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अपने क्षेत्र में समाविष्ट करता है। उनका सार महत्त्वपूर्ण है, उनके नाम तो भिन्न भी हो सकते हैं। अतः कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन को धारण करता है, उसको स्वयं को आत्मा मानना चाहिए; दुःख के कारणों को जानना चाहिए; उनको मिटाने के साधनों को समझना चाहिए, उसको केवल कषायों को ही अपना शत्रु समझना चाहिए, यद्यपि वह उनके नाम न जाने फिर भी उसको यह बोध होना चाहिये कि असीम आनन्द उनके नष्ट होने से उत्पन्न होता है।
लोकातीत ( निश्चय, शुद्ध) दृष्टि में सम्यग्दर्शन
यदि हम गंभीररूप से चिंतन करें तो सात तत्त्वों या नौ पदार्थों में श्रद्धा भी सम्यग्दर्शन के स्वभाव को यथार्थ नहीं मानती है। सम्यग्दर्शन का वास्तविक स्वभाव लोकातीत (शुद्ध) आत्मा में दृढ़ श्रद्धा रखना है। सात तत्त्व में स्वयंप्रकाशमान तत्त्व आत्मा है और परिणामस्वरूप आत्मा की स्वाभाविक शुद्धता में दृढ़ श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन कहा जाता है। कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड में बताते हैं कि शुद्धात्मा के प्रति श्रद्धा निश्चय सम्यग्दर्शन है और इसके विपरीत, सात तत्त्वों के प्रति श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है।74 अमृतचन्द्राचार्य समयसार की टीका में निश्चय या शुद्धनय को ही सम्यग्दर्शन के रूप में स्वीकार करते हैं।” यह इसलिए कहा गया है कि शुद्धनय आत्मा को कर्मों से असम्बद्ध और अस्पर्शित स्वीकार करता है और राग-द्वेष आदि मनोभावों को आत्मा से तादात्म्य रहित मानता है।" यह आत्मा को अविनाशी, ज्ञानादि गुणों के होते हुए भी अविभक्त और चार गतियों से उत्पन्न अशुद्ध पर्यायों से रहित मानता है।” इस 73. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 13 74. दर्शनपाहुड, 20
75. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 12
76. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 14
77. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 14
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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