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________________ हैं। कार्तिकेय देशव्रत को शिक्षाव्रत में गिनते हैं और भोगोपभोगपरिमाणव्रत को गुणव्रत के रूप में मानते हैं। उमास्वामी” देशव्रत को गुणव्रत मानते हैं और भोगोपभोगपरिमाणव्रत को शिक्षाव्रत स्वीकार करते हैं। समन्तभद्र और कार्तिकेय व्रतों के नाम के बारे में एकमत हैं लेकिन पूर्ववर्ती (समन्तभद्र) देशव्रत को शिक्षाव्रत के रूप में प्रथम रखकर क्रम बदल देते हैं। कार्तिकेय, उमास्वाति और समन्तभद्र शीलव्रतों के पश्चात् सल्लेखना के स्वरूप पर विचार करते हैं। वसुनन्दी देशव्रत को गुणव्रत के रूप में स्वीकार करते हैं और भोगोपभोगपरिमाणव्रत को भोगविरति और परिभोगनिवृत्ति में विभाजित करते हैं और उनको सल्लेखना के साथ शिक्षाव्रतों में सम्मिलित कर लेते हैं। इस प्रकार जैनधर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय में शीलव्रतों के सम्बन्ध में पाँच परम्पराएँ देखी जाती हैं- कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, उमास्वामी, समन्तभद्र और वसुनन्दी की परम्परा। जैनधर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में दो प्रकार की परम्पराएँ देखी जाती है- प्रथम, उमास्वाति की परम्परा और द्वितीय उपासकदशा और श्रावकप्रज्ञप्ति की परम्परा जो हरिभद्र, हेमचन्द्र और यशोविजय आदि के द्वारा अनुसरण की गई है। द्वितीय परम्परा समन्तभद्र और कार्तिकेय से व्रतों के क्रम में कुछ परिवर्तन के साथ एकमत है । विभिन्न परम्पराएँ व्याख्या के भेद के कारण हैं। यह भेद जैनधर्म के आधारभूत सिद्धान्तों में असंगति के कारण नहीं है किन्तु यह भेद समय, स्थान और विचार के झुकाव के कारण उत्पन्न होता है। 96. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 367 97. तत्त्वार्थसूत्र, 7/21 98. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 67, 91 99. वसुनन्दी श्रावकाचार, 217, 218, 271, 272 (126) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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