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परिणति कषायों का त्याग करने में है।238 शरीर का मृत्यु के प्रति समर्पण इतना कठिन नहीं माना गया है जितना आत्मसंयम का पालन और अपने मन को आत्मा में लगाना है उस समय जब कि प्राण शरीर से अलग हो रहे हैं।239 यहाँ कषायों के निराकरण पर जोर है, परिणामस्वरूप यह उदात्त मृत्यु अहिंसा की परिपालना का काम करती है।240 चूँकि यहाँ कषायों के त्याग पर जोर है, अत: सल्लेखना की प्रक्रिया का आत्मघात से अनिवार्यतः भेद किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि आत्मघात कषायों के कारण पानी, आग, जहर और श्वास रोकना आदि कुसाधनों से किया जाता है।241 उचित प्रकार से की गई सल्लेखना की तुलना में आत्मघात सरल है। सल्लेखना उस समय ग्रहण की जाती है जब कि शरीर व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असफल हो जाता है और जब मृत्यु का आगमन निर्विवाद रूप से निश्चित हो जाता है, किन्तु आत्मघात भावात्मक अशान्ति के कारण जीवन में किसी भी समय किया जा सकता है। सल्लेखना की प्रक्रिया
यदि सल्लेखना242 की प्रक्रिया का वर्णन करें तो कहा जा सकता है कि साधक को राग, द्वेष और मोह को त्यागकर मन की पवित्रता को प्राप्त करना चाहिए। इसके पश्चात् विनम्र और मधुर शब्दों से अपने परिवार के सदस्यों से और दूसरों से भी प्रार्थना करनी चाहिए कि वे उसको क्षमा करे दें, उन बुरे कार्यों के लिए जो उनके प्रति किये गये हैं जानबूझकर 238. सागारधर्मामृत, 8/22 239. सागारधर्मामृत, 8/24 240. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 179 241. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 178 242. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 124-128
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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