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(निश्चय) दृष्टि से सम्यग्दर्शन के अंग (93-94), लोकातीत (निश्चय) दृष्टि से सम्यग्दर्शन के साथ रहनेवाली विशेषताएँ (94-95), जैनाचार की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि के रूप में सम्यग्दर्शन (95-97)। गृहस्थ का आचार
98-161 पूर्व अध्याय का संक्षिप्त विवरण (98), सम्यक्चारित्र आध्यात्मिकरूप से सम्यग्दृष्टि (जाग्रत व्यक्ति) की आन्तरिक आवश्यकता (99), वीतराग चारित्र और सराग चारित्र (99-100), नैतिक (शुभ) और अनैतिक (अशुभ) क्रियाओं को करने के सम्बन्ध में सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) और मिथ्यादृष्टि (मूर्च्छित) में भेद (100-101), आंशिक चारित्र (विकल चारित्र) की आवश्यकता (101-102), मनुष्य की विशिष्ट स्थिति (102), त्याग का दार्शनिक दृष्टिकोण (102-103), हिंसा का व्यापक अर्थ (103-104), हिंसा का लोकप्रचलित अर्थ (104-105), बाह्य आचरण की शुचिता भी आवश्यक है (105-106), हिंसा और अहिंसा के कृत्यों का निर्णय (106-107), हिंसा के प्रकार (107), अहिंसाणुव्रत (107-111), असत्य का स्वरूप (112-114), सत्याणुव्रत (114-115), चोरी (स्तेय) का स्वरूप (115), अचौर्याणुव्रत (अस्तेयाणुव्रत) (116-117), अब्रह्म का स्वरूप (117), ब्रह्मचर्याणुव्रत (117-118), परिग्रह का स्वरूप (118-119), परिग्रह
और हिंसा (119), परिग्रहपरिमाणाणुव्रत (119-120), पुण्य (गुण) और पाप (दोष) के मिश्रण के रूप में गृहस्थ
(VIII)
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