________________
स्वयं तत्त्वमीमांसा और आध्यात्मिकता- इन दोनों कड़ियों को बड़ी ही कुशलता के साथ जोड़कर समीचीन मोक्षमार्ग की भव्य रचना. करती है और साधक को आत्मविकास के उत्तरोत्तर सभी सोपान चढ़ाती हुई कृतकृत्य सिद्ध परमात्मा बना देती है।
डॉ. कमलचन्द सोगाणी की इस कृति ने मुझे इसीलिए अत्यधिक प्रभावित किया कि इसमें जैनाचार के इन दोनों महत्त्वपूर्ण पक्षों को बड़े ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया गया है और उनकी उपेक्षा .. कर देने की सामान्य भूल इसमें नहीं हो पाई है।
यद्यपि जैनाचार के विवेचन की प्राचीन परम्परा ऐसी ही रही M है कि उसमें आचार को तत्त्वज्ञान और आत्मानुभूति के बीच में रखकर ही उपर्युक्तानुसार समझाया जाता रहा है; जैसा कि समन्तभद्र, अमृतचन्द्र, आशाधर आदि के आचार-ग्रन्थों से भलीभाँति स्पष्ट है; किन्तु आधुनिक युग में यह परम्परा कुछ विच्छिन्न - सी हो गई है। आज के विद्वान् और शोधार्थी आचार को समझने के लिए 'आचार' तक ही सीमित रह जाते हैं, उसके साथ उसकी आधारभूत तत्त्वमीमांसा एवं शिखरभूत आत्मानुभूति- इन दोनों की चर्चा तक नहीं करते हैं। उनका आचार के साथ अविनाभावी सम्बन्ध समझना तो दूर की बात है। मेरी दृष्टि में यह एक बड़ी भारी भूल है। डॉ. कमलचन्द सोगाणी की यह कृति इस दिशा में बढ़ाया गया परम्परानुरूप / आगमानुरूप समीचीन कदम होने से अत्यन्त सराहनीय है । केवल सराहनीय ही नहीं है, अनुकरणीय भी है। जब कभी हमें जैन आचारशास्त्र पर कुछ लिखने-बोलने का अवसर मिले तो इसी दृष्टि से लिखना - बोलना चाहिए। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भी जैन आचारशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन इसी दृष्टि से होना चाहिए ।
Jain Education International
(XVI)
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org