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होती है। इस दृष्टि से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि हिंसा की धारणा में सद्गुण और अवगुण दोनों सम्मिलित होते हैं, लेकिन हम यहाँ केवल तीव्र कषाय (अवगुण) के रूप में हिंसा के अर्थ का विवेचन करेंगे। इसलिए इस दृष्टि से असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह हिंसा के उदाहरण हैं। इस प्रकार हिंसा सभी पापों का संक्षिप्तीकरण है। लोक प्रचलित अर्थ में (जिस पर अभी विचार किया जायेगा) हिंसा का असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से भेद है। हिंसा में द्रव्यप्राण और भावप्राण प्रत्यक्ष रूप से पीड़ित किये जाते हैं, जब कि शेष- असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य .
और परिग्रह में वे प्राण अप्रत्यक्ष रूप से पीड़ित किये जाते हैं। हिंसा का लोकप्रचलित अर्थ
तीव्र-कषाय-ग्रसित योग' (मन, वचन और काय की प्रक्रिया) से द्रव्यप्राणों और भावप्राणों को पीड़ित करने के रूप में हिंसा परिभाषित की जा सकती है। आत्महत्या, मानवहत्या और अन्य प्राणियों का वध हिंसा के स्वभाव को उपयुक्त ढंग से प्रस्तुत करता है, क्योंकि ये पापकार्य उसी समय संभव होते हैं जब अपने स्वयं के और दूसरे के द्रव्यप्राण और भावप्राण पीड़ित किए जाते हैं। द्रव्यप्राण कम से कम चार और
अधिक से अधिक दस होते हैं और भावप्राण जीव के गुण ही है। पीड़ा की मात्रा प्राणों को किसी भी समय और अवसर पर पीड़ित करने के अनुपात में होगी। सावधानीपूर्वक की गई शारीरिक क्रियाओं से यदि कोई भी प्राणी पीड़ित हो जाता है तो यह हिंसा नहीं कही जा सकती है, क्योंकि तीव्र कषाय का अभाव है। इसके विपरीत, यदि असावधानीपूर्वक की 6. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 44 7. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 43
तत्त्वार्थसूत्र,7/13 8. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 45
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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