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________________ सात प्रकार के भयों को हटा देता है जो मिथ्यादृष्टि आत्माओं में सामान्यतया उपस्थित होते हैं। वह भयभीत नहीं होता है- जब वे वस्तुएँ जो उसको शारीरिक और मानसिक सुख देती है, उससे अलग होती हैं, जब दुख और घोर व्यथा उससे संयुक्त होती हैं। वह पुनर्जन्म से सम्बन्धित भययुक्त विचार से व्याकुल नहीं होता है। इसके अतिरिक्त, उसने मृत्यु के भय को, रोग से उत्पन्न होने वाली अशान्ति को, संसार की आकस्मिक घटनाओं के भय को और अपनी सुरक्षा के भय को और अपनी संपत्ति या आत्मसंयम के खोने के भय को हटा दिया है। (2) निःकांक्षित-निःकांक्षित अंग का अर्थ है कि निष्ठावान व्यक्ति सांसारिक संपत्ति और स्वर्गीय सुखों के पीछे नहीं भागता है, क्योंकि उसको यह विश्वास हो चुका है कि ये . सांसारिक सुख अस्थायी हैं, दुःखों से भरे हुए हैं, पाप और अनिष्ट के उत्पादक हैं और कर्ममल से उत्पन्न होते हैं। वह एकान्तिक दृष्टियों को नहीं पकड़ता है। (3) निर्विचिकित्सा- निर्विचिकित्सा अंग का धारक विविध प्रकार की शारीरिक अवस्थायें जो व्याधि, भूख, प्यास, सर्दी और गर्मी आदि से उत्पन्न होती हैं उनसे घृणा नहीं करता है। शरीर तीन रत्न- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से सम्माननीय बन जाता है। इसलिए निर्विचिकित्सा अंग ऐसे सम्माननीय शरीर की तरफ घृणित दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता है और इस अंग का धारक लोकातीत गुणों के प्रति भक्ति रखता है। 8 (4) अमूढदृष्टि- मिथ्यात्व के कारणों से बचकर रहना और अपने आपको कुमार्ग पर चलनेवाले व्यक्तियों से 85. मूलाचार, 53 भावना-विवेक, 41, 43-51 86. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 12 87. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 24 88. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 13 (90) Ethical Doctrines in Jainism fer # 3/Trulia hala Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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