SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशिक्षण के समान है। हम मूलगुणों के पृथक् रूप से उल्लेख को सम्यग्दर्शन के साथ की अपेक्षा अधिक उचित मानते हैं क्योंकि वे मूलगुण अधिसंख्यक साधारण व्यक्तियों के द्वारा पालन किये जा सकते हैं, जिसके कारण सामाजिक ढाँचा नैतिक रूप से सुरक्षित रह सकता है। व्रत प्रतिमा (2) द्वितीय प्रतिमा व्रत प्रतिमा कही गयी है। यह गृहस्थ के विकास की द्वितीय श्रेणी है जिसमें अतिसावधानीपूर्वक अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का पालन सम्मिलित है। इन व्रतों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। 208 सामायिक और प्रोषध प्रतिमा ( 3 ) तीसरी सामायिक और (4) चौथी प्रोषध प्रतिमा कही जाती है। एक प्रश्न पूछा जा सकता है जब सामायिक और प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के रूप में माने गये हैं तो वे यहाँ तीसरी और चौथी प्रतिमा के रूप में क्यों माने जा रहे हैं ? वास्तव में यह प्रश्न और अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है कि जब हम देखते हैं कि समन्तभद्र और कार्तिकेय सामायिक और प्रोषध दोनों को व्रतों और प्रतिमाओं के रूप में स्वीकार करते हैं। और उन्होंने दोनों के लिए एक-सा ही आचरण प्रस्तावित किया है। सामायिक प्रतिमा में कार्तिकेय अपने जीवन में जोखिम उपस्थित होने के बावजूद भी मन, वचन और काय से दृढ़ संकल्प धारण करना प्रस्तावित करते हैं 209 जब कि समन्तभद्र इस बात को सामायिक व्रत में बताते हैं। 210 समन्तभद्र सामायिक प्रतिमा में यह कहकर भेद करते हैं कि 208. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 318 वसुनन्दी श्रावकाचार, 207 209. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 371, 372 210. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 103 (152) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy