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पालन को प्रोत्साहित करती है। इस प्रकार यदि वसुनन्दी सैद्धान्तिक रूप से न्यायसंगत हैं तो कुन्दकुन्द और कार्तिकेय व्यवहारिक रूप से है। आध्यात्मिकता के विज्ञान में सिद्धान्त व्यवहार की बराबरी नहीं कर सकता है। इसलिए यदि ये व्रत प्रतिमा की श्रेणी में उन्नत किये जाते हैं तो यह आध्यात्मिक चेतना की गहराई का समर्थन करना है, इसलिए यह तर्कसंगत है। शेष प्रतिमाएँ
सामायिक और प्रोषधोपवास की व्रतों के रूप में स्वीकृति होते हए भी प्रतिमा के रूप में भी स्वीकार को न्यायसंगत मानने के पश्चात् अब हम शेष प्रतिमाओं के स्वरूप के बारे में विचार करेंगे। शेष सभी प्रतिमाएँ भोग और उपभोग के त्याग पर निर्भर करती हैं। (5) पाँचवीं प्रतिमा सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है। इसमें उन वस्तुओं के प्रयोग का । त्याग करना है जिनमें जीवन होता है अर्थात् जड़, फल, पत्ती, छाल, बीज आदि।214 इस प्रतिमा के द्वारा समर्थित आचरण का पालन करनेवाला व्यक्ति उन वस्तुओं को जो उसके द्वारा त्यागी गई है स्वयं नहीं खाता और दूसरों को भी नहीं खिलाता है।15 यह प्रतिमा भोग की वस्तुओं के त्याग की ओर संकेत करती है मुख्यतया सचित्त भोजन। (6) छठी प्रतिमा रात्रिभुक्ति कही जाती है। कुन्दकुन्द,216 कार्तिकेय217
214. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 380
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 141 सागार धर्मामृत, 6/8
वसुनन्दी श्रावकाचार, 295 215. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 380 216. चारित्रपाहुड, 22 217. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 382
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