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________________ दिन में तीन बार सामायिक का पालन करना चाहिए 211 जब कि कार्तिकेय ने इस बात को व्रतों में बता दिया है। 212 इस तरह प्रोषध प्रतिमा और प्रोषध व्रत में कार्तिकेय और समन्तभद्र द्वारा विशिष्ट भेद नहीं किया गया है। हम यह कह सकते हैं कि जो यह भेद बताये गये हैं वे इतने उपेक्षणीय हैं कि उन व्रतों को स्वतन्त्र प्रतिमा के रूप में स्वीकार करने के लिए हमारे पास कोई यथेष्ट प्रमाण नहीं है। आशाधर 213 का तर्क है कि ये शील जो अणुव्रत की रक्षा का कार्य करते हैं वे प्रतिमाओं में स्वतन्त्र व्रत बन जाते हैं अकाट्य नहीं है, क्योंकि ये शीलव्रत जो रक्षा का काम करते थे वे व्रत क्यों नहीं कहे जा सकते हैं? 'शील' शब्द जो व्रतों के पहले लगता है वह केवल विशिष्टता दर्शाता है और उनके व्रत होने का विलोपन नहीं करता है। संभवतया पुनरावृत्ति के कारण वसुनन्दी ने शीलव्रतों में से इन व्रतों को हटा दिया और उनका दो प्रतिमाओं के रूप में उल्लेख किया। यदि कुन्दकुन्द और कार्तिकेय इस प्रकार के वर्णन का समर्थन करते हैं अर्थात् सामायिक और प्रोषध को व्रत और प्रतिमा दोनों रूप में स्वीकार करते हैं तो संभवतया यह बताने का प्रयास है कि गहन आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ने के लिए इनका परम महत्त्व है। वास्तव में ये गृहस्थ के पूर्ण आध्यात्मिक जीवन का सार प्रस्तुत करते हैं। इसके अतिरिक्त सामायिक और प्रोषधोपवास अंतरंग रूप से संबंधित होते हैं, इसलिए एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रोषधोपवास सामायिक के उचित पालन में सहायक है और कभी-कभी सामायिक प्रोषधोपवास के 211. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 139 212. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 354 213. सागारधर्मामृत, 7/6 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (153) www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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