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तीसरा अध्याय
सम्यग्दर्शन और सात तत्त्व
संक्षिप्त पुनरावृत्ति
प्रथम, पूर्व अध्याय में हमने सामान्यरूप से द्रव्य की जैन दृष्टिकोण से व्याख्या की है और यह समझाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार द्रव्यों का तात्त्विक स्वभाव अनुभव (Experience ) के अनुरूप है? द्वितीय, हमने यह दिखाया है कि प्रमाण, नय और अनेकान्तवाद द्रव्य के आश्रित हैं और स्यादवाद पदार्थों के तात्त्विक स्वभाव की अभिव्यक्ति और संप्रेषण का माध्यम है। तृतीय, हमने आत्मा के स्वभाव का विशेष विवेचन करने के साथ ही छह प्रकार के द्रव्यों के स्वभाव का वर्णन किया है। अंत में हमने नैतिक आदर्श की विभिन्न अभिव्यक्तियों को बताया है और यह बताने का प्रयास किया है कि वे अर्थ की दृष्टि से एकरूपता का प्रतिपादन करती हैं। उच्चतम अनुभूति की प्राप्ति में बाधा के रूप में मिथ्यात्व
हमने देखा है कि साधक का परम लक्ष्य उच्चतम नैतिक आदर्श को प्राप्त करना है। आदर्श ऐसा नहीं है जो किसी दूरवर्ती प्रदेश में स्थित हो, किन्तु यह अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव की अनुभूति है । यहाँ हम एक साधारण प्रश्न प्रस्तुत कर सकते हैं कि आत्मा अपने स्वभाव से कैसे दूर हो सकती है ? इसका उत्तर यह है कि आत्मा अनादिकाल से कलुषित अवस्था में चली आ रही है। अतः शुद्धात्मा की अनुभूति का प्रयास इतना आकर्षक नहीं है, जितनी आशा की जा सकती है। इसके विपरीत
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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