के उदय से जीव को उच्चकुल या नीचकुल मिलता है। (viii) जैसे भण्डारी (खजांची) दाता को देने से और याचक को लेने से रोकता है, वैसे ही अन्तराय कर्म के उदय से दान-लाभ आदि में बाधा पड़ती है। इस तरह ये आठों कर्मों के स्वभाव हैं। -समणसुत्तं, पृष्ठ 22-23, सर्व सेवा संघ, वाराणसी
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