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प्रकार सम्यग्दर्शन जो आध्यात्मिक जाग्रति है, शुद्धनय में श्रद्धा के समान माना जाना चाहिए। अतः ये दोनों समानार्थक हैं। सम्यग्दर्शन का यह चित्रण सात तत्त्वों में श्रद्धा का निषेध नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन वह पारमार्थिक दृष्टिकोण से उच्चतम आत्मा में श्रद्धा का सूचक है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि आत्मा के सम्यक् स्वभाव में श्रद्धा होनी चाहिए जो यह बताती है कि सम्यग्दर्शन और शुद्धात्मा एकरूप है। इस प्रकार व्यवहार सम्यग्दर्शन वैध और सफल है यदि वह निश्चय सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करता है।
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सम्यग्दर्शन के प्रकार
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जैन साहित्य में सम्यग्दर्शन के विभिन्न प्रकार विभिन्न दृष्टिकोणों से गिनाये गये हैं। कुछ सरागी आत्माएँ और कुछ वीतरागी आत्माएँ सम्यग्दर्शन से युक्त होती हैं, अतः हम कह सकते हैं सम्यग्दर्शन क्रमशः सराग और वीतराग होता है। फिर, सम्यग्दर्शन अन्य दो प्रकार का भी होता है। जब वह स्वयं उत्पन्न होता है अर्थात् जो बिना किसी उपदेश के प्रकट हो वह निसर्गज होता है और जब वह गुरु के उपदेश के कारण उत्पन्न होता है वह अधिगमज कहा जाता है। 80
सम्यग्दर्शन के आठ अंग व्यावहारिक दृष्टिकोण से
अब हम सम्यग्दर्शन के आठ अवयवों पर विचार करेंगे। वे सम्यग्दर्शन के आठ अंग भी कहे जा सकते हैं। जैसे विभिन्न अंग शरीर की रचना करते हैं, उसी प्रकार ये आठ अंग सम्यग्दर्शन के अनिवार्य घटक हैं। उनमें से एक की भी छूट उस आदमी के पंखों को काट देगी जो अध्यात्मवाद
78. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 22
79. सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ10
80. सर्वार्थसिद्धि, 1/3
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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