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वस्तुएँ अनजाने में ही संसारी आत्मा को अशुद्धता से भर देती हैं।48 परिणामस्वरूप हम सरसरी तौर पर कह सकते हैं कि यदि व्यक्ति को आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रयत्न करना है, तो प्रारंभिक अवस्था में अपने परिसर के प्रति सचेत होना चाहिए।
बंध के कारणों को अन्य प्रकार से समझाने के लिए कुन्दकुन्द अध्यवसान का आश्रय लेते हैं, जिसका अर्थ है, आत्मा और अनात्मा में भ्रांति। इसका अभिप्राय है सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) का अभाव। मारने का विचार, जिलाने का विचार, दुःखी करने का विचार
और सुखी करने का विचार और संक्षेप में, आत्मा का अशुभ प्रवृत्तियों (हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह) से तादात्म्यकरण का विचार
और शुभ प्रवृत्तियों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) से तादात्म्यकरण का विचार अध्यवसान का उदाहरण है।' यद्यपि आत्मा दूसरे सभी अस्तित्ववान द्रव्यों से पृथक् है, तो भी वह अध्यवसान के कारण उनके साथ तादात्म्य कर लेती है, अत: आवागमन के दुःखद फल को सहती है। दूसरे शब्दों में, जब तक आत्मा शुभाशुभ वस्तुओं से तादात्म्यकरण की प्रवृत्ति को नहीं छोड़ती है, तब तक दुःख से छुटकारा नहीं हो सकता है। संवर, निर्जरा और मोक्ष की निश्चय (पारमार्थिक) दृष्टि
जो कुछ कहा गया है उससे स्पष्ट है कि संसारी आत्मा का कषाय और योग से संबंध होने के कारण सांसारिक जीवन फलित होता है।
48. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 265 49. समयसार, 262 50. समयसार, अमृतचन्द्र की टीका, 271 51. समयसार, 260, 261, 263, 264
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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