SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उनके नाम भिन्न हैं अर्थात् (1)ज्ञप्ति क्रिया और (2) ज्ञेयार्थ परिणमन क्रिया।12 (1) प्रथम, ज्ञप्ति क्रिया में परा इन्द्रिय ज्ञान होता है, जो बिना किसी विकृति और पक्षपात के वस्तुओं को जैसी है, जैसी थी और जैसी होगी वैसी युगपत् जानता है। यह क्रिया पूर्व में वर्णित अनासक्त क्रिया से मेल रखती है और अरहंत या जीवनमुक्त का दिव्य जीवन उसका उत्कृष्ट उदाहरण है, वे शारीरिक क्रियाओं यथा- खड़ा होना, बैठना और गमन करना आदि तथा सम्यक् धर्म के उपदेश देने की क्रियाओं को आनन्दपूर्वक करते हैं। इन क्रियाओं को कर्म फलन के स्वाभाविक परिणाम माना गया है, यद्यपि वे राग, द्वेष और मोह से रहित होती हैं। अत: वे कर्म की पारिभाषिक शब्दावली में क्षायिक क्रियाएँ कहलाती हैं वे कर्मों के सम्पूर्ण नष्ट होने से उत्पन्न होती हैं, जिससे वे सांसारिक जीवन उत्पन्न करनेवाले नवीन कर्मों को न तो अपने में आत्मसात् करती हैं और न ही उनका संग्रह करती हैं। ये क्रियाएँ ईर्यापथ प्रकार का आस्रव उत्पन्न करती हैं, जो नाममात्र का होता है और जो संसार को अनिश्चित काल के लिए बढ़ाने की शक्ति नहीं रखता है। इसके अतिरिक्त केवल योग के ही कारण लोकोत्तर आत्मा अस्थायी रूप से शरीर में ठहरती है। (2) दूसरे प्रकार की क्रिया अर्थात् ज्ञेयार्थ-परिणमन क्रिया राग, द्वेष और मोह से ग्रसित होती है और प्राणसहित और प्राणरहित जगत की वस्तुओं के स्वाभाविक अर्थ को बदल देती है। यह वस्तुओं के मूल 12. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 1/52 13. प्रवचनसार, 1/44 14. प्रवचनसार, 1/45 15. प्रवचनसार, 1/45 (66) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy