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भूल जाता है कि बाह्य क्रियाओं की अपवित्रता आवश्यकरूप से अंतरंग मन को विकृत कर देती है। इस तरह से अंतरंग और बाह्य दोनों पक्ष बिगड़ जाते हैं। परिणामस्वरूप, दोनों निश्चय और व्यवहारनय अर्थात् अंतरंग
और बाह्य दोनों पक्षों को उचित स्थान दिया जाना चाहिए। हिंसा और अहिंसा के कृत्यों का निर्णय
हम यहाँ बताना चाहते हैं कि जैन दार्शनिक बाह्य व्यवहार और अंतरंग मन:स्थिति के बीच विषमता की संभावना को अनदेखी नहीं करते और परिणामस्वरूप वे हिंसा और अहिंसा के कृत्यों के निर्णय में व्याकुल नहीं होते हैं अर्थात् कौन-सा कृत्य हिंसा के फल को उत्पन्न करेगा और कौन-सा कृत्य अहिंसा के रूप में निर्णीत होगा? ख्यातिप्राप्त जैन दार्शनिक अमृतचन्द्र अपनी प्रख्यात पुस्तक पुरुषार्थसिद्धयुपाय में उपर्युक्त तथ्यों पर स्पष्टता से विचार करते हैं। प्रथम, वे प्रतिपादन करते हैं कि वह जो स्पष्टरूप से बाह्य हिंसा नहीं करता तो भी हिंसा करने में मानसिक झुकाव होने के कारण हिंसा के फल को प्राप्त करता है और वह जो हिंसा के कार्यों में स्पष्ट रूप से अपने को नियोजित करता है, वह हिंसा के फल के लिए (मानसिक झुकाव न होने के कारण) उत्तरदायी न माना जाए। द्वितीय, कोई व्यक्ति तीव्र कषाय के कारण तुच्छ हिंसा करने पर भी गंभीर परिणामों को प्राप्त करता है जब कि दूसरा व्यक्ति हिंसा के भारी कार्य करते हुए भी मन्द कषाय के कारण गंभीर परिणामों से छुटकारा पा जाता है। तृतीय, यह आश्चर्यजनक है कि दो व्यक्ति एकसी हिंसा के कार्यों में लगे हुए होने के बावजूद भी मानसिक स्थिति और कषायों की प्रबलता में भेद होने के कारण फल भोगते समय उनमें अन्तर
13. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 51 14. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 52
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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