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सांसारिक सुख और दुःख से रहित होने का अभिप्राय साम्परायिक आस्रव की समाप्ति है। इसका अभिप्राय है- अन्तर में स्थित कर्मशत्रुओं का विनाश। दूसरे शब्दों में, जब मन, वचन और काय की क्रियाएँ शुभ और अशुभ मनोभावों के प्रभाव से रहित हो जाती हैं तो साम्परायिक आस्रव की समाप्ति फलित होती है। 52 फिर, हम कह सकते हैं कि कर्मास्रवों का अवरोध फलित होता है, यदि कषायें पूर्णतया नष्ट कर दी जाती हैं और समताभाव जीवन में रूपान्तरित होता है। 3
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निश्चय (पारमार्थिक) श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र जिसके फलस्वरूप आत्मा की सम्यक् अनुभूति घटित होती है, वह मोक्षप्राप्ति से एकरूप है। यह कहना इस बात के समान है कि जिसने आत्मानुभव की उच्चतम ऊँचाई पर उड़ान भरी है, वह कर्मों के आस्रव को न केवल रोकता है बल्कि आत्मा में स्थित अपवित्रता को ही मिटा देता है । पूर्ववर्ती क्रिया संवर कही जाती है और परवर्ती क्रिया निर्जरा और मोक्ष कही जाती है। आध्यात्मिक लीनता की उच्चतम अवस्था में संवर और निर्जरा के माध्यम से मोक्ष प्राप्त होगा। केवल सिद्ध अवस्था में (आत्मा की अन्तहीन विदेह अवस्था में) साम्परायिक और ईर्यापथ आस्रव समाप्त हो जाते हैं। दो प्रकार के आस्रवों में से हम यहाँ पूर्ववर्ती आस्रव से अधिक संबंधित हैं, क्योंकि वह ही ऐसा आस्रव है, ( ईर्यापथ आस्रव के विरोध में ) जो आत्मा के संसार में आवागमन के लिए उत्तरदायी है। ईर्यापथ आस्रव नाममात्र का होता है, जो यथासमय क्षीण हो जाता है।
52. पञ्चास्तिकाय, 143
53. पञ्चास्तिकाय, 142
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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