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देखा जा सकता है। चतुर्थ, यद्यपि हिंसा एक के द्वारा की जा सकती है, तो भी परिणाम अनेक के द्वारा भोगे जा सकते हैं; उसी प्रकार हिंसा अनेक के द्वारा की जा सकती है, किन्तु फल एक के द्वारा भोगा जा सकता है। इन सबसे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हिंसा और अहिंसा के कृत्यों का निर्णय करने में अंतरंग मानसिक स्थिति को महत्त्वपूर्ण बताया गया है। हिंसा के प्रकार
हिंसा दो प्रकार की होती है- संकल्पात्मक और असंकल्पात्मक।” संकल्पात्मक हिंसा करनेवाला व्यक्ति मन, वचन और क्रिया से हिंसा करने में स्वयं को लगाता है; दूसरों को हिंसा करने में उकसाता है और दूसरों की ऐसी क्रियाओं का अनुमोदन करता है। असंकल्पात्मक हिंसा करनेवाला व्यक्ति उद्यमी, आरंभी और विरोधी हिंसा करता है। जो हिंसा अनिवार्यरूप से की जाती है अर्थात् अपने व्यवसाय के कारण, घरेलू क्रियाओं के करने के कारण और स्वयं की, पड़ौसी की, देश की, अपनी वस्तुओं की शत्रुओं से रक्षा करने के कारण, वह क्रमश: असंकल्पात्मक उद्यमी, आरंभी और विरोधी हिंसा कही जाती है। अहिंसाणुव्रत
गृहस्थ अशक्त होने के कारण अपने आपको हिंसा से पूर्णतया हटाने में असमर्थ होता है। अत: उसको दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के
- 15. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 53
16. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 55 17. जैनदर्शनसार, पृष्ठ 63 18. जैनदर्शनसार, पृष्ठ 63
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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