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________________ यह कहना गलत न होगा कि जैनधर्म केवल आचार और तत्त्वमीमांसा ही नहीं है बल्कि अध्यात्मवाद भी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि जैन आचार्यों द्वारा निरन्तर सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) की वास्तविक उपलब्धि पर जोर दिया गया है। सम्यग्दर्शन की पृष्ठभूमि के बिना सम्पूर्ण जैन आचार चाहे गृहस्थ का हो या मुनि का पूर्णतया निर्जीव है। इस प्रकार सम्पूर्ण जैन आचार में अध्यात्मवाद व्याप्त है। आध्यात्मिक जीवन-पथ के प्रति गहन निष्ठा के कारण जैनधर्म ने आध्यात्मिक विकास के चौदह सोपान विकसित किये हैं जिन्हें गुणस्थान कहा जाता है। मैंने इन सोपानों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत सम्मिलित किया है, उदाहरणार्थ- (1) जाग्रति से पूर्व आत्मा का अंधकारपूर्ण काल (आत्मा की अंधकारपूर्ण रात्रि), (2) आत्मजाग्रति (आत्मा का जागरण), (3) आचार-सम्बन्धी शुद्धीकरण, (4) प्रकाश-ज्योति, (5) प्रकाश-ज्योति के पश्चात् अंधकार का काल और (6) सामान्य अनुभव से परे लोकोत्तर जीवन। इन सोपानों से परे एक अवस्था और है जिसे सिद्ध-अवस्था के नाम से जाना जाता है। चतुर्थ, यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि जैनधर्म में भक्ति की सैद्धान्तिक संभावना है। सामान्यतया यह माना जाता है कि जैनधर्म और भक्ति आपस में एक दूसरे के विरोधी शब्द हैं, क्योंकि भक्ति में एक ऐसे दिव्य/ईश्वरीय हस्ती के अस्तित्व की पूर्व मान्यता है जो भक्त की आकांक्षाओं का सक्रियता से उत्तर दे सके और जैनधर्म में ऐसी हस्ती की धारणा अमान्य है। यह कहना सत्य है कि जैनधर्म ऐसी ईश्वरीय हस्ती के विचार का समर्थन नहीं करता है, लेकिन जैनधर्म में निःसन्देह अर्हत् और सिद्ध, जो कि दिव्य अनुभव प्राप्त आत्माएँ हैं, भक्ति के विषय हो सकते हैं, किन्तु वे मानवीय प्रार्थनाओं के विषय होते (XXXI) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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