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________________ अवस्था की प्राप्ति विफल हो जाती है। इसके अतिरिक्त नौ कषाय हैं, जो कम बाधा डालनेवाली होने के कारण ईषत् कषाय कहलाती हैं। वे हैं- (1) हास्य (हँसी), (2) रति (प्रीति), (3) अरति (अप्रीति), (4) शोक (विषाद), (5) भय (डर), (6) जुगुप्सा (घृणा), (7) स्त्रीवेद (स्त्री की पुरुष के प्रति आसक्ति), (8) पुरुषवेद (पुरुष की स्त्री के प्रति आसक्ति) और (9) नपुंसकवेद (स्त्री-पुरुष के प्रति आसक्ति)।' जयसेन ने क्रोध, मान, माया, लोभ और नौ ईषत् कषाय को राग और द्वेष के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया। पूर्ववर्ती (राग) में माया, लोभ, हास्य, रति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद सम्मिलित हैं जबकि परवर्ती (द्वेष) में क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा को सम्मिलित किया गया है। (ग) क्रियाशील कषाय के रूप में लेश्या- जो कार्य कषायों द्वारा किये जाते हैं, वे प्रगाढ़ता की विभिन्न श्रेणियों में होते हैं और जो क्रियाओं के रूप में प्रकट होते हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि सांसारिक जीवन में योग कषायों के साथ गुंथा हुआ है। इनमें से कोई भी दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। एक का दूसरे में आत्मसात्करण लेश्या कहा जाता है। कषायों से रंजित क्रिया (योग) लेश्या होती है। यहाँ योग पर जोर दिया गया है, कषाय पर नहीं, जिससे अरहंतों को सम्मिलित किया जा सके जो शुक्ल लेश्या रखते हैं। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से कहें तो यह कहा जा सकता है कि जो आत्मा को कर्मों से संबंधित करती है, वह लेश्या कहलाती है। 18. सर्वार्थसिद्धि, 8/9 19. सर्वार्थसिद्धि, 8/9 20. समयसार, जयसेन की टीका, 282 21. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 489 22. षट्खण्डागम, भाग-1, पृष्ठ 386 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (69) Jain Education International: For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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