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गई शारीरिक क्रियाओं से कोई भी प्राणी पीड़ित नहीं होता है तो भी क्रियाएँ हिंसा से मुक्त नहीं है। यहाँ यद्यपि आत्मा ने दूसरों को पीड़ा नहीं पहुँचाई है, फिर भी इसने अपने स्वाभाविक स्वभाव को मलिन करके स्वयं को पीड़ित किया है। अतः हम कह सकते हैं कि हिंसा में प्रवृत्ति
और हिंसा के त्याग का न होना दोनों हिंसा कही जाती है। दूसरे शब्दों में, वह व्यक्ति जिसने हिंसा का त्याग नहीं किया है यद्यपि वह वास्तव में हिंसा में प्रवृत्त नहीं हो रहा है, फिर भी अवचेतन मन में इसको करने का भाव होने से हिंसा करता है। वह व्यक्ति, जो मन-वचन-काय को दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में लगाता है, वास्तव में वह तो हिंसा करता ही है। इस प्रकार जहाँ कहीं भी मन-वचन-काय की असावधानी होगी वहाँ हिंसा अनिवार्य है। बाह्य आचरण की शुचिता भी आवश्यक है
यदि कोई व्यक्ति तर्क करता है कि किन्हीं बाह्य क्रियाओं को छोड़ना उपयोगी नहीं है केवल आन्तरिक मन अदूषित होना चाहिए, लेकिन निम्नस्तर पर, जहाँ आत्मानुभव नहीं होता है वहाँ अंतरंगरूप से झुके बिना बाह्य क्रियाएँ संभव नहीं होती हैं। अत: बाह्य और अंतरंग एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और अत्यधिक उदाहरणों में अंतरंग बाह्य से पहले होता है। इस प्रकार अंतरंग विकृति की उपस्थिति के बिना बाह्य हिंसा संभव नहीं है। जो केवल अंतरंग पर जोर देता है बाह्य की कीमत . पर, वह बाह्य आचरण के महत्त्व को भूल जाता है। वह इस बात को
9. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 46, 47 10. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 48
11. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 48 - 12. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 50
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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