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________________ तदनुसार वे राग, द्वेष और मोह" को आस्रव के कारण ही नहीं बल्कि आस्रव ही मानते हैं, जो आध्यात्मिक जाग्रति में बाधक हैं। वे इस बात को जानते हैं कि केवल आध्यात्मिक जाग्रति के होने से ही तुरन्त मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि पूर्णचारित्र की कमी रहती है। इस बात की घोषणा से कि व्यक्ति सम्यग्दर्शन ( आध्यात्मिक जाग्रति) की प्राप्ति के पश्चात् कर्मों के आस्रव से रहित होता है (उनका ) आत्मा के जीवन की तरफ शक्तिशाली दृष्टिकोण व्यक्त होता है। आध्यात्मिक जाग्रति के पश्चात् पूर्णचारित्र अपरिहार्य है, इस जन्म में नहीं तो किसी दूसरे जन्म में | राग, द्वेष और मोह जो आस्रव की पूर्ववर्ती शर्त है वही बंध की भी पूर्ववर्ती शर्त है। इन अशुद्ध मनोभावों की उपस्थिति में आत्मा अपने में पराये कर्मों को आकर्षित और आत्मसात करती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि बाह्य जगत की वस्तुएँ बंध का कारण नहीं हैं। यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यदि उनको बंध का कारण माना जाता है तो मुक्ति मृगमरीचिका और छल हो जायेगी, क्योंकि अस्तित्ववान होने से बाहरी वस्तुओं को हम नष्ट नहीं कर सकते। तब प्रश्न यह है कि बाह्य वस्तुओं का रखना और उनसे संबंधित होना क्यों मना किया गया है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि संसारी आत्मा अर्थात् वह आत्मा जिसने पवित्र अवस्था प्राप्त नहीं की है, वह उनकी उपस्थिति में अशुद्ध मनोभावों के कारण उनके अधीन हो जाता है। इसलिए निश्चय ही बंध का वास्तविक कारण तो अशुद्ध मनोभावों की उपस्थिति है, परिसर में स्थित वस्तुएँ नहीं हैं। लेकिन निम्न अवस्था में 47. समयसार, 177 समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 164, 165 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (77) www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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