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काम में लेती हैं कि जीवन के तेजस्वी पक्ष को देखने के लिए कोई भी स्थान नहीं बचता है। अध्यात्मवाद अंधकारमय हो जाता है। शुष्क नैतिकता (अध्यात्मरहित नैतिकता) या घृणित विषयासक्ति प्रचलित हो जाती है। मिथ्यात्व अध्यात्मवाद में बाधा डालता है। मिथ्यात्व की उपस्थिति में शुभ भाव शुष्क नैतिकता के समान हैं और अशुभ भाव घृणित विषयासक्ति के समान हैं। यहाँ हमने कषाय की व्याख्या आत्मा के मिथ्यात्वसहित शुभ और अशुभ मनोभावों के अर्थ में की है, क्योंकि यह आत्मा के सम्यक् जीवन को अवरुद्ध करती है। (ख) मोहनीय कर्म के समानार्थक रूप में कषाय- 'कषाय' शब्द मोहनीय कर्म के समानार्थक माना गया है, जो आठ प्रकार के कर्मों में से एक है। मोहनीय कर्म के दो उपभेद माने गये हैं अर्थात् दर्शनमोहनीय
और चारित्रमोहनीय। इस प्रकार यह कषाय एक ओर आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन) में बाधा डालती है, दूसरी ओर सम्यक्चारित्र में। अधिक स्पष्ट रूप में कहें तो कषाय का कार्य आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन), अणुव्रतों, महाव्रतों और पूर्णचारित्र से आत्मा को रोक देना है।' यद्यपि कषायें संख्या में चार हैं अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ, तो भी उनके कार्यों के कारण वे सोलह मानी जाती हैं। प्रत्येक कषाय निम्नलिखित चार प्रकार की होती है- (1) अनन्तानुबंधी कषाय- यह आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन) को अवरुद्ध कर देती है जिसके फलस्वरूप अन्तरहित संसारी जीवन के लिए आधार तैयार हो जाता है, (2) अप्रत्याख्यानावरण कषाय- यह अणुव्रतों की ओर झुकाव को तिरोहित कर देती है, (3) प्रत्याख्यानावरण कषाय- यह महाव्रतों की ओर झुकाव को रोक देती है, और अंतिम (4) संज्वलन कषाय- यह पूर्णचारित्र को अवरुद्ध कर देती है, इस प्रकार अर्हत 17. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 282 (68) Ethical Doctrines in Jainism hent # 347Karita fecha
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