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या अनजाने में चोट पहुँचाने के लिए। उसको स्वयं को भी उनको हृदय से क्षमा कर देना चाहिए उन बातों के लिए जो किन्हीं अवसरों पर उनके द्वारा उसको कष्ट पहुँचाया गया है। उसे पाँच महाव्रतों का पालन करना चाहिए और अपने आपको बिना उदासी, गर्व और घृणा के उत्साहपूर्वक स्वाध्याय में लगाना चाहिए। पोषण (भोजन) शनैः-शनैः छोड़ना चाहिए, जिससे मानसिक अशान्ति टाली जा सके। मानसिक समता का लगातार रहना मुख्य आवश्यकता है। भोजन का त्याग शरीर को दुर्बल करने के लिए आवश्यक रूप से आत्मा की शक्ति को बढ़ाने में संतुलन के लिए होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिक ऊर्जा का क्रमिक विकास भौतिक पोषण के कारणों के त्याग में फलित होना चाहिए। प्रथम, भोजन को त्यागकर केवल दूध और छेना लेना चाहिए और उसको भी त्यागकर गरम पानी लेना चाहिए। तत्पश्चात् उपवास करना चाहिए और फिर अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के पवित्र नामों पर ध्यान करना चाहिए। ध्यान करने के पश्चात् साधक को अपने शरीर को अंतिम विदाई दे देनी चाहिए।
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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