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________________ गंभीरतापूर्वक मुकाबला किया जाना चाहिए। किन्तु यदि शरीर हमारे गंभीर प्रयत्नों को सफल न होने दे तो हमें अपनी मानसिक शांति को बचाने के उद्देश्य से इसे दुर्जन की तरह छोड़ने में नहीं हिचकिचाना चाहिए | 234 इस प्रकार यदि व्यक्ति वर्तमान जीवन के समाप्त होने के कारणों के सम्मुख होता है तो उसको सल्लेखना की प्रक्रिया का सहारा लेना चाहिए। यह प्रक्रिया मृत्यु का आध्यात्मिक स्वागत है । यह मृत्यु के सामने झुकना नहीं है बल्कि निर्भयतापूर्वक और यथेष्ट प्रकार से मृत्यु की चुनौती को स्वीकार करना है । मृत्यु का यह आनन्ददायक आलिंगन हमारी आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को पुनर्जन्म में ले जायेगा, 235 लेकिन इस प्रक्रिया को अपनाना बिलकुल ही आसान नहीं है। वे व्यक्ति जिन्होंने जीवनभर पापकार्य किये हैं सल्लेखना की प्रक्रिया को धारण करने की सोच भी नहीं सकते हैं इसके लिए तो प्रारंभ से ही गंभीर प्रयास की आवश्यकता है। समन्तभद्र 236 कहते हैं कि तपस्याएँ यदि ईमानदारी और गहराई से सफलतापूर्वक पालन की जाती हैं तो उदात्त मृत्यु का फल उत्पन्न होता है। आत्मसंयम, स्वाध्याय, तप, पूजा और दान- ये सभी व्यर्थ हो जाते हैं यदि मन जीवन के आखिरी समय में शुद्ध नहीं है। जिस प्रकार राजा का प्रशिक्षण, जिसने हथियारों का प्रयोग बारह वर्षों तक सीखा व्यर्थ हो जाता है यदि वह युद्ध के मैदान में मूर्च्छित हो जाय | 237 इसलिए केवल शरीर की शक्तियों को घटाना लाभदायक नहीं है, यदि इसका परिणाम कषायों को जीतना न हो। शरीर को कृश करने की 234. सागारधर्मामृत, 8 / 5, 6, 7 235. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 175 236. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 123 237. Yaśastilaka and Indian Culture, p. 287 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (159) www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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