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खड़गासन और पद्मासन सामायिक करने के लिए उपयुक्त आसन बताये गये हैं।169 (4-7) साधक अपने मन को जिनेन्द्र के उपदेशों पर एकाग्र करके ऐन्द्रिक सुखों से अपने को मुक्त करे और विनम्र और समर्पित भाव ग्रहण करें या भक्ति करे या अपने आपको आत्मध्यान में लीन करे।170 उसको बिना मौन भंग किए और बिना शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं की शुद्धताओं में बाधा डाले परीषहों को सहना चाहिए।171 सामायिक करने में जो उपर्युक्त आवश्यकताओं को ध्यान में रखता है वह स्वाभाविक रूप से सारे सूक्ष्म पापों को भी छोड़ देता है।172 सामायिक की क्रिया के लिए निर्धारित समय में व्यक्ति संन्यास को धारण करने की ओर अग्रसर होता है।173
प्रोषधोपवासव्रत का स्वरूप
समन्तभद्र'74 और दूसरे 75 आचार्य प्रतिपादित करते हैं कि 169. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 355 170. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 355, 356 171. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 103
चारित्रसार, पृष्ठ 19 172. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 102
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 357
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 150 173. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 102
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 357
पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 150 174. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 106 175. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 151
सागारधर्मामृत, 5/34 अमितगति श्रावकाचार, 6/88 तत्त्वार्थवृत्ति, 7/21 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 359 Yasastilaka and Indian Culture p.282
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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