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की ऊँचाई पर उड़ना चाहता है जिससे अमिट आनन्द प्राप्त किया जा सके। समन्तभद्र घोषणा करते हैं कि सर्पविष से उत्पन्न दर्द अधूरे मन्त्र से समाप्त नहीं किया जा सकता है। उसी प्रकार वे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन खण्डित अंगों से उस अशान्ति को जो संसार में व्याप्त है, नष्ट करने में असमर्थ रहेगा।1 सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं- (1) निःशंकित, (2) नि:कांक्षित, (3) निर्विचिकित्सा, (4) अमूढदृष्टि, (5) उपगूहन, (6) स्थितीकरण, (7) वात्सल्य और (8) प्रभावना। (1) निःशंकित- जो निःशंकित अंग का धारक है वह केवली के द्वारा बताये गये द्रव्य के स्वभाव में शंका नहीं करता। इसके अतिरिक्त वह इस सिद्धान्त में दृढ़ रहता है कि सारे प्राणियों के प्रति दया धर्म है और उनको क्षति पहुँचाना अधर्म है। 4 इस अंग का स्वभाव मनुष्य की जिज्ञासा वृत्ति को नष्ट करना नहीं है। शंका निंदनीय नहीं है यदि इसका उद्देश्य वस्तुओं के स्वभाव का निर्णय करना हो। प्रारंभिक सन्देहवाद अंतिम निश्चितता की ओर ले जा सकता है। जहाँ हमारी अशक्त बुद्धि वस्तुओं में नहीं पैठ सकती वहाँ उनमें श्रद्धा सर्वोत्तम होती है, क्योंकि तीर्थंकर पक्षपात से उपदेश नहीं देते। जहाँ तर्कशास्त्र अपने पंखों को फैला सकता है वहाँ बौद्धिक चिन्तन से विश्वास किया जाना चाहिये जिससे मतान्धता प्रवेश न कर सके। - उचित मार्ग में दृढ़ विश्वास होने के कारण इस अंग का धारक
81. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 21 82. चारित्रपाहुड, 7
Uttarādhyayana, 28/31 83. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 23 84. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 414
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