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संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्रक्रिया
उपर्युक्त वर्णित संवर, निर्जरा और मोक्ष को निश्चय दृष्टिकोण से कार्यान्वित करना काफी सरल प्रतीत होता है, किन्तु आत्मा अनादिकाल से शुभ और अशुभ मनोभावों में दोलायमान रहती है, जिसके फलस्वरूप सद्गुण और अवगुण के सापेक्ष जीवन को हटाना लगभग असंभव-सा प्रतीत होता है, और कभी-कभी ऐसा मालूम होता है कि यह मात्र कल्पना है या एक स्वप्न जो कार्यान्वित नहीं किया जा सकता है। लेकिन साधुओं ने इसकी व्यावहारिकता को दर्शाया है। निःसन्देह ऐसे जीवन में बिना किसी आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन के छलांग लगाना निराशा
और उदासी में उतार देगा। किन्तु यदि गुरु की शिक्षाएँ ईमानदारी और निष्ठा से पालन की जाती हैं, तो दिखावटी कठिनाइयाँ समाप्त हो जायेगी।
जैन आचार्य जो स्वयं बड़े साधक हैं, उन्होंने स्पष्टतया बताया है कि धर्मयात्रा के प्रारंभ में सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जाना चाहिये, क्योंकि अकेले सम्यग्दर्शन में हमारे चारित्र को सत्यनिष्ठ (सम्यक्) बनाने की अन्तःशक्ति है। तत्पश्चात् अशुभ मनोभावों का परित्याग किया जाना चाहिए और शुभ मनोभावों को ग्रहण किया जाना चाहिए। लेकिन गृहस्थ शुभ मनोभावों में पूर्णरूप से नहीं रह सकता है, अत: वह अणुव्रतों का पालन करता है, महाव्रतों का नहीं। महाव्रत केवल मुनि द्वारा पालन किये जाते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि संवर क्रमिक होता है। केवल व्यवहार दृष्टिकोण से ही संवर, निर्जरा और मोक्ष में भेद किया जाना चाहिए। ये तीनों आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि एक दूसरे की तरफ ले जाता है। आस्रव और बंध के विरोध में ये तीन तत्त्व मनुष्य जीवन को अध्यात्म में ले जाते हैं। वास्तव में संवर मोक्ष प्रक्रिया का उद्घाटन है।
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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